पिछला भाग :: सम्पूर्ण व्यक्तित्व का पोषण - 1
प्रत्येक व्यक्ति एक प्रभावशाली ‘‘व्यक्तित्व’’ की ओर आकर्षित होता है। एक सकारात्मक और प्रभावी व्यक्ति होने के नाते वह किसी भी व्यक्ति में होने वाले सर्वश्रेष्ठ गुणों वाला माना जाता है। इसलिये व्यक्तित्व और उसका विकास मनोविज्ञान के लिये एक प्रमुख विषय बन जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति एक प्रभावशाली ‘‘व्यक्तित्व’’ की ओर आकर्षित होता है। एक सकारात्मक और प्रभावी व्यक्ति होने के नाते वह किसी भी व्यक्ति में होने वाले सर्वश्रेष्ठ गुणों वाला माना जाता है। इसलिये व्यक्तित्व और उसका विकास मनोविज्ञान के लिये एक प्रमुख विषय बन जाता है।
२.प्राणमय कोश
( The Vital Air Sheath )
भाव
यह है कि जितने भी जीवधारी हैं वह सभी प्राणों पर आश्रित होकर ही जी रहे हैं,
प्राण अन्तर्यामी परमेश्वर हैं !
मंत्र: तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमयात् । अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः । तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधताम् । अन्वयं पुरुषविधः । तस्य प्राण एव शिरः । व्यानो दक्षिणः पक्षः । अपान उत्तरः पक्षः । आकाश आत्मा ।पृथिवी पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको भवति ॥ तै.२.२.२॥
अर्थ
: निश्चय ही इस अन्न-रसमय मनुष्य शरीर से, भिन्न उसके अंदर रहने वाला प्राणमय
आत्मा है, उससे यह अन्न-रसमय मनुष्य व्याप्त है; वह प्राणमय आत्मा निश्चय ही पुरुष
(मनुष्य) के आकार का ही है । आत्मा की मनुष्यतुल्य आकृति में व्याप्त होने से ही
यह मानवाकार है। प्राण ही उस आत्मा का सिर है, व्यान दायाँ पंख है, अपान बायाँ
पंख है । आकाश शरीर का मध्य भाग है । पृथ्वी पूँछ और आधार है, उस प्राण की महिमा
के विषय में यह आगे कहा जाने वाला श्लोक भी है ।
अब
उस प्राणमय कोश के महत्व को प्रतिपादित किया गया है :-
मंत्र : प्राणं देवा अनु प्राणन्ति । मनुष्याः पशवश्च ये । प्राणो हि भूतानामायुः । तस्मात् सर्वायुषमुच्यते । सर्वमेव त आयुर्यन्ति । ये प्राणं ब्रह्मोपासते । प्राणो हि भूतानामायुः । तस्मात् सर्वायुषमुच्यत इति । तस्यैष एव शारीर आत्मा । यः पूर्वस्य ॥तै.२.३.१॥
अर्थ
: जो-जो देवता, मनुष्य और पशु आदि प्राणी हैं , प्राण का अनुसरण करके ही जीवित
रहते हैं क्योंकि प्राण ही प्राणियों की आयु है, इसलिए यह सर्वायुष (सबकी आयु)
कहलाता है ( इस विचार को सुस्थापित करने के लिए इसी कथन की पुनरोक्ति है ) जो कोई
प्राण की ब्रह्मरूप में उपासना करते हैं वह निसंदेह समस्त आयु को प्राप्त कर लेते
हैं । एक ही परमात्मा अन्नरसमय स्थूलशरीरधारी कोश और प्राणमयकोश में विद्यमान हैं ।
व्यक्तित्व से संबंध : पाँच
प्राण, जिनका
आयुर्वेद में पाँच शारीरिक प्रणालियों के रूप में वर्णन है, इनको
प्राणमयकोश कहते हैं। ये गतिविधियाँ जो शरीर का सहयोग करती हैं, वह
सांस द्वारा ली गई हवा के परिणामस्वरूप होती हैं। इसलिए इसे प्राणमय कोश का नाम
दिया गया है। इस कोश में निम्नलिखित पाँच प्राण सम्मिलित हैं :-
(क) प्राण (प्रत्यक्षीकरण की
क्षमता): यह पाँच ज्ञानेन्द्रियों के
माध्यम से पर्यावरण से प्राप्त पांच प्रकार के उद्दीपनों को प्रत्यक्ष
रूप से नियंत्रित करता है।
(ख) अपान (उत्सर्जन की क्षमता): शरीर द्वारा उत्सर्जित की जाने वाली सभी चीजें
जैसे कफ, पसीना, मूत्र, मल
आदि अपान की अभिव्यक्ति है।
(ग) समान
(पाचन की क्षमता): आमाशय में एकत्रित भोजन
का पाचन करता है।
(घ) व्यान (संचरण क्षमता): यह पचे हुए भोजन के परिणामस्वरूप बने पोषक
तत्वों को रक्तके माध्यम से शरीर के विभिन्न अंगों को पहुंचाता है।
(च) उदान (चिन्तन क्षमता): यह वर्तमान स्तर से अपने विचारों को उन्नत करने
की क्षमता है जिससे कि एक नये सिद्धान्त या विचार, स्वशिक्षा
की क्षमता की संभावना या सराहने की क्षमता है।
ये पाँचो क्षमताएँ अधिक
उम्र के लोगों में धीरे-धीरे कमजोर होती
जाती हैं प्राणमय कोश ,अन्नमय
कोश को नियंत्रित एवं नियमित करता है। जब प्राण ठीक से काम नहीं करते तो भौतिक
शरीर प्रभावित होता है। प्राणमय कोश के स्वस्थ विकास के संकेत उत्साह, आवाज
को प्रभावी ढंग से प्रयोग करने की क्षमता,
शरीर की लोच, दृढ़ता, नेतृत्व, अनुशासन, ईमानदारी
और श्रेष्ठता में मिलते हैं ।
३.मनोमय कोश
( The Mental Sheath )
संकल्प-विकल्पात्मक अंत:करण का नाम “मन” है ;जो
तद्रूप हो उसे मनोमय कहते हैं ।अन्न और प्राणों के क्रियाशील होने पर मन का व्यापार शुरू होता है !
इसके
बाद के मन्त्र में मनोमयकोशस्थ पुरुष के स्वरूप का वर्णन है “तस्माद्वा
एतस्मात्प्राणमयादन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः......“ ( इस प्राणमय पुरुष से भिन्न
किन्तु उसके अंदर रहने वाला मनोमय आत्मा है; तै.२.३.२ )
इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि एक ही परमात्मा के भिन्न-भिन्न स्तर स्थूल से
सूक्ष्म होते जा रहे हैं तदोपरांत इस
मनोमय कोश की महत्ता कही गई है :-
मन्त्र : यतो वाचो निवर्तन्ते।अप्राप्य मनसा सह।आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्।न बिभेति कदाचनेति।तस्यैष एव शारीर आत्मा। यः पूर्वस्य । ॥तै.२.४.१॥
अर्थ
: जहाँ से वाणीसहित इन्द्रियाँ उसे न पाकर लौट आती हैं उस ब्रह्म के आनन्द को
जानने वाला प्राणी कभी भय नहीं करता, वही
पूर्ववर्ती परमात्मा अन्नरसमय स्थूलशरीरधारी कोश , प्राणमयकोश और मनोमयकोश में
विद्यमान ( समान स्वरूपवान ) है |
व्यक्तित्व
से संबंध : मन,
प्राणमय कोश को नियंत्रित करता है।
उदाहरण के लिए जब मन किसी आघात के कारण परेशान होता है तब प्राण के कार्यों और शरीर को प्रभावित करता है। मन ज्ञानेन्द्रियों की व्याख्या करता है। यह अतीत की अच्छी और बुरी यादों
को संग्रहीत करता है। नियमित प्रार्थना, संकल्प लेने और उन्हें पूरा करने द्वारा मन की शक्ति
में वृद्धि संभव है। शरीर, प्राण और मन के बीच एक गहरा संबंध है। मन की गति बड़ी विलक्षण है, किन्तु एक संतुलित व्यक्तित्व व जीवन में लगातार तरक्की करने के लिए मन का सामंजस्य किस प्रकार का होना चाहिए यह गीता ( अ.१२, श्लोक १८-१९ ) में भगवान ने अच्छी तरह बखान किया है :-
" जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है॥ जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है॥१८-१९॥"
शेष दो कोशों की चर्चा हम अपने अगले चिठ्ठे में करेंगे अब अपने अमित को आज्ञा दीजिये, मैं आपके हृदय में विराजमान उस परमसत्ता को सादर प्रणाम करता हूँ कृपया स्वीकार करें ......
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