अप्रैल के पूर्वार्द्ध में दो महान भारतीय साहित्यकारों की पुण्यतिथि होती है ; 08 अप्रैल को श्री बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय की और 11 अप्रैल को श्री फणीश्वरनाथ रेणु की, इन दोनों शब्द शिल्पियों को इन्हीं के रचनांश द्वारा मेरी विनम्र श्रद्धांजलि :
" शुष्क भूमि पर वृष्टि या जल पड़ने से क्यों न उसमें उत्पादन शक्ति आयेगी ? सूखी लकड़ी आग में डालने से वह क्यों न जलेगी ? रूप से हो, शब्द से हो, स्पर्श से हो - शून्य रमणी-हृदय में सुपुरुष के सस्पर्श होने से क्यों न प्रेम पैदा होगा ? देखो, अन्धकार में भी फूल खिलते हैं; मेघ से ढकें रहने पर भी चंद्र गगन में विहार करते ही हैं; जनशून्य अरण्य में भी कोयल बोलती है; जिस सागर गर्भ में मनुष्य कभी न जाएगा - वहाँ भी रत्न प्रकाशित होते ही हैं; अंधों के ह्रदय में भी प्रेम पैदा होता है; नयन बंद होने के कारण ह्रदय क्यों न प्रस्फुटित होगा ? "
( साभार - उपन्यास : रजनी ( तीसरा परिच्छेद ) / बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय )
'रजनी' बांग्ला का पहला मनो-विश्लेषणात्मक उपन्यास है; उपन्यास नायिकाप्रधान है, जिसमें नायिका अंधी है।" बेचारा डाक्टर रंग भी नहीं देना जानता; हाथ में अबीर लेकर खड़ा है । मुँह देख रहा है, कहाँ लगावे !
"जरा अपना हाथ बढ़ाइए तो । "
"क्यों ? "
"हाथ पर गुलाल लगा दूँ ?"
"आप होली खेल रहे हैं या इंजेक्शन दे रहे हैं । चुटकी में अबीर लेकर ऐसे खड़े हैं मानो किसी की माँग में सिंदूर देना है !" कमली खिलखिलाकर हँसती है । रंगीन हँसी !
डाक्टर अबीर की पूरी झोली कमली पर उलट देता है । सिर पर लाल अबीर बिखर गया - मुँह पर, गालों पर और नाक पर । ...कहते हैं, सिंदूर लगाते समय जिस लड़की के नाक पर सिंदूर झड़कर गिरता है, वह अपने पति की बड़ी दुलारी होती है । ...
ऐसी मचायो होरी हो,
कनक भवन में श्याम मचायो होरी ! "
( साभार : मैला आँचल-24 / फणीश्वरनाथ रेणु )