सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण एक ही घटक से
सम्भव नहीं है, इसके लिए आध्यात्मिक व भौतिक दोनों प्रकार के विविध विचार आवश्यक
हैं। भारतीय विचारकों ने मानव अस्तित्व को एक एकीकृत संरचना के रूप में अच्छी तरह
से देखा है जिसमें आध्यात्मिकता एवं भौतिकता दोनों पक्ष सम्मिलित है। उपनिषदों में आत्मा या चेतना को व्यक्तित्व के वास्तविक केन्द्रक के रूप में माना जाता है। चेतना अस्तित्व का शाश्वत और
अपरिवर्तनीय पक्ष है। इस प्रकार व्यक्तित्व को मात्र शारीरिक रूप में नहीं लिया जा सकता है। यह अस्तित्व के विभिन्न स्तरों तक विस्तृत है, इसमें शारीरिक, सामाजिक और
आध्यात्मिक स्तर शामिल है।
तैत्तिरीयोपनिषद हमें पंचकोशों और
उनके विकास की संकल्पना देता है। इसके अनुसार अन्नमय कोश से आरम्भ होकर आनन्दमय कोश तक हमारे अस्तित्व के पाँच आवरण है जिन्हें कोश ( Sheath ) कहते हैं। आइये
अब तैत्तिरीयोपनिषद का थोड़ा सा परिचय प्राप्त कर लेते हैं। तैत्तिरीयोपनिषद , कृष्णयजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण प्राचीनतम दस
उपनिषदों में से एक है। यह शिक्षावल्ली, ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली इन तीन खंडों में
विभक्त है। शिक्षा वल्ली में १२ अनुवाक और २५ मंत्र, ब्रह्मानंदवल्ली
में ९ अनुवाक और १३ मंत्र तथा भृगुवल्ली में १९ अनुवाक और १५ मंत्र हैं।
शिक्षावल्ली को सांहिती उपनिषद् एवं ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली को वरुण के
प्रवर्तक होने से वारुणी उपनिषद् या विद्या भी कहते हैं। तैत्तिरीयोपनिषद कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तरीय आरण्यक का ७, ८, ९वाँ
प्रपाठक ( अध्याय) है।
प्रस्तुत लेख का विषय ( व्यक्तित्व का पंचकोशीय सिद्धांत ) इस उपनिषद् के ब्रह्मानंदवल्ली
खंड में द्वितीय से लेकर पंचम अनुवाक में कुल सात मंत्रों में वर्णित है और प्रथम
अनुवाक के तीन मन्त्रों में इसका प्राक्कथन-संबंध है। अस्तित्व के इन कोशों या
स्तरों को समझने के लिए निम्न चित्र को देखिये :
आत्मा (अस्तित्व ) के ५ आवरण
जैसा कि इस संकल्पना में कहा गया है कि आत्मा
(ब्रह्म) के पाँच आवरण है, थोड़ा विचार करें तो पाते हैं कि इस विचार का पंचतत्वों, पंच
ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मेन्द्रियों से समानुपातिक संबंध है, जिसे हम इसी लेख में आगे चलकर देखेंगे बहुत विस्तार में
ना जाते हुए अब व्यक्तित्व के संबंध में इस सिद्धांत को समझने का प्रयास करते हैं|
प्रथम अनुवाक के द्वितीय मंत्र में कहा गया है
“यो वेद निहितं गुहायां
परमे व्योमन्” ( अर्थात – जो मनुष्य
परम विशुद्ध आकाश में (रहते हुए भी) प्राणियों की ह्रदयरूपी गुफा में छुपे हुए (
उस ब्रह्म ) को जानता है ) इससे स्पष्ट
होता है कि यह ब्रह्म इन पंचकोशों से आच्छादित है, जिन्हें आगे के मंत्रों में
स्पष्ट रूप से बताया गया है ।
१. अन्नमय कोश (The Food Sheath )
अन्न से ही क्षुधाजन्य
संताप दूर होता है , सारे संतापों का मूल क्षुधा ही है , इसलिए उसके शांत होने पर
सारे संताप दूर हो जाते हैं
मंत्र : अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते । याः काश्च पृथिवीँश्रिताः । अथो अन्नेनैव जीवन्ति।अथैनदपि यन्त्यन्ततः।अन्नँ हि भूतानांज्येष्ठम्।तस्मात् सर्वौषधमुच्यते। सर्वं वै तेऽन्नमाप्नुवन्ति। येऽन्नं ब्रह्मोपासते। अन्नँ हि भूतानां ज्येष्ठम्।तस्मात् सर्वौषधमुच्यते।अन्नाद् भूतानि जायन्ते। जातान्यन्नेन वर्धन्ते । अद्यतेऽत्ति च भूतानि । तस्मादन्नं तदुच्यत इति ।। तै.२.२.१।।
अर्थ : पृथ्वीलोक का आश्रय लेकर रहने
वाले या जो कोई भी प्राणी हैं , वे सब अन्न से ही उत्पन्न होते हैं,
फिर अन्न से ही जीते हैं तथा
पुन: अंत में इस अन्न में ही विलीन हो जाते हैं, अत: अन्न ही सब भूतों में
श्रेष्ठ है,
इसलिए यह सर्वौषधरूप कहलाता
है। जो साधक अन्न ब्रह्म है;
इस भाव से उसकी उपासना करते
हैं,
वे अवश्य ही समस्त अन्न (
आत्मरूप ) को प्राप्त कर लेते हैं क्योंकि अन्न ही सब भूतों में श्रेष्ठ है,
इसलिए यह सर्वौषधरूप कहलाता
है ;
सब प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं,उत्पन्न होकर अन्न से ही बढ़ते
हैं [ यहाँ यह पुनरोक्ति अन्न की श्रेष्ठता को सुनिश्चित करती है ],वह प्राणियों द्वारा खाया
जाता है तथा स्वयं भी प्राणियों को खाता है; इसलिए अन्न इस नाम से कहा जाता है।
व्यक्तित्व
से संबंध : भौतिक शरीर हमारे अस्तित्व का सबसे बाहरी भाग है। इसे अन्नमय कोश या भोजन
आवरण कहा जाता है। यह पिता द्वारा लिए गए भोजन के साथ और माँ द्वारा लिए गए भोजन के
सार द्वारा गर्भ में पोषित होता है। इसका अस्तित्व भोजन के सेवन द्वारा बना रहता है और अंत में मृत्यु के बाद वापस
पृथ्वी की खाद और भोजन बन जाता है। शारीरिक संरचना का सार भोजन से बढ़ता है, भोजन
में उपस्थित रहता है और वापस भोजन बन जाता है अतः स्वाभाविक और सबसे उचित रूप से इसे
भोजन आवरण नाम दिया गया है। जो भोजन हम करते
हैं वह मांसपेशियों, नसों, नाड़ियों, रक्त और हड्डियों
में परिवर्तित हो जाता है। यदि उचित व्यायाम और उचित आहार दिया जाता
है तो अन्नमय कोश अच्छी तरह से विकसित हो जाता है। स्वस्थ विकास के लक्षण हृष्ट-पुष्टता, फुर्ति,
सहनशक्ति, और
धीरज है।इन गुणों वाले व्यक्ति आसानी से गतिक
कौशल पर अधिकार पा सकते हैं तथा इनके नेत्र और हाथ का अच्छा समन्वय हो सकता है। लिया
गया भोजन विभिन्न पोषक तत्वों में परिवर्तित हो जाता है और हमें शारीरिक रूप से बढ़ाता है।
अब
हम इस कोश को पंचतत्व के सन्दर्भ में देखें तो उपरोक्त मन्त्र से पूर्व का मंत्र
इस संबंध में प्रकाश डालता है जिसमें कहा गया है ”तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः।आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यःपृथिवी।पृथिव्याओषधयः।ओषधीभ्योऽन्नम्।अन्नात्पुरुषः"(
निश्चय ही उस परमात्मा से पहले पहल आकाश उत्पन्न हुआ, आकाश से वायु, वायु
से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से औषधियाँ, औषधियों से अन्न और अन्न
से पुरुष ( प्राणियों ) की उत्पत्ति हुई ।
जब लिखने
का विचार किया था तो सम्पूर्ण विषय-वस्तु को एक ही बार में प्रस्तुत करने का विचार
था , किन्तु विषय सीधे सीधे हमारे
जीवन से जुड़े होने के कारण ग्राह्यता को ध्यान में रखते हुये अब एकाधिक खंडों में
प्रस्तुत करूंगा । अब अपने अमित को आज्ञा दीजिये, मैं आपके
हृदय में विराजमान उस परमसत्ता को सादर प्रणाम करता हूँ कृपया स्वीकार करें ......
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