( ब्लॉग के आलेखों को पढने की सुविधा हेतु उनको विषयवार टेब्स ( Tabs) में व्यवस्थित किया गया है , प्रकाशित सभी चिट्ठों को आप 'मुखपृष्ठ : शुभ स्वागतम' के अतिरिक्त उनके टेब्स ( Tabs) पर भी क्लिक करके विषयवार पढ़ सकते हैं । उदाहरण : यथा आप इस लेख और इस विषय ( धर्म, आध्यात्म ) पर आधारित लेखों को "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा " टेब्स ( Tabs) में भी पढ़ सकते हैं , धन्यवाद )
पूर्वाभास : बिखरता समाज और वेद - 1
अब पढ़ें गतांक से आगे .........
विचारों की समानता तो हो किन्तु इनमें किसी प्रकार की अन्योक्ति न हो , और विचार-स्वातन्त्र्य की प्रबलता और प्रखरता समाहित हो :
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतोSद्ब्धासो अपरीतास उदभिद:
देवा नो यथा सदमिदवृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे ( ऋग्वेद 1.89.1 )
विचारों की समानता तो हो किन्तु इनमें किसी प्रकार की अन्योक्ति न हो , और विचार-स्वातन्त्र्य की प्रबलता और प्रखरता समाहित हो :
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतोSद्ब्धासो अपरीतास उदभिद:
देवा नो यथा सदमिदवृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे ( ऋग्वेद 1.89.1 )
व्याख्या : हमारे पास चारों ओर से ऐंसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से बाधित न किया जा सके एवं अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों । प्रगति को न रोकने वाले और सदैव रक्षा में तत्पर देवता प्रतिदिन हमारी वृद्धि के लिए तत्पर रहें ।
इस ऋचा में राष्ट्र और समाज के हित में कार्य करने वाले पुरुषों की ही अभ्यर्थना है , वही देवता हैं , इसे समझने के लिए उपरोक्त सूक्त की और विस्तारपूर्वक चर्चा करने की आवश्यकता है । सूत्र में निहित है कि "हमारे बीच में जो पुरुष ( नि:संदेह महिला भी ) उत्तम क्रियाकुशल, ज्ञानी और सबके कल्याणकारी, सुखकारक एवं सेवा और सत्संग करने वाले हैं वे कभी मारने, वध करने या पीड़ा देने योग्य नहीं हैं । उनका कभी किसी दशा में परित्याग या उपेक्षा न की जावे , वे सदा उत्तम वृक्षों के समान उत्तम फलों को देने वाले या उत्तम कृषकों के समान उत्तम ऐश्वर्यों को देने वाले होकर हमें प्राप्त हों अथवा हमारे घर पर पधारें । जिस कारण से वे ज्ञानवान, विद्वान्, विद्याप्रद, दानी और विजयेच्छुक पुरुष प्रतिदिन कभी जीवन और आयु शक्ति को न खोने वाले, सदा दीर्घायु और बलवान हमारी रक्षा को तत्पर हों ।
विडम्बना देखिये कि अब हम ऐंसे सारे आयुवृद्धों -ज्ञानवृद्धों से येन-केन-प्रकारेण छुटकारा पा लेना चाहते हैं, जिनसे हम सनाथ कहलाये उनको अनाथ बनाते हुए हमें किंचित अपराधबोध नहीं होता । संयुक्त परिवार तो कुछ समय की बलिहारी से और कुछ स्वार्थों की बलिहारी से छिन्न-भिन्न हो गए, और तो और अब कुछेक माता-पिता अपनी बेटी उसी घर में ब्याहना चाहते हैं, जहाँ लड़का अपने माता-पिता के साथ न रह कर अलग कहीं दूर रहता हो , जिससे उनकी फूल सी कोमल बेटी को सास-ससुर के तीक्ष्ण शब्दबाणों का सामना न करना पड़े, मज़े की बात तो यह है कि वह ऐंसा करते हुए यह भूल जाते हैं कि उनका भी बेटा है और वो भी उसकी पत्नी के सास-ससुर बनेंगें ।
वैदिक वांग्मय, यह कतई नहीं कहता कि आश्रितों को ही मुखिया के अधीन अंधश्रद्धा प्रकट करते हुये रहना चाहिये, अपितु वह मुखिया ( इसे हम काल व परस्थिति के अनुसार परिवार का मुखिया या राजनेता भी कह सकते हैं , क्षेत्र के परिवर्तन हो जाने पर कर्ता का स्तर भी परिवर्तित हो जाता है ) से अपेक्षा रखता है कि वह स्वयं अपने हितों को बलिदान करके अपने अधीनस्थों का भली प्रकार पोषण करे, यहाँ सामवेद का एक मन्त्र देखिये :
मा पाप्तवाय नो नरेन्द्राग्नी माभिशस्तये । मा नो रीरधतं निदे ( सामवेद 5.3.12 )
व्याख्या : नेता स्वरूप ( इंद्र और अग्नि ) , आप हमें प्रगति की ओर ले जायें । हमें हिंसा और पापकर्मों में संलग्न होने से बचाएँ । निंदनीय कार्यों से हमें दूर रखें ।
यहाँ इंद्र से तात्पर्य देवराट इंद्र से और अग्नि से तात्पर्य वैदिक देवता अग्नि से होने के अतिरिक्त क्रमश: प्रधान ( परस्थिति अनुसार चाहे वो जो हो चाहे परिवार का मुखिया और चाहे राष्ट्र का मुखिया ) और उसकी सहकारी शक्तियों से भी है । आशय है कि वह स्वयं तो उपरोक्त कर्मों से बचें ही साथ ही अपने मातहतों को भी इस कुपथ पर न चलने दें , ऐंसी दशाएं ही निर्मित न होने दे कि किसी को वर्जनीय कार्य करने के लिए उद्यत होना पड़े ।
जबसे मानव सभ्यता का जन्म हुआ है तब से ही समाज में किसी न किसी रूप में असमानता या वर्गभेद दृष्टिगोचर होती रही है , इस का कोई एक कारण नहीं है । यह असमानता बहुत से कारणों से हो सकती है जो अपनी उत्पत्ति अनुसार प्राकृतिक या मानवीय हो सकते हैं । असमानता से वर्गभेद का जन्म होता है जो आगे जाकर वर्ग-संघर्ष में परिवर्तित हो जाता है, लेकिन वर्ग-संघर्ष भी अक्षुण्ण समतावान समाज का निर्माण कर सके यह आवश्यक नहीं , वर्तमान में ही हम विश्व के विभिन्न हिस्सों में चल रहे विद्रोहों को जानते हैं जिनमें भारी पैमाने पर जन-धनहानि, रक्तपात हुआ और वहाँ का सामाजिक ढांचा छिन्न-भिन्न हो गया । जो सक्षम हैं अगर वह गरीब का हक न मारें , उन्हें भी मानव समझ कर उन पर सदाशयता दिखाएँ , और जो अभावग्रस्त हैं ( इनमें वो कृत्रिम अभावग्रस्त भी शामिल हैं जो कहने को तो जनप्रतिनिधि या लोकसेवक हैं किन्तु पत्र-पुष्प की सुगंध मात्र की लालसा रखते हैं ) वह अपने अभावों को दूर करने के लिए अनैतिकता का रास्ता न अपनाएँ तो समाज का दृष्टिगोचर हो रहा असंतोष पूर्णतया तो नही लेकिन बहुत कुछ शांत हो जाएगा इस उद्देश्य की पूर्ती के लिए भारतीय दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि उपभोग पर नियन्त्रण होना चाहिये । ईशावास्योपनिषद् ( यजुर्वेद से संकलित ) की पहली ऋचा ही देखिये :
तेन त्यक्तेन भुन्जीथा मा गृध्ः कस्यस्विद् धनम् ॥
व्याख्या : संसार में जो कुछ है वह ईश्वर का है, हमारा नहीं है इसलिए त्यागपूर्वक उसका उपयोग करना चाहिए अर्थात् हमें जितना चाहिए उतना ही लें उससे अधिक न लें। अपनी आवश्यकता के अनुसार ही वस्तुओं का प्रयोग करें उनका अपने पास संग्रह न करें।
किसी के धन का लालच मत करो। अर्थात् किसी के भी धन को ललचाई दृष्टि से मत देखो, उसे अपना बनाने का प्रयास मत करो। एक अर्थ यह भी कि लालच मत करो जितना तुम्हारे पास है उसी से संतुष्ट रहो। यह धन किस का हुआ है? अर्थात् यह धन किसी के पास नहीं रहता, आता है और चला जाता है किसी के पास नहीं टिकता। इसलिए उसका लालच नहीं करना चाहिए। इस सूक्त को जीवन में उतारने से न सिर्फ व्यक्तिगत ईमानदारी ही आती है बल्कि यह अनावश्यक आपाधापी के मानसिक तनाव को कम करने में भी मददगार साबित हो सकती है । अब तकनीक के कारण हम एक वैश्विक समाज में परिवर्तित होते जा रहे है , कहने की आवश्यकता नहीं कि इसकी अच्छाईयों को नकारते और बुराइयों को अपने में समेटते हुए , आधुनिक विश्व आज जिस विश्व बन्धुत्व की बात करता है उसके सन्दर्भ में हमारे विद्वान हजारों वर्ष पहले ही घोषणा कर चुके थे । यहाँ यह मन्त्र पठनीय है :
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ( यजुर्वेद 36.10.18 )
व्याख्या : सारे लोग मुझे अपना मित्र मानें। इस संसार के सारे प्राणी मनुष्य और पशु मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूँ। मित्रता एक-पक्षीय नहीं होती, यह उभय-पक्षीय होती है। वेद में यह प्रार्थना की गई है कि सारे प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें और मैं भी यह कहता हूँ कि मैं स्वयं भी सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखता हूँ।इस मन्त्रांश में यह बात स्पष्ट हो जाती है कि न केवल संसार के समस्त प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें और न केवल मैं ही विश्व के प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखता हूँ अपितु हम सब संसार के प्राणी एक दूसरे को मित्र भाव से देखें। हम लोग सभी को मित्र की दृष्टि से देखें।श्रुति समाज में सामंजस्य स्थापित करने और शान्ति का उपदेश करते हुये कहती है :
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजनाना उपासते ॥ (ऋग्वेद 10.191.2 )
व्याख्या : तुम सब अच्छी तरह मिलकर चलो, ठीक प्रकार से चलो । एक जैसी बात करो । अलग-अलग विवाद मत करो । ठीक प्रकार से बोलो | सोच समझ कर बोलो । ऐंसा मत बोलो जिससे तुम्हें अपनी बात बदलनी पड़े | तुम सब के मन समान हो कर ज्ञान प्राप्त करें अर्थात तुम्हारे मन एक समान आगे बढ़ें, एक साथ ज्ञान प्राप्त करें । पूर्ववर्ती देवता ( यहाँ देव से अभिप्राय है देवताओं जैसे सद्गुणों वाले विद्वान् लोग ) ज्ञान प्राप्त करके अपना कार्य संपन्न करते हैं, अर्थात जिस प्रकार हमारे पूर्वज ज्ञान प्राप्त करके अपना कार्य पूर्ण करते थे उसी प्रकार हम भी ज्ञान प्राप्त कर अपना कार्य संपन्न करें ।
समाज में आ रही विकृतियों का निवारण करने के लिये हमारी प्राचीन मेधा के यह उपाय न सिर्फ युक्ति संगत हैं बल्कि समाज में परस्पर बन्धुत्व को बढ़ाने वाले भी हैं । स्मृतिकारों का प्रतिपादन है कि धर्म के दस लक्षणों में से पाँचवाँ लक्षण शौच शुद्धि अर्थात् पवित्रता है इसी पवित्रता के पाँच प्रकारों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि पवित्रता के पाँच प्रकार हैं 1. मन की पवित्रता, 2. कार्य में पवित्रता, 3. कुल की पवित्रता, 4. शरीर की पवित्रता, 5. वाणी की पवित्रता, अर्थात् जो इन पाँचों दृष्टियों से पवित्र हो उसी को वास्तविक रूप से पवित्र माना जा सकता है। केवल किसी एक की पवित्रता पर्याप्त नहीं होती। ऐसा नहीं कि हम वाणी तो पवित्र बोलें पर मन पवित्र न हो। मनसा, वचसा, कर्मणा हर दृष्टि से पवित्र होना अनिवार्य है। ऐसा नहीं कि बोलें कुछ और, सोचें कुछ और तथा करें कुछ और।
चलते-चलते आपको बता दें ब्राह्मणग्रंथों में यज्ञ संबंधी प्रक्रियाओं तथा उनसे संबंधित अन्य विषयों पर विस्तार से लिखा गया है। प्रत्येक वेद का अपना अलग ब्राह्मण ग्रंथ है। शतपथ ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण एवं षडविंशब्राह्मण आदि कुछ प्रसिद्ध ब्राह्मण ग्रंथों के नाम उल्लेखनीय हैं। यज्ञों के अतिरिक्त आत्मा, परमात्मा तथा ब्रह्म आदि विषयों पर चर्चा आरण्यक ग्रंथों में है। ये ग्रंथ अरण्यों-वनों में लिखे गए। ऋषि लोग गांवों तथा नगरों से दूर रहकर इन विषयों पर चर्चा करते थे अतः इन ग्रंथों का नाम ही आरण्यक हो गया। आरण्यकों का विषय ही व्यवस्थित तथा विस्तृत रूप से उपनिषदों में है। उपनिषदों की संख्या बहुत अधिक है परन्तु ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक एवं श्वेताश्वतर नाम के ग्यारह उपनिषदों का विशेष महत्त्व है। भारतीय संस्कृति को गंभीरता से समझने के लिए वैदिक साहित्य का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है।
आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ 'प्लवंग' नाम सम्वत्सर व वासन्तीय नवरात्र , वि.सं. २०७१ आप सभी को मंगलमय हो । यह सम्वत हमारे राष्ट्र और विश्व में शांति व कल्याण का संदेश लेकर आये | आप सबको सपरिवार ईष्टमित्रों सहित नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें ।
ॐ द्यौ: शांतिरन्तरिक्षँ शांति: पृथ्वी शांतिराप:
शांतिरोषधय: शांति:। वनस्पतय: शांतिर्विश्वे देवा: शांतिर्ब्रह्म शांति: सर्वँ शांति: शांतिरेव शांति: सा मा शांतिरेधि। ( यजुर्वेद 36/17 )
व्याख्या: द्युलोक शांतिदायक हो , अन्तरिक्ष लोक शांति दायक हो , पृथ्वीलोक शांतिदायक हो | जल, औषधियां और वनस्पतियाँ शांतिदायक हों । सभी देवता, सृष्टि की सभी शक्तियाँ शांतिदायक हों । ब्रह्म अर्थात महान परमेश्वर हमें शांति प्रदान करने वाले हों । उनका दिया हुआ ज्ञान, वेद शांति देने वाले हों । सम्पूर्ण चराचर जगत शांति पूर्ण हो अर्थात सब जगह शांति ही शांति हो । ऐसी शांति मुझे प्राप्त हो और वह सदा बढती ही रहे । अभिप्राय यह है कि सृष्टि का कण-कण हमें शांति प्रदान करने वाला हो । समस्त पर्यावरण ही सुखद व शान्तिप्रद हो ।
ॐ शांति: शांति: शांति: ।।