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सोमवार, 31 मार्च 2014

बिखरता समाज और वेद - 2

ब्लॉग के आलेखों को पढने की सुविधा हेतु उनको विषयवार टेब्स ( Tabs) में व्यवस्थित किया गया है प्रकाशित  सभी चिट्ठों को आप  'मुखपृष्ठ : शुभ स्वागतमके अतिरिक्त उनके  टेब्स ( Tabs) पर भी क्लिक करके विषयवार पढ़ सकते हैं । उदाहरण : यथा आप इस लेख और इस विषय ( धर्मआध्यात्म ) पर आधारित लेखों को "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा टेब्स ( Tabs)  में भी  पढ़ सकते हैं धन्यवाद ) 


अब पढ़ें गतांक से आगे .........


     विचारों की समानता तो हो किन्तु इनमें किसी प्रकार की अन्योक्ति न हो , और विचार-स्वातन्त्र्य की प्रबलता और प्रखरता समाहित हो :

                        आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतोSद्ब्धासो  अपरीतास उदभिद:
                        देवा नो यथा सदमिदवृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे  ( ऋग्वेद 1.89.1 )
व्याख्या : हमारे पास चारों ओर से ऐंसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से बाधित न किया जा सके एवं अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों ।  प्रगति को न रोकने वाले और सदैव रक्षा में तत्पर देवता प्रतिदिन हमारी वृद्धि के लिए तत्पर रहें ।   
     इस ऋचा में राष्ट्र और समाज के हित में कार्य करने वाले पुरुषों की ही अभ्यर्थना है , वही देवता हैं , इसे समझने के लिए उपरोक्त सूक्त की और विस्तारपूर्वक चर्चा करने की आवश्यकता है ।  सूत्र में निहित है कि "हमारे बीच में जो पुरुष ( नि:संदेह महिला भी ) उत्तम क्रियाकुशल, ज्ञानी और सबके कल्याणकारी, सुखकारक एवं सेवा और सत्संग करने वाले हैं वे कभी मारने, वध करने या पीड़ा देने योग्य नहीं हैं ।  उनका कभी किसी दशा में परित्याग या उपेक्षा न की जावे , वे सदा उत्तम वृक्षों के समान उत्तम फलों को देने वाले या उत्तम कृषकों के समान उत्तम ऐश्वर्यों को देने वाले होकर हमें प्राप्त हों अथवा हमारे घर पर पधारें ।  जिस कारण से वे ज्ञानवान, विद्वान्, विद्याप्रद, दानी और विजयेच्छुक पुरुष प्रतिदिन कभी जीवन और आयु शक्ति को न खोने वाले, सदा दीर्घायु और बलवान हमारी रक्षा को तत्पर हों ।  

     विडम्बना देखिये कि अब हम ऐंसे सारे आयुवृद्धों -ज्ञानवृद्धों  से येन-केन-प्रकारेण छुटकारा पा लेना चाहते हैं, जिनसे हम सनाथ कहलाये उनको अनाथ बनाते हुए हमें किंचित अपराधबोध नहीं होता ।   संयुक्त परिवार तो कुछ  समय की बलिहारी से और कुछ स्वार्थों की बलिहारी से छिन्न-भिन्न हो गए, और तो और अब कुछेक माता-पिता अपनी बेटी उसी घर में ब्याहना चाहते हैं,  जहाँ लड़का अपने माता-पिता के साथ न रह कर अलग कहीं दूर रहता हो , जिससे उनकी फूल सी कोमल बेटी को सास-ससुर के तीक्ष्ण शब्दबाणों का सामना न करना पड़े, मज़े की बात तो यह है कि वह ऐंसा करते हुए यह भूल जाते हैं कि उनका भी बेटा है और वो भी उसकी पत्नी के सास-ससुर बनेंगें ।  
 


     वैदिक वांग्मय, यह कतई नहीं कहता कि  आश्रितों को ही मुखिया के अधीन अंधश्रद्धा प्रकट करते हुये रहना चाहिये, अपितु वह मुखिया ( इसे हम काल व परस्थिति के अनुसार परिवार का मुखिया या राजनेता भी कह सकते हैं , क्षेत्र के परिवर्तन हो जाने पर कर्ता का स्तर भी परिवर्तित हो जाता है ) से अपेक्षा रखता है कि वह स्वयं अपने हितों को बलिदान करके अपने अधीनस्थों का भली प्रकार पोषण करे, यहाँ सामवेद का एक मन्त्र देखिये : 

                   मा पाप्तवाय नो नरेन्द्राग्नी माभिशस्तये ।  मा नो रीरधतं निदे  ( सामवेद 5.3.12 )
व्याख्या : नेता स्वरूप ( इंद्र और अग्नि ) , आप हमें प्रगति की ओर ले जायें ।  हमें हिंसा और पापकर्मों में संलग्न होने से बचाएँ ।  निंदनीय कार्यों से हमें दूर रखें । 
     यहाँ इंद्र से तात्पर्य देवराट इंद्र से और अग्नि से तात्पर्य वैदिक देवता अग्नि से होने के अतिरिक्त क्रमश: प्रधान  ( परस्थिति अनुसार चाहे वो जो हो चाहे परिवार का मुखिया और चाहे राष्ट्र का मुखिया ) और उसकी सहकारी शक्तियों से भी है ।  आशय है कि वह स्वयं तो उपरोक्त कर्मों से बचें ही साथ ही अपने मातहतों को भी इस कुपथ पर न चलने दें , ऐंसी दशाएं ही निर्मित न होने दे कि किसी को वर्जनीय कार्य करने के लिए उद्यत होना पड़े । 

     जबसे मानव सभ्यता का जन्म हुआ है तब से ही समाज में किसी न किसी रूप में असमानता या वर्गभेद दृष्टिगोचर होती रही है , इस का कोई एक कारण नहीं है ।  यह असमानता बहुत से कारणों से हो सकती है जो अपनी उत्पत्ति अनुसार प्राकृतिक या मानवीय हो सकते हैं ।  असमानता से वर्गभेद का जन्म होता है जो आगे जाकर वर्ग-संघर्ष में परिवर्तित हो जाता है, लेकिन वर्ग-संघर्ष भी अक्षुण्ण समतावान समाज का निर्माण कर सके यह आवश्यक नहीं , वर्तमान में ही हम विश्व के विभिन्न हिस्सों में चल रहे विद्रोहों को जानते हैं जिनमें भारी पैमाने पर जन-धनहानि, रक्तपात हुआ और वहाँ का सामाजिक ढांचा छिन्न-भिन्न हो गया ।  जो सक्षम हैं अगर वह गरीब का हक न मारें , उन्हें भी मानव समझ कर उन पर सदाशयता दिखाएँ , और जो अभावग्रस्त हैं ( इनमें वो कृत्रिम अभावग्रस्त भी शामिल हैं जो कहने को तो जनप्रतिनिधि या लोकसेवक हैं किन्तु पत्र-पुष्प की सुगंध मात्र की लालसा रखते हैं ) वह अपने अभावों को दूर करने के लिए अनैतिकता का रास्ता न अपनाएँ तो समाज का दृष्टिगोचर हो रहा असंतोष पूर्णतया तो नही लेकिन बहुत कुछ शांत हो जाएगा इस उद्देश्य की पूर्ती के लिए भारतीय दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि उपभोग पर नियन्त्रण होना चाहिये ।  ईशावास्योपनिषद् ( यजुर्वेद से संकलित ) की पहली ऋचा ही देखिये :

                                             ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किन्च जगत्यां जगत्।
                                           तेन त्यक्तेन भुन्जीथा मा गृध्ः कस्यस्विद् धनम् ॥ 

व्याख्या : संसार में जो कुछ है वह ईश्वर का है, हमारा नहीं है इसलिए त्यागपूर्वक उसका उपयोग करना चाहिए अर्थात् हमें जितना चाहिए उतना ही लें उससे अधिक न लें। अपनी आवश्यकता के अनुसार ही वस्तुओं का प्रयोग करें उनका अपने पास संग्रह न करें।
     किसी के धन का लालच मत करो। अर्थात् किसी के भी धन को ललचाई दृष्टि से मत देखो, उसे अपना बनाने का प्रयास मत करो। एक अर्थ यह भी कि लालच मत करो जितना तुम्हारे पास है उसी से संतुष्ट रहो। यह धन किस का हुआ है? अर्थात् यह धन किसी के पास नहीं रहता, आता है और चला जाता है किसी के पास नहीं टिकता। इसलिए उसका लालच नहीं करना चाहिए। इस सूक्त को जीवन में उतारने से न सिर्फ व्यक्तिगत ईमानदारी ही आती है बल्कि यह अनावश्यक आपाधापी के मानसिक तनाव को कम करने में भी मददगार साबित हो सकती है । अब तकनीक के कारण हम एक वैश्विक समाज में परिवर्तित होते जा रहे है , कहने की आवश्यकता नहीं कि इसकी अच्छाईयों को नकारते और बुराइयों को अपने में समेटते हुए , आधुनिक विश्व आज जिस विश्व बन्धुत्व की बात करता है उसके सन्दर्भ में हमारे विद्वान हजारों वर्ष पहले ही घोषणा कर चुके थे ।  यहाँ यह मन्त्र पठनीय है  : 


                                     मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
                  मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ( यजुर्वेद 36.10.18 )
व्याख्या : सारे लोग मुझे अपना मित्र मानें। इस संसार के सारे प्राणी मनुष्य और पशु मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूँ। मित्रता एक-पक्षीय नहीं होती, यह उभय-पक्षीय होती है। वेद में यह प्रार्थना की गई है कि सारे प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें और मैं भी यह कहता हूँ कि मैं स्वयं भी सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखता हूँ।इस मन्त्रांश में यह बात स्पष्ट हो जाती है कि न केवल संसार के समस्त प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें और न केवल मैं ही विश्व के प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखता हूँ अपितु हम सब संसार के प्राणी एक दूसरे को मित्र भाव से देखें। हम लोग सभी को मित्र की दृष्टि से देखें।
     श्रुति समाज में सामंजस्य स्थापित करने और शान्ति का उपदेश करते हुये कहती है :

                                        संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम ।
                                        देवा भागं यथा पूर्वे संजनाना उपासते ॥   (ऋग्वेद 10.191.2 )
व्याख्या : तुम सब अच्छी तरह मिलकर चलो, ठीक प्रकार से चलो ।  एक जैसी बात करो ।  अलग-अलग विवाद मत करो ।  ठीक प्रकार से बोलो | सोच समझ कर बोलो ।  ऐंसा मत बोलो जिससे तुम्हें अपनी बात बदलनी पड़े | तुम सब के मन समान हो कर ज्ञान प्राप्त करें अर्थात तुम्हारे मन एक समान आगे बढ़ें, एक साथ ज्ञान प्राप्त करें ।  पूर्ववर्ती देवता ( यहाँ देव से अभिप्राय है देवताओं जैसे सद्गुणों वाले विद्वान् लोग ) ज्ञान प्राप्त करके अपना कार्य संपन्न करते हैं, अर्थात जिस प्रकार हमारे पूर्वज ज्ञान प्राप्त करके अपना कार्य पूर्ण करते थे उसी प्रकार हम भी ज्ञान प्राप्त कर  अपना कार्य संपन्न करें । 
     समाज में आ रही विकृतियों का निवारण करने के लिये हमारी प्राचीन मेधा के यह उपाय न सिर्फ युक्ति संगत हैं बल्कि समाज में परस्पर बन्धुत्व को बढ़ाने वाले भी हैं ।  स्मृतिकारों का प्रतिपादन है कि  धर्म  के दस लक्षणों में से पाँचवाँ लक्षण शौच शुद्धि  अर्थात् पवित्रता है इसी पवित्रता के पाँच प्रकारों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि पवित्रता के पाँच प्रकार हैं 1. मन की पवित्रता, 2. कार्य में पवित्रता, 3. कुल की पवित्रता, 4. शरीर की पवित्रता, 5. वाणी की पवित्रता, अर्थात् जो इन पाँचों दृष्टियों से पवित्र हो उसी को वास्तविक रूप से पवित्र माना जा सकता है। केवल किसी एक की पवित्रता पर्याप्त नहीं होती। ऐसा नहीं कि हम वाणी तो पवित्र बोलें पर मन पवित्र न हो। मनसा, वचसा, कर्मणा हर दृष्टि से पवित्र होना अनिवार्य है। ऐसा नहीं कि बोलें कुछ और, सोचें कुछ और तथा करें कुछ और।

     चलते-चलते आपको बता दें  ब्राह्मणग्रंथों में यज्ञ संबंधी प्रक्रियाओं तथा उनसे संबंधित अन्य विषयों पर विस्तार से लिखा गया है। प्रत्येक वेद का अपना अलग ब्राह्मण ग्रंथ है। शतपथ ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण एवं षडविंशब्राह्मण आदि कुछ प्रसिद्ध  ब्राह्मण ग्रंथों के नाम उल्लेखनीय हैं। यज्ञों के अतिरिक्त आत्मा, परमात्मा तथा ब्रह्म आदि विषयों पर चर्चा आरण्यक ग्रंथों में है। ये ग्रंथ अरण्यों-वनों में लिखे गए। ऋषि  लोग गांवों तथा नगरों से दूर रहकर इन विषयों पर चर्चा करते थे अतः इन ग्रंथों का नाम ही आरण्यक हो गया। आरण्यकों का विषय ही व्यवस्थित तथा विस्तृत रूप से उपनिषदों में है। उपनिषदों की संख्या बहुत अधिक  है परन्तु ईश,  केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक एवं श्वेताश्वतर नाम के ग्यारह उपनिषदों का विशेष महत्त्व है। भारतीय संस्कृति को गंभीरता से समझने के लिए वैदिक साहित्य का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है।

     आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ 'प्लवंग' नाम सम्वत्सर व वासन्तीय नवरात्र , वि.सं. २०७१ आप सभी को मंगलमय हो ।  यह सम्वत हमारे राष्ट्र और विश्व में शांति व कल्याण का संदेश लेकर आये | आप सबको सपरिवार ईष्टमित्रों सहित नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें । 

                                         ॐ द्यौ: शांतिरन्तरिक्षँ शांति: पृथ्वी शांतिराप:
                             शांतिरोषधय: शांति:। वनस्पतय: शांतिर्विश्वे देवा: शांतिर्ब्रह्म
                                     शांति: सर्वँ शांति: शांतिरेव शांति: सा मा शांतिरेधि।  ( यजुर्वेद 36/17 )
व्याख्या: द्युलोक शांतिदायक हो , अन्तरिक्ष लोक शांति दायक हो , पृथ्वीलोक  शांतिदायक हो | जल, औषधियां और वनस्पतियाँ शांतिदायक हों ।   सभी देवता, सृष्टि की सभी शक्तियाँ शांतिदायक हों ।  ब्रह्म अर्थात महान परमेश्वर हमें शांति प्रदान करने वाले हों ।   उनका दिया हुआ ज्ञान, वेद शांति देने वाले हों ।  सम्पूर्ण चराचर जगत शांति पूर्ण हो अर्थात सब जगह शांति ही शांति हो ।  ऐसी शांति मुझे प्राप्त हो और वह सदा बढती ही रहे ।  अभिप्राय यह है कि सृष्टि का कण-कण हमें शांति प्रदान करने वाला हो ।  समस्त पर्यावरण ही सुखद व शान्तिप्रद हो ।  


                                                          ॐ शांति: शांति: शांति: ।।

गुरुवार, 27 मार्च 2014

बिखरता समाज और वेद - 1

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     एक सुंदर मनोहर सुबह के समय गर्म चाय की प्याली के साथ-साथ एक समाचारपत्र भी मिल जाये तो उससे बेहतर कुछ नहीं है , किन्तु इन समाचारपत्रों में हम क्या पढ़ते हैं, लालसा, भ्रष्टाचार, अन्याय, बलात्कार, डकैती या और ऐंसे ही अनेक विषयों पर खबरें ।  इनको पढकर हमें अपनी सुरक्षा और संरक्षा की चिंता होने लगती है | हमारे समाज को यह क्या हो रहा है ? लोग अपनी चेतना की हत्या करके पैसे के पीछे क्यों भाग रहे हैं ? हमारे समाज में मूल्य धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं ।  कुछ लोग अनैतिक माध्यमों से संपत्ति का संचय तथा ताकत प्राप्त कर रहे हैं । 

समाज का विकृतिकरण 


     हम सभी ने समान मूल्यों को ग्रहण किया है, इसके बावजूद हम में से कुछ ऐंसे हैं जो सफलता के फटाफट रास्ते के रूप में अन्याय  तथा अनैतिकता के मार्ग पर चल रहे हैं ।  मूल्य वे विचार तथा अवधारणाएं हैं जिन्हें हम विशेष गुणों के रूप में धारण करते हैं और इन्हें हम बचपन से ही सीखते हैं ।  इन मूल्यों को हम अपने माता-पिता तथा अपने आस-पास के वातावरण से ग्रहण करते हैं जबकि नैतिकता वह युक्ति है जिससे हम इन मूल्यों की जाँच करते हैं । 

     भारत को हमेशा से ही उच्च आचरण तथा नैतिक मूल्यों वाला राष्ट्र माना गया है | क्या हमारा समाज, देश तथा स्वयम हम में होने वाला परिवर्तन हमारी इस विचारधारा में परिवर्तन कर रहा है ? क्या हम उच्च मूल्यों की अपनी व्यवस्था को खो रहे हैं या यह मात्र वह चरण है जिससे हमारा देश गुजर रहा है ।  आखिर हम अपने समाज में क्यों ऐंसा होने दे रहे हैं ? इस संक्रमण काल ने कुछ ज्वलंत समस्याओं को जन्म दिया है, यथा  : - 

*  परिवारों का विखण्डन

* कानून और व्यवस्था की कमी
 
* अपराध और भ्रष्टाचार 

* मदिरापान और बढती हुई नशाखोरी
 
* महिलाओं, बच्चों तथा समाज के अन्य संवेदनशील सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार 

* संसाधनों का अन्यायपूर्ण प्रयोग व बर्बादी 

* जीवन को हानि तथा जनसंपत्ति को क्षति, और इन्हीं के समान अन्य बहुत ही समस्याएँ जो आज हमारे समाज को विभिन्न स्तरों पर कुप्रभावित कर रही हैं । इन सभी समस्याओं के सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक व राजनैतिक सहित अनेकानेक पहलू हैं । 

     प्राचीन समय से ही भारतीय प्रज्ञा ने एक  सकारात्मक दृष्टिकोण वाले समतामूलक समाज के निर्माण पर जोर दिया है ।   भारतीय ऋषियों-मनीषियों ने व्यक्तिगत शुचिता पर बल दिया है, हम सब यह बात जानते हैं अथवा किसी न किसी रूप में स्वीकार करते हैं कि  मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ।   मानव,  समाज की ईकाई होता है जब एकक अच्छा होगा तभी हम समूह के अच्छा होने की बात कर सकते हैं ।  समाज को सुस्थिर एवं सम्पुष्ट बनाने के लिए यह आवश्यक है कि सभी व्यक्ति परस्पर प्रेम भाव से रहें ।  यह भाव तभी उत्पन्न हो सकता है जब मानव समाज में समता मूलक भावना का जन्म हो, समानता का विचार ही प्रेम व मित्रता की नींव है ।  भारतीय संस्कृति के आधारभूत माने गये  " वेदों " तथा उनके अभिन्न अंग " उपनिषदों "  में इस प्रकार के उपदेश दिए गए हैं कि मनुष्य को मित्रता की भावना बढ़ाने के लिए परस्पर किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए ।  स्नेह व मैत्री तब उत्पन्न होता है जब हम एक दूसरे के सुख-दुःख को अनुभव कर सकें ।  इस समत्व  पर देखिये किस प्रकार प्रकाश डाला गया है :

वैदिक वांग्मय अंश (पांडुलिपि )


                                               समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः। 
                                           समानमस्तु वो मनोः यथा वः सुसहासति।। ( ऋग्वेद 10.191.4 )
 व्याख्या : यहां यह संदेश दिया गया है कि तुम सब का एक जैसा संकल्प हो, एक जैसा निश्चय हो। तुम सब के हृदय एक जैसे हों। तुम सब का मन एक जैसा हो जिससे तुम आसानी से संगठित हो सको। मैत्री भाव तभी बढ़ सकता है जब सब का मन एक जैसा हो। एक दूसरे के सुख दुख का अनुभव कर सकें। तभी हम आपस में बंधुभाव  को बढ़ा सकते हैं।
      जैसा कि हमने पूर्व में जाना कि मूल्य वे विचार व धारणाएँ हैं जिन्हें हम विशेष रूप से धारित करते हैं और एक कठिन परिस्थिति में हम जिस प्रकार व्यवहार करते हैं उनसे ही हमारे मूल्यों की पहचान होती है ।  यह धारणाएँ एक व्यक्ति अपने परिवार से ही सीखता है, इसलिये जीवन में आदर्श व सकारात्मक मूल्यों की पैदाइश के लिये आवश्यक है कि परिवार में एक सौहार्दपूर्ण वातावरण हो , हमारी संस्कृति में परिवार का सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है और नि:संदेह पारिवारिक वातावरण किसी के जीवन विकास में एक अहम कारक है, इसलिये मैत्रीभाव सबसे पहले परिवार में ही होना चाहिये : 
                                            
                                               अनुव्रत: पितु पुत्रो मात्रा भवतु संमना : । 
                                               जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम ॥ 

                                               मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन् मा स्वसारमुत स्वसा। 
                                               सम्यन्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।। ( अथर्व. 3.30.2-3 )
व्याख्या : पुत्र अपने पिता के अनुकूल कर्म करने वाला हो और अपनी माता के साथ समान विचार से रहने वाला हो पत्नी अपने पति से मधुरता तथा सुख से युक्त वाणी बोले ( 2 ), भाई अपने भाई से विद्वेष न करें और बहिन अपनी बहिन से विद्वेष न करें, वे सब एक विचार वाले तथा एक कर्म वाले होकर परस्पर कल्याणकारी वार्तालाप करें | ( 3 )  
     मैत्री  भाव पहले परिवार में होना चाहिए। परिवार के लोग परस्पर प्रेम से रहें, बड़े छोटों पर स्नेह रखें और छोटे बड़ों का आदर करें। भाई-भाई परस्पर प्रेम से रहें। एक भाई दूसरे भाई से द्वेष न करे। बहनें भी परस्पर प्रेम से रहें वे भी परस्पर द्वेष न करें। बहनें विवाह के पश्चात् अलग परिवारों में अलग-अलग स्थानों पर चली जाती हैं। उनकी पारिवारिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति अलग-अलग अच्छी, सामान्य या दुर्बल हो जाती है। बहनों को एक दूसरे से द्वेष न कर परस्पर प्रेम रखना चाहिए और आवश्यकता के अनुसार एक दूसरे की सहायता करनी चाहिए। सभी का मत एक समान हो। परिवार में सभी का मत सदा एक समान नहीं होता। 
सब को अपना मत प्रकट करने का अधिकार है परंतु अन्त में जो मत ठीक हो वह सभी को मानना चाहिए। अब कौन सा मत ठीक है इसका निर्णय परिवार के मुखिया या बड़े लोगों द्वारा किया जाता है और परिवार के अन्य लोगों का यह कर्तव्य  हो जाता है कि उस मत को स्वीकार कर उसका पालन करें। परिवार में ‘‘एक ने कही दूसरे ने मानी’’ की भावना से कार्य करने पर पारिवारिक सौमनस्य तथा मैत्री भाव बना रहता है और परिवार में सुख-समृद्धि  की बढ़ोतरी होती है। 

     परिवार के सभी लोग जब एक मत वाले हो जाएंगे तो वे सारे समान संकल्प वाले होकर एक जैसा ही कार्य करेंगे। सभी समान कार्य करेंगे अर्थात् परिवार का कोई भी सदस्य ऐसा कोई भी कार्य न करे जो दूसरे के कार्य के विपरीत हो या परिवार के दूसरे सदस्यों को हानि पहुंचाने वाला हो।  परिवार में एक दूसरे को अच्छी लगने वाली बातें बोलना बहुत हितकारी होता है। इसलिए वेद का आदेश है कि परिवार के सारे सदस्य-भाई बहन कल्याणकारी-हितकारी और अच्छी लगने वाली वाणी बोलें। वस्तुतः संसार के सभी लोग तो भाई बहन ही हैं सबके साथ ही उत्तम और हितकारी वाणी ही बोलनी चाहिए।

     चलते चलते आपको बता दें ,  भारतीय चिन्तन का ग्रन्थ रूप सबसे पहले वेदों में मिलता है। ऋग्वेद  विश्व का सबसे पहला ग्रंथ है। वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद्,  यह वैदिक साहित्य हैं। वेद चार हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।  ऋग्वेद में इन्द्र, अग्नि, विष्णु, मित्रा और वरुण जैसे देवताओं की स्तुतियाँ हैं, और कई दार्शनिक तथा सामाजिक चिन्तन हैं। यजुर्वेद में यज्ञ करने तथा अन्य यज्ञ संबंधी विषयों पर विचार है। सामवेद गायन विद्या का आधार  है। ऋग्वेद की ऋचाओं को साम के रूप में सामवेद में प्रस्तुत किया गया है। अथर्ववेद में सामाजिक, राजनैतिक, रोगनिवारक आदि विविध् मन्त्र हैं। 

     जब पाती लिखने का विचार किया था तो सम्पूर्ण विषय वस्तु को एक ही बार में प्रस्तुत करने का विचार था , किन्तु विषय सम-सामयिक समस्याओं के प्राचीन समाधान पर होने के कारण ग्राह्यता को ध्यान में रखते हुये अब एकाधिक खंडों में प्रस्तुत करूंगा | तब तक के लिये आज्ञा दीजिये , सादर प्रणाम...........  
            



शनिवार, 8 मार्च 2014

" नारी औ’ नयन "

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आज ( 08 मार्च ) को अंतर्राष्ट्रीय नारी दिवस की शुभकामनायें आप सबको किस प्रकार प्रेषित की जाएँ ? इस असमंजस में था तो इस दिन को मैंने अपने तरीके से स्मरणीय बनाने की सोची किया मैंने यह कि आज नेत्रदान* का संकल्प पत्र भर दिया और लिखी एक कविता :




" नारी औ’ नयन "

जीवन में एक और जीवन समा जाने की अनुभूति,
नवरस के नवमासों की शुरू फिर उलटी गिनती,
गर्वित हो जाती नारी औ’ सजग होते नयन, 
अमोलक द्वय हैं अनुपमेय नारी औ’ नयन |


बाल-विनोद, कैशोर्य-कलह, डोली उठाते स्कंध,
है मेरा भाई पुकार उठते विकल रक्त संबंध,
विह्वल हो जाती नारी औ’ निर्झर होते नयन, 
अमोलक द्वय हैं अनुपमेय नारी औ’ नयन |


हो सदय प्रियतम दिया प्रीति-प्रसाद का वर्चस्व,
कर विश्वास, कांत मान अर्पित तुम पर सर्वस्व, 
चित्रलिखित हो जाती नारी औ’ अन्वेषण करते नयन, 
अमोलक द्वय हैं अनुपमेय नारी औ’ नयन |


किलकारी बन के आई आत्मजा का धरा कलेवर, 
कन्यादान का आशीष देगी बनाना उर-पुष्प को प्रस्तर, 
प्रगलित हो जाती नारी औ’ सिन्धु होते नयन, 
अमोलक द्वय हैं अनुपमेय नारी औ’ नयन |


जन्म है इन्हीं से और इन्हीं से है मरण, 
अमोलक द्वय हैं अनुपमेय नारी औ’ नयन |

चित्र: मेरे कुशल चित्रकार मित्र श्री Raghunath Sahoo के सौजन्य से 
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चलते चलते कुछ जानकारी नेत्रदान के संबंध में : 


नेत्रदान कौन कर सकते हैं?
कोई भी सामान्य स्वस्थ व्यक्ति नेत्रदान कर सकता है। साथ ही डायबिटीज, उच्च रक्तचाप, अस्थमा और टीबी जैसी बीमारियों से पीडि़त व्यक्ति भी अपनी आंखें दान कर सकते हैं। मोतियाबिंद का ऑपरेशन करा चुके व्यक्ति भी नेत्रदान कर सकते हैं। नेत्रदान के लिए उम्र और जेंडर भी कोई बाधा नहीं है।

नेत्रदान कौन नहीं कर सकते?
अगर व्यक्ति की मृत्यु निम्रलिखित बीमारियों या कारणों से हुई है तो नेत्रदान नहीं किया जा सकता
1. एड्स / हेपेटाइटिस बी
2. सैप्टिसीमिया / सेपसिस
3. ल्यूकिमिया
4. रेबीज
5. सिर और गर्दन के मेटास्टेसिस कैंसर
6. इन्सेफेलाइटिस
7. Hodgkin Lymphoma

नेत्रदान की प्रक्रिया:
* मृतक की आंखें तभी उपयोगी होंगी, जब वे मृत्यु उपरांत 6 घंटे के भीतर दान कर दी जाएं।
* मृतक के परिजन/मित्र स्थानीय नेत्रबैंक में फोन करके सूचना दे सकते हैं (6 घंटे के भीतर)। सूचना मिलने पर नेत्रबैंक का दल शीघ्र दानकर्ता के घर या जहां शरीर उपलब्ध होगा, वहां पहुंच जाएगा। यदि मृतक ने अपने जीवनकाल में नेत्रदान का संकल्प नहीं लिया है या इसका फार्म नहीं भरा है तब भी पारिवारिक सहमति से नेत्रदान किया जा सकता है।
* नेत्रदान की प्रक्रिया में 15 से 20 मिनट का समय लगता है। इसमें आंखों से कॉर्निया लिया जाता है। इस प्रक्रिया में रक्त नहीं बहता और मृतक के चेहरे को कोई नुकसान नहीं होता। जांच के लिए मात्र 10 मिलीग्राम रक्त लिया जाता है।
* कॉर्निया निकालने के बाद इसका विश्लेषण किया जाता है और सुरक्षित करने का कार्य नेत्रबैंक में किया जाता है तथा कॉर्निया को 72 घंटे के भीतर नेत्रहीन व्यक्ति में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है।
* नेत्रबैंक मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम के अंतर्गत आते हैं, जिन्हें सक्षम अधिकारियों द्वारा निरीक्षण के बाद पंजीकृत किया जाता है। दान की गई आंखों को खरीदा या बेचा नहीं जा सकता, ऐसा करना अधिनियम के अनुसार अपराध है।

नेत्रदान से जुड़े आम मिथक/ भ्रांतियां
अगले जन्म में अंधे पैदा होंगे: गलत  नेत्रदान तो वास्तव में एक व्यक्ति द्वारा की गई महान सेवा है और अच्छे कार्य करने का फल हमेशा अच्छा ही होता है। सभी धर्मों में नेत्रदान का समर्थन किया गया है।
कुछ लोग इसलिए नेत्रदान का संकल्प नहीं लेते कि उनके रिश्तेदार क्या सोचेंगे: व्यक्ति को ध्यान में रखना चाहिए कि इतने महान विचार में छोटी-छोटी बातें बाधा नहीं बननी चाहिए। बल्कि व्यक्ति अपने परिजनों और रिश्तेदारों को भी नेत्रदान के लिए प्रेरित करने की कोशिश करे। 
मोतियाबिंद होने पर नेत्रदान नहीं हो सकता: मोतियाबिंद का मरीज नेत्रदान नहीं कर सकता लेकिन, जिस व्यक्ति का मोतियाबिंद का ऑपरेशन हो चुका है, उसके मामले में नेत्रदान पर विचार किया जा सकता है।

नेत्रदान का संकल्प पत्र भरने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये 

हमेशा की तरह मुझे आपकी प्रतिक्रियाओं की व्यग्रता से प्रतीक्षा है ! तब तक के लिये इजाज़त दीजिये 
धन्यवाद ! 

डॉ. अमित कुमार नेमा : 08/03/2014 

सोमवार, 3 मार्च 2014

कहाँ ऐंसा याराना

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बात उन दिनों की है जब हम भोपाल में कॉलेज में थे , हम बहुत से दोस्त जो भोपाल के बाशिंदे नहीं थे, कोह-ए-फिज़ा में पास-पास ही रहा करते थे ।  अक्सर बिहारी मामा की दुकान पर नाश्ता करते हुये और बन्ने मियाँ के यहाँ चाय पीते हुये हमारी टोली इकठ्ठी हो जाती थी । ऐंसे ही मस्ती करते हुए हमारी टोली की दोस्ती सैफ भाई से हो गयी, हमलोगों के हमउम्र ही थे । ये सैफ भाई अपने आपको सैयद सैफ कहलवाना पसंद करते थे और हम भविष्य के डॉक्टरों से बड़े प्रभावित थे, तो हमारे दोस्त सैफ साहब खूबसूरत भी थे, दिल के मासूम और रईसजादे भी लेकिन बावजूद इन तमाम खूबियों के सैफ भाई की कोई गर्लफ्रेंड नहीं थी, थोड़े बहुत खुद्दार किस्म के आदमी थे तो कभी ये बात सीधे-सीधे तो नहीं कही.…………

       लेकिन जनाब, दिल का दर्द छुपाये नहीं छुपता और वो भी दोस्तों के बीच ? हरगिज़ नहीं , तो हम लोग ये बात ताड़ गये ।  हमारे एक रूममेट एक कला में माहिर थे , वो अपनी आवाज़ को इतना बारीक़ , दिलकश बना लेते थे कि कोई फोन पर उनकी बात सुने तो किसी हसीना की तस्वीर ही सामने उभर आये, उन्होंने इस दुःख की दवा करने की ठानी , और सैफ भाई को अपने फोनेटिक मायाजाल में फंसाना शुरू किया । 

अँधा क्या चाहे ? दो आँखे

     सैफ भाई के मन की मुराद तो ऐंसे पूरी हुई कि मेहनत भी न करना पड़ी और लड़की, दोस्त बन गई ।  “खुले मुंह में आम टपक गया” । हम सब शाम को बड़ी झील के किनारे वी.आई.पी. रोड पर टहलने जाते थे , सैफ भाई में आये बदलावों को नोट करके मन ही मन उनके मजे लेते थे वो अब बड़े मस्त रहने लगे थे । हफ़्ता भर होते न होते सैफ भाई “फोन वाली अज्ञात सुन्दरी” के इश्क़ में फुलटू गिरफ्तार हो गये । यहाँ तक कि हम लोगों को भी टालना शुरू कर दिया अब हम लोगों को तो सब मालूम ही था फिर भी अनजान बन के सैफ भाई से पूछते थे वो बड़ी अदा से कहते  " क्या बताऊं यार नेमा , हाय कितनी प्यारी बातें करती है । "  हम सब उनको जलन होने का दिखावा करते । बोले तो १० दिन झक्कास फ़िल्मी डिरयामा किया मंडली ने ...............



     तो देवियों और सज्जनों, सैफ भाई की हालत " मैं तेरे प्यार में पागल ऐंसे घूमता हूँ " जैसी हो गई और सैफ भाई अपनी फोन वाली प्रेमिका से मिलने का पुरज़ोर इसरार करने लगे, लेकिन फोनेटिक अप्सरा भी कोई कम नखरों वाली तो थी नहीं जो ऐंसी आसानी से हाथ आ जाती।  इधर , मोहब्बत में सालम कैद, सैफ भाई की हालत दिनोंदिन गम्भीर होती जा रही थी तो हम, इस योजना आयोग के सदस्यों ने एक आपातकालीन बैठक आहूत की, कि अब इस मामले का पटाक्षेप कैसे करना है ? सभासदों ने एकमत से प्रस्ताव पारित किया :

" आशिक का जनाज़ा है, जरा धूम से निकले "

     फोन वाली महबूबा ने एक शाम को मिलने की हामी भर दी । उस शाम सैफ भाई हम लोगों के साथ सायंकालीन सैर पर नहीं गये और हम लोग भी अपनी सैर के मामूली प्रोग्राम में रद्दोबदल कर जल्दी लौट आये, आखिर हमें भी तो इश्क़िया ज़नाज़े में शरीक होना था । माशूका ने मिलने की जगह बिट्टन मार्केट में आमेर बेकरी मुकर्रर की । हम सैफ भाई की माशूका को साथ लेकर तयशुदा मुकाम पर पहुंचे और हम दोस्त जिनमे मैं भी शामिल था "सैफ भाई की माशूका" के साथ आमेर बेकरी में एक अच्छी सी मौके की टेबल ( जहाँ से बाहर का नज़ारा किया जा सके ) पर कब्जा करके बैठे और बैठते ही साथ एस्प्रेसो काफी का आर्डर किया और चुसकने लगे । 

     और जैसा कि अपेक्षित था उस हसीन शाम के एक खूबसूरत लम्हें में सजे-धजे, दमकते-महकते, अपना नूर फिजाओं में बिखराते सैफ भाई जलवा-अफरोज़ हुये और बडी शाईस्तगी के साथ अपनी कार से बाहर कदम रखा ।  सैफ भाई ने बाहर से ही सुनिश्चित किया कि उनकी रातों की नींद , उनके इंतजार में बैठी है और तब उनके लबों पर जो मुस्कुराहट आई भगवान झूठ न बुलवाये वो तो फ्रेम कराने लायक थी ।  सैफ ने अंदर आते ही साथ किसी अकेली बैठी लड़की की उम्मीद में एकबारगी सभी टेबलों पर नजर दौड़ाई इस कसरत में उनकी निगाह मंडली पर भी गई लेकिन कुछ सोच के उन्होंने हमें नजरअंदाज कर दिया और कुछ हटकर कर दूसरी टेबल पर बैठ गये । 

     उनके अंदर कदम रखते ही उनकी माशूका ने अपना फोन साइलेंट मोड पर डाल लिया था, इधर सैफ भाई बड़ी कसमकस में थे और उधर मंडली ने पेस्ट्री का आर्डर कर दिया ।  सैफ भाई बीच-बीच में कनखियों से हमें देखते जाते थे और हमें भी अंदेशा सताने लगा कि कहीं पंछी फुर्र ना हो जाये तो जादू के नम्बर को वापिस रिंग पर कर दिया गया ।  और अबकी बार सैफ भाई ने जैसे ही फोन किया उसकी घंटी हमारे बगल में बैठे आशुतोष के फोन पर बजी , जी हाँ यही थे या कहें थी हमारी सैफ भाई की मंजिल-ए-मकसूद ।  घंटी के तत्काल बाद बेकरी में एक जोरदार ठहाका गूंजा वो तो शुक्र मनाइये कि बेकरी की छत ही न उड़ गई | सारा माज़रा अब सैफ भाई की समझ में आ गया और वो हमारी टेबल की ओर लपके फिर तो पेटिस, पेस्ट्री और कॉफ़ी के जो दौर चले कहने की जरूरत नहीं कि सारा बिल सैफ भाई ने ही चुकाया ।  हमने तो १० दिन भरपूर मजे लिए ही थे , सैफ भाई भी शिकायत करते-करते हँस ही दिये ।  उसके बाद जब तक हम भोपाल में रहे सैफ भाई मंडली के खासुलखास मेम्बरान रहे और फिर कभी सैफ भाई ने महिलामित्र होने की शिकायत नहीं की । 

( यह कहानी १००% सत्यघटना है और पहचान छुपाने के मकसद से पात्रों के नाम परिवर्तित नहीं किये गये हैं, रहा नहीं गया सो कहानी सुना दी , कहा सुना माफ़ करना )