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शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

प्रेम की ताला-चाबी


क्सर यह शिकायत सुनने को मिलती है कि मेरा प्रेम तिरस्कृत किया जाता है, यह उपेक्षा क्यों झेलना पड़ती है? इसे समझने के लिए 'फिशर' की ताला-चाबी परिकल्पना को समझना होगा...

     हर्मन एमिल लुईस फिशर : एक जर्मन रसायनशास्त्री थे , फिशर को 1902 में रसायनशास्त्र के नोबल पुरुस्कार से सम्मानित किया गया था ।  यह परिकल्पना उन्होंने एंजाइम की क्रियाविधि के संबंध में कही है , एंजाइम एक तरह के जैव-रासायनिक पदार्थ होते हैं , जो प्रत्येक शारीरिक क्रिया को पूरा करने के लिए आवश्यक होते हैं।   इस परिकल्पना के अनुसार एक विशेष ताला ( क्रियाधार ) केवल एक विशिष्ट चाबी (एंजाइम ) से ही खोला जा सकता है ।  चाबी का खान्चित भाग ( Notched portion of the key ) एंजाइम के सक्रिय स्थल ( Active site ) के तुल्य है, चूँकि यहाँ पर अभिक्रिया सम्पन्न होती है अर्थात ताला खुलता है , ताला-चाबी मॉडल एंजाइम विशिष्टता ( enzyme specificity ) की व्याख्या करता है | केवल विशिष्ट आकार के अनु की विशिष्ट आमाप के सक्रिय स्थलों में ठीक बैठ सकते है । 

     ताला-चाबी मॉडल इस बात की भी व्याख्या करता है कि अभिक्रिया के अंत में एंजाइम अपरिवर्तित रहते हैं।जिस प्रकार चाबी द्वारा ताला पूर्णत: खुल जाता है , ठीक उसी प्रकार एंजाइम क्रिया द्वारा क्रियाधार अणु टूट जाता है ।  जिस प्रकार ताले के खुलने पर चाबी अपरिवर्तित रहता है और ताले के भौतिक स्वरूप में भी कोई परिवर्तन नहीं होता ।  एंजाइम जैव रासायनिक यौगिक हैं , इनकी उपयोगिता आप इस बात से समझ सकते हैं कि जो अगर यह हमारे शरीर में ना हों तो एक बार का खाया खाना पचाने में हमें 50 साल लगेंगे !

     जैव-रसायन और प्रेम-रसायन में बड़ी साम्यता है क्योंकि जैसे ही सही चाबी ( प्रेम/अभिकर्मक ), सही ताले ( प्रेमास्पद/क्रियाकारक ) से मिलती है गुत्थी सुलझ जाती है दोनों अपने -अपने गुण छोड़कर एक नया ही गुण धारण कर लेते हैं जो सुखद होता है , उपयोगी होता है और अचरज यह भी है कि इसमें निज-गुण का त्याग करते हुए भी गुण ज्यों के त्यों बने रहते हैं, इसे आप इस चित्र से समझ सकते हैं : 


फिशर की ताला-चाबी परिकल्पना , प्रेम के संबंध में 

" रहिमन प्रीति सराहिए, मिले होत रँग दून ।
ज्‍यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून ।। "
     प्रेमका वास्तविक वर्णन हो नहीँ सकता। प्रेम जीवनको प्रेममय बना देता है। प्रेम गूँगेका गुड़ है।प्रेमका आनंद अवर्णनीय होता है।रोमांच,अश्रुपात,प्रकम्प आदि तो उसके बाह्य लक्षण हैँ,भीतरके रस प्रवाहको कोई कहे भी तो कैसे? वह धारा तो उमड़ी हुई आती है और हृदयको आप्लावित कर डालती है।

     तो अगर आपके प्रेम को निरादृत किया गया है, तब निराश न होइए क्योंकि सम्भवत: यह अभी अपने सही स्थान तक पहुँचा ही नहीं है  इसे सम्हालकर , संजोकर रखिये यह अमूल्य निधि है इसे प्रकृति ने आपको उपहारस्वरूप दिया है , भौतिक जगत में अगर इसका कोई पात्र नहीं तो भी इसमें निराश न होइये क्योंकि फिर यह उसे ही अर्पित हो जाएगा जिसने इसका सृजन किया है ; क्योंकि प्रेमी और प्रेमास्पद का रिश्ता कुछ ऐंसा होता है  : 

"आवहु मेरे नयन में पलक बन्द करि लेउँ  
ना मैं देखौं और कौं ना तोहि देखन देउँ    "

अब अपने अमित को आज्ञा दीजिये, मेरे प्रणाम स्वीकार करें । 


गुरुवार, 20 नवंबर 2014

समझो मुझ पनिहारिन की पीर

( कविता ) 


‘‘लिखो क्योंकि तुम अपने आपको किसी विचार या मत से मुक्त करने की आवश्यकता महसूस करते हो।’’
             ( टी. एस. ईलियट )

तो थोड़ा-बहुत हम भी लिख लेते हैं, लिखके यहाँ या अपने ब्लॉग पर छाप भी देते हैं, फिर भी पत्र-पत्रिकाओं में छपने की बात ही कुछ और होती है। अब जैसे इस कविता को ही देख लीजिये जो मई या जून 2008 में भोपाल से प्रकाशित साप्ताहिक 'कृषक जगत' की 'चित्र देखो कविता लिखो' प्रतियोगिता में पुरुस्कृत हुई थी। अब चित्र तो हमारे पास है नहीं आप कविता पढ़ के ही चित्र का अनुमान लगा लीजिये !

खोजबीन में कुछ और भी हाथ लगा है, लेकिन वो फिर कभी.........






शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

झाँकी हिंदुस्तान की : नरसी की हुण्डी


भारत दर्शन : नरसी की हुण्डी   

|| झाँकी हिंदुस्तान की :- इस श्रंखला की पाँचवी पाती ||

इससे पूर्ववर्ती पाती के लियें देखें : झाँकी हिंदुस्तान की - कैसे हो द्वारकाधीश


गतांक से आगे :- 
                 
             इस श्रंखला की यह पाँचवी चिठिया प्रस्तुत करने में गैर मामूली देर हो गई जिसके लिए मैं शर्मिंदा हूँ , आपने इस बीच 'एक:'  ब्लॉग पर प्रकाशित अन्य आलेख पढकर मेरा जो उत्साहवर्धन किया है, उसके लिए मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ । हम अपने सफर को शुरू करें उसके पहले आज के इस स्थान से जुड़ी एक छोटी सी कहानी आप को सुनाना चाहता हूँ :

     गुजरात में एक बड़े मूर्धन्य कवि-संत हुए हैं ' नरसिंह मेहता ' ( नरसी ), हिन्दी में जो स्थान सूरदास जी का है, गुजराती के भक्ति-काव्य में वही स्थान इन्हें प्राप्त है| इनके जीवन से जुड़ी एक घटना है एक बार कुछ यात्री जूनागढ़ आये। उन्हें द्वारिका जाना था। पास में जो रकम थी, वह वे साथ रखना नहीं चाहते थे, क्योंकि उस समय जूनागढ़ से द्वारिका का रास्ता बीहड़ था और चोर-डाकुओं का डर था। वे किसी सेठ के यहां अपनी रकम रखकर द्वारिका के लिए उसकी हुंडी ले जाना चाहते थे। उन्होंने किसी नागर भाई से ऐसे किसी सेठ का नाम पूछा। उस आदमी ने मज़ाक में नरसी का नाम और घर बता दिया। वे भोले यात्री नरसी के पास पहुंचे और उनसे हुंडी के लिए प्रार्थना करने लगे। नरसी ने उन्हें बहुत समझाया कि उनके पास कुछ भी नहीं है, परन्तु वे माने ही नहीं। समझे कि मेहताजी टालना चाहते हैं। आखिर नरसी को लाचार होना पड़ा। पर वह चिट्ठी लिखते तो किसके नाम लिखते? द्वारिका में श्रीकृष्ण को छोड़कर उनका और कौन बैठा था! सो उन्होंने उन्हीं के नाम (शामला गिरधारी ) हुंडी लिख दी। यात्री बड़ी श्रद्धा से हुंडी लेकर चले गये और इधर नरसी चंग बजा-बजाकर 'मारी हुंडी सिकारी महाराज रे, शामला गिरिधारी।' गाने लगे। यात्री द्वारिका पहुंचकर सेठ शामला गिरधारी को ढूंढते-ढूंढ़ते थक गये, पर उन्हें इस नाम का व्यक्ति न मिला। बेचारे निराश हो गये। इतने में उन्हें शामला सेठ मिल गये। कहते हैं कि स्वयं द्वारिकाधीश ने ही शामला बनकर नरसी की बात रख ली थी। ऐंसे भक्तों और उनके भगवान की जय हो ।  

     अब हम बेट-द्वारका जाने वाले रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे, बस हमें ओखा पोर्ट तक ले जाने वाली थी  । हम अभी-अभी नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करके ही आये थे , मीठापुर के आस-पास बस की खिड़की से आने वाली ठंडी हवा से कुछ-कुछ आँखे मुंदी ही थी कि अचानक एक तेज बदबू से सामना हुआ , जिज्ञासावश हमने उस दुर्गन्ध के उद्गम का पता लगाने के लिए बाहर झाँका तो पाया कि सड़क के दोनों तरफ मत्स्योद्योग चलता हैं जहां बड़ी भारी तादाद में मछलियाँ बांस के बने रैकों पर धूप में सुखाई जाती हैं ।  हमारे सभी सहयात्री अपनी नाकों पर रुमाल रखे हुए थे , यही सिलसिला कुछ किलोमीटर तक चलता रहा और वह अप्रिय गंध बराबर आती रही । अब हम ओखा पोर्ट पहुँच गए , हमारी बसें वहां पार्किंग में खड़ी हो गई, पोर्ट के यात्री रिसेप्शन में ओखा पोर्ट ट्रस्ट की कैंटीन में हमने चाय पी और और बंदरगाह पर पहुंचे । अब हमारे सामने सिंधु (अरब) सागर अपने पूरे ठाठ के साथ मौजूद था । यहाँ से बेट-द्वारका जाने के लिए मोटरबोट से एक छोटी सी लगभग पाँच कि.मी. की समुद्री यात्रा करनी पड़ती है ।  

     यहाँ पर सभी मोटरबोट लकड़ी की ही एक बड़ी नाव जैसी थीं, जो मोटर से चलती थीं । तभी समुद्र में हमें इस तरफ आती हुई सफेद सी मोटर लांच दिखी हमने निश्चय कर लिया कि अगर यह बेट-द्वारका जाती होगी तो इसी से चलेंगे, 8-10 मिनिट में वो किनारे आकर लगी तो हमने देखा कि वह गुजरात मैरीन बोर्ड की मोटरलांच है जिसका नाम "गोमती" है , यह भी पता चला कि यह वहीं आने-जाने के लिए है । नावों में तो पटियों पर ही बैठकर जाना होता, लेकिन इसमें सीटें थीं । किराया दोनों का एक जैसा ही था रु. दस , वहीं पर टिकिट लेकर हम सवार हो गये ।    

                                 

     जब निर्धारित संख्या में यात्री आ गये तो  हमारा छोटा सा समुद्री सफर शुरू हुआ, सागर का विस्तार देखते हुए हम अपने गंतव्य को जा रहे थे, और दिमाग में गूँज रही थी शीन काफ़ निज़ाम की नज्म -

 समुन्दर
तुम अज़ल से गुनगुनाते जा रहे हो
मैं अज़ल से सुन रहा हूँ
एक ही नग्मा
एक सी ही बहार
लफ्ज़ भी वैसे के वैसे 

     यह भी मालूम हुआ कि इसी समुद्री रास्ते से पाकिस्तान का कराची बंदरगाह लगभग दो घंटे की दूरी पर है , एक तरह से हम भारत की समुद्री सरहद पर थे, वैसे अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अनुसार किसी देश की समुद्री सीमा तट से 12 समुद्री मील ( लगभग 22. 22 कि.मी.) तक होती है । कहा जाता है कि बेट-द्वारका ही मूल द्वारका है जिसका बहुत सारा हिस्सा जलमग्न हो चुका है । हमारी लांच इस किनारे आकर लगी यानि हम बेट द्वारका पहुँच गए, अब यहाँ से हमें लगभग 10 मिनिट का पैदल रास्ता तय करके पहुँचना था "श्री द्वारकाधीश मन्दिर" इससे आगे की यात्रा अब हम अपनी अगली पाती में करेंगे। 

     चलते-चलते आपको बतातें चलें कि अरबसागर का यह भौगोलिक क्षेत्र ( आलेख में वर्णित ) कच्छ की खाड़ी कहलाता है  और बेट द्वारका को बेट शंखोधारा और रमणद्वीप के नाम से भी जाना जाता है । एक बार आपको फिर याद दिला दें कि अपने लेखन के विषय में मुझे आपके अमूल्य सुझावों की बहुत जरूरत है , उम्मीद है आप मुझे इनसे नवाजेंगे । अब अपने अमित को आज्ञा दीजिये, मेरे प्रणाम स्वीकार करें । 



  

सोमवार, 3 नवंबर 2014

सम्पूर्ण व्यक्तित्व का पोषण - 3


व्यक्तित्व मात्र बाह्य उपस्थिति नहीं है। इसमें संपूर्ण अस्तित्व जिसमें जीवन के भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक भाग सम्मिलित हैं। एक व्यक्ति को सच्चे आत्म या प्रकृति, शुद्ध चेतना या आत्मा के रूप में माना जाता है। आत्मा, जीवन की दिव्य आभा है, तैत्तिरीयोपनिषद के अनुसार यह पांच आवरणों के साथ मानव शरीर में रहती है। इन आवरणों को कोश कहा जाता है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय पांच कोश हैं। 
चित्र: पंचकोश 

हमने अभी तक इनमें से तीन के बारे में जाना अब हम विज्ञानमय कोश और आत्मा के सबसे निकट के आनन्दमय कोश के बारे में चर्चा करेंगे। हम जानते हैं कि अन्न और प्राणमयकोश का पूर्ण संबंध और मनोमय कोश का आंशिक संबंध हमारी देह से है , किन्तु विज्ञानमय कोश इससे पूर्णत: मुक्त है और जब पहले के तीन कोश सुविकसित हो जाते हैं तब विज्ञानमय कोश का प्रभाव क्षेत्र प्रारम्भ होता है , आइये जानते हैं कैसा है यह कोश :

४. विज्ञानमय कोश  (The Intellectual sheath )
 सुबुद्धि ही मानवीय सदगुणों के विकास को उत्प्रेरित करती है , यह सुबुद्धि ही विज्ञान है :
मंत्र :  तस्माद्वा एतस्मान्मनोमयात् । अन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः । तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधताम् । अन्वयं पुरुषविधः । तस्य श्रद्धैव शिरः । ऋतं दक्षिणः पक्षः । सत्यमुत्तरः पक्षः । योग आत्मा । महः पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको भवति ॥ तै. २.४.२॥
अर्थ : निश्चय ही पहले बताये हुए मनोमय आत्मा से भिन्न किन्तु उसके अंदर रहने वाला विज्ञानमय आत्मा है, जो पुरुष की आकृति का है  ( हम उसका स्वरूप समझ सकें इसलिए सरलता से समझाने की दृष्टि से इसकी तुलना प्राणी के रूप में की गई है ) श्रद्धा इसका सिर है, सदाचार इसका दायाँ हाथ है, सत्य भाषण इसका बाँया हाथ है, योग ( ध्यान द्वारा परमात्मा में एकाग्रता ) इसका मध्य (धड़ ) भाग है और परमात्मा ही इसकी पूँछ या आधार भाग है , आगामी श्लोक भी इसी के संबंध में है । 

अब आगे इस की महिमा बताते हैं :   
मंत्र : विज्ञानं यज्ञं तनुते । कर्माणि तनुतेऽपि च । विज्ञानं देवाः सर्वे । ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते । विज्ञानं ब्रह्म चेद्वेद । तस्माच्चेन्न प्रमाद्यति । शरीरे पाप्मनो हित्वा । सर्वान्कामान्समश्नुत इति । तस्यैष एव शारीर आत्मा । यः पूर्वस्य ॥ तै. २.५.१॥
अर्थ : विज्ञान,  यज्ञों ( अच्छे कार्यों  ) का विस्तार करता है और कर्मों का भी विस्तार करता है, यह सब इन्द्रियरूपी देवता सबसे श्रेष्ठ ब्रह्म के रूप में विज्ञान की ही सेवा करते हैं | यदि कोई इस बात को जानता है और बिना आलस इस विज्ञानमय ब्रह्म का चिंतन-मनन करता है तो शरीर से उत्पन्न पापों ( अभिमान ) को शरीर में ही त्याग कर समस्त फलों को प्राप्त करता है , वही पूर्ववर्ती परमात्मा यहाँ भी है जो अन्नरसमय स्थूलशरीरधारी कोश , प्राणमयकोश और मनोमयकोश में विद्यमान ( समान स्वरूपवान ) है | 

व्यक्तित्व से संबंध : मनज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से बाहरी उद्दीपनों को प्राप्त करता है और अनुक्रियाओं को  कर्मेन्द्रियां को प्रेषित  करता है। यद्यपि पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त उद्दीपन अलग और एक दूसरे  से भिन्न होते हैं किन्तु उनका एकीकृत अनुभव मन के द्वारा लाया जाता है। बुद्धि,  विभेदीकरण एवं विवेकीकरण की प्रक्रिया है, जो  प्राप्त उद्दीपनों  की जाँच करके  निर्णय लेती  है। यह मन को भी उन अनुक्रियाओं  के बारे में  सूचित करती है, जिन्हें  क्रियान्वित किया जाना है। स्मृति के आधार पर मन, सुखद या दुःखद छाप को बुद्धि से जोड़ता है। बुद्धि अपनी चिन्तन की क्षमता के साथ एक तर्कसंगत निर्णय लेती है जो मन को पसन्द नहीं भी हो सकता है, लेकिन अंततः व्यक्ति के  लिए लाभप्रद होता  है। मन सभी यादों  और ज्ञान का भंडार-गृह है। अनुभव का यह भण्डार-गृह, व्यक्ति के कार्यां का मार्गदर्शक कारक है। मन को संवेगों के केन्द्रस्थल के  रूप में वर्णित किया जा सकता है और बुद्धि उन क्षेत्रों  की जाचं करती है जिसमें वे कार्य करते हैं । मन की पहुँच केवल  ज्ञात जगत तक है लेकिन  बुद्धि अज्ञात स्थानों में जाकर उसकी जाँच कर सकती है, मनन कर सकती है और नई खोजों को पूरी  तरह समझ सकती है।

प्रत्येक कोश अपने पूर्ववर्ती कोश को नियंत्रित करता है और सभी का परस्पर समानुपातिक संबंध है

५. आनन्दमय कोश (The Blissful Sheath)
हम सभी आनन्द से ही उत्पन्न हुए हैं, इस कारण आनन्द को प्रेम करते हैं, उसे खोजते हैं लेकिन न जानने के कारण प्राप्त नहीं कर पाते :
मंत्र : तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयात् । अन्योऽन्तर आत्माऽऽनन्दमयः । तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधताम्। अन्वयं पुरुषविधः । तस्य प्रियमेव शिरः । मोदो दक्षिणः पक्षः । प्रमोद उत्तरः पक्षः । आनन्द आत्मा । ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको भवति ॥ तै. २.५.२॥
अर्थ : निश्चय ही पहले बताये हुए विज्ञानमय आत्मा से भिन्न किन्तु उसके अंदर रहने वाला आनन्दमय आत्मा है, जो पुरुष की आकृति का है । प्रियता ही इसका सिर है,  मोद इसका दायाँ हाथ है, प्रमोद इसका बाँया हाथ है, आनन्द  इसका मध्य (धड़ ) भाग है और ब्रह्म ही इसकी पूँछ या आधार भाग है , आगामी श्लोक भी इसी के संबंध में है । 

व्यक्तित्व से संबंध :  यह पाँचों कोशों में अंतरतम है और इसमें मनोकामनाएं होती हैं। वे उसी तरह अवचेतन में स्थित होती हैं, जिस तरह से गहरी नींद की स्थिति में  होते हुए भी हमारा अस्तित्व रहता है। हम जागृत और स्वप्न किसी भी स्थिति में हों  एक बार वहाँ पहुँच कर उस जाग्रत और स्वप्न की स्थिति के  उत्पातों के अनुभवों  के लोप के  कारण हम सब अपेक्षाकृत एक ही अबाधित शांति और आनंद का अनुभव करते हैं, इसलिए यह आनन्दमय माना जाता है । आनन्दमय कोश, विज्ञानमय कोश का नियन्त्रण करता है क्योंकि बुद्धि, मनो-अभिलाषाओं के नियन्त्रण और देखरेख में कार्य करती है। जब अन्य सभी कोश अच्छी तरह से विकसित हो जाते हैं तब हम आन्तरिक और बाह्य जगत के बीच सद्भाव का अनुभव करते हैं । यह सद्भाव हमें प्रसन्नता और आनन्द की अनुभूति देता है। पाँचों कोश एक व्यक्ति द्वार पहने  कपड़ों  की पर्तों  की तरह हैं  जो पूरी तरह से पहनने वाले से भिन्न हैं वैसे ही आत्मा पाँचों  बाहरी पर्तों से  भिन्न और अलग है।

इन कोशों का नियमित विकास अभ्यास द्वारा किया जा सकता है  :

कोशों का विकास

व्यक्तित्व का विकास अन्नमय कोश से  शुद्ध चेतना की ओर धीरे  इसके आवरण रूपी कोशों को हटाकर होता है। खाने  की नियमित आदतों,  सही प्रकार का भोजन , व्यायाम और खेल-कूद, टहलना, घूमना  और योगासन  से  अन्नमयकोश के  विकास में  सुविधा होती है। प्राणायाम और सांस लेने के अभ्यास से प्राणमय कोश की गुणवत्ता में  सुधार होता है। मनोमयकोश के विकास के लिए अच्छे साहित्य, कविता, उपन्यास, निबंध और लेख का अध्ययन उपयोगी होता है। सभी गतिविधियाँ जो किसी की बुद्धि को चुनौती दें  विज्ञानमय कोश का विकास करती हैं । इन गतिविधियों में बहस करना, समस्या सुलझाना , अध्ययन की तकनीक, छोटे अनुसन्धान , परियोजनाओं, मूल्यांकन  और पुस्तकों  की सराहना व प्रख्यात व्यक्तियों के  साक्षात्कार शामिल हैं। यह सब गतिविधियाँ आपके अपने लघुरूप से परे जाने और आपका अपने साथी प्राणियों, अपने समुदाय-समाज के सदस्यो अपने देश और पूरे विश्व के साथ तादातम्य स्थापित करने का अवसर देती हैं,  यह आनन्दमय कोश के विकास को सुविधापूर्ण बनाता है। यहाँ तक कि अपने चिन्तन में  आप अपनी चेतना का विस्तार करने के लिए पृथ्वी, सूर्य, तारे,   आकाशगंगाओं और ब्रह्माण्ड तक पहुँच सकते हैं। इस तरह हम धीरे-धीरे वैयक्तिक आत्म या वैयक्तिक चेतना और सार्वभौमिक आत्म या सार्वभौमिक चेतना के बीच संबंध बनाते हैं।


इस पाती के साथ ही पिछले दो लेखों से चली आ रही इस चर्चा का समापन करता हूँ । यह आलेख इसी श्रंखला के पहले के दो आलेखों की अपेक्षा कुछ बड़ा हो गया है,  विश्वास है कि मनोविज्ञान के सन्दर्भ में यह सामग्री आपको रुचिकर प्रतीत हुई होगी  हमेशा की तरह मुझे आपके अमूल्य सुझावों की बहुत जरूरत है , उम्मीद है आप मुझे इनसे नवाजेंगे । अब अपने  अमित को आज्ञा दीजिये, मैं आपके हृदय में विराजमान उस परमसत्ता को सादर प्रणाम करता हूँ कृपया स्वीकार करें ......


शनिवार, 1 नवंबर 2014

सम्पूर्ण व्यक्तित्व का पोषण - 2

पिछला भाग :: सम्पूर्ण व्यक्तित्व का पोषण - 1

प्रत्येक व्यक्ति एक प्रभावशाली ‘‘व्यक्तित्व’’ की ओर आकर्षित होता है। एक सकारात्मक और प्रभावी व्यक्ति होने के नाते वह किसी भी व्यक्ति में होने वाले  सर्वश्रेष्ठ गुणों वाला माना जाता है। इसलिये व्यक्तित्व और उसका विकास मनोविज्ञान के लिये एक प्रमुख विषय बन जाता है। 

चित्र : यह मात्र्योश्का ( Matryoshkaया बाबुश्का Babushkaकही जाने वाली रूसी गुड़िया है , आपने देखा होगा कि लकड़ी की बनी हुई यह गुड़िया क्रमशः बड़े आकार से छोटे आकार में आते हुए, एक के अंदर एक होती हैं , आकार का ध्यान ना रखा जाए तो सभी की छवि एक जैसी ही होती है, पंचकोशीय सिद्धांत को समझने के लिए यह आदर्श उदाहरण है ; क्योंकि इसमें भी सभी कोशों में विद्यमान ब्रह्म का रूप एक समान ही बताया गया है . 

हमने अपने पिछले लेख में तैत्तिरीयोपनिषद में वर्णित व्यक्तित्व के पंचकोशीय सिद्धांत के बाह्यतम कोश “अन्नमयकोश” के संबंध में चर्चा की थी, इससे अंदर वाले कोश को प्राणमयकोश कहा गया है , अब हम इस प्राणमयकोश का परिचय प्राप्त करेंगे :-
२.प्राणमय कोश  ( The Vital Air Sheath )   
भाव यह है कि जितने भी जीवधारी हैं वह सभी प्राणों पर आश्रित होकर ही जी रहे हैं, प्राण अन्तर्यामी परमेश्वर हैं ! 
मंत्र: तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमयात् । अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः । तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधताम् । अन्वयं पुरुषविधः । तस्य प्राण एव शिरः । व्यानो दक्षिणः पक्षः । अपान उत्तरः पक्षः । आकाश आत्मा ।पृथिवी पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको भवति ॥  तै.२.२.२
अर्थ : निश्चय ही इस अन्न-रसमय मनुष्य शरीर से, भिन्न उसके अंदर रहने वाला प्राणमय आत्मा है, उससे यह अन्न-रसमय मनुष्य व्याप्त है; वह प्राणमय आत्मा निश्चय ही पुरुष (मनुष्य) के आकार का ही है । आत्मा की मनुष्यतुल्य आकृति में व्याप्त होने से ही यह मानवाकार है। प्राण ही उस आत्मा का सिर है, व्यान दायाँ पंख है, अपान बायाँ पंख है  आकाश शरीर का मध्य भाग है  पृथ्वी पूँछ और आधार है, उस प्राण की महिमा के विषय में यह आगे कहा जाने वाला श्लोक भी है 

अब उस प्राणमय कोश के महत्व को प्रतिपादित किया गया है :-
मंत्र : प्राणं देवा अनु प्राणन्ति । मनुष्याः पशवश्च ये । प्राणो हि भूतानामायुः । तस्मात् सर्वायुषमुच्यते । सर्वमेव त आयुर्यन्ति । ये प्राणं ब्रह्मोपासते । प्राणो हि भूतानामायुः । तस्मात् सर्वायुषमुच्यत इति । तस्यैष एव शारीर आत्मा । यः पूर्वस्य ॥तै.२.३.१
अर्थ : जो-जो देवता, मनुष्य और पशु आदि प्राणी हैं , प्राण का अनुसरण करके ही जीवित रहते हैं क्योंकि प्राण ही प्राणियों की आयु है, इसलिए यह सर्वायुष (सबकी आयु) कहलाता है ( इस विचार को सुस्थापित करने के लिए इसी कथन की पुनरोक्ति है ) जो कोई प्राण की ब्रह्मरूप में उपासना करते हैं वह निसंदेह समस्त आयु को प्राप्त कर लेते हैं  एक ही परमात्मा अन्नरसमय स्थूलशरीरधारी कोश और प्राणमयकोश में विद्यमान हैं 

व्यक्तित्व से संबंध : पाँच प्राण, जिनका आयुर्वेद में पाँच शारीरिक प्रणालियों के रूप में वर्णन है, इनको प्राणमयकोश कहते हैं। ये गतिविधियाँ जो शरीर का सहयोग करती हैं, वह सांस द्वारा ली गई हवा के परिणामस्वरूप होती हैं। इसलिए इसे प्राणमय कोश का नाम दिया गया है। इस कोश में निम्नलिखित पाँच प्राण सम्मिलित हैं :- 

(क) प्राण (प्रत्यक्षीकरण की क्षमता):  यह पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से  पर्यावरण से  प्राप्त पांच प्रकार के उद्दीपनों को प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित करता है।
(ख) अपान (उत्सर्जन की क्षमता):  शरीर द्वारा उत्सर्जित की जाने वाली सभी चीजें जैसे कफ, पसीना, मूत्र, मल आदि अपान की अभिव्यक्ति है।
 (ग) समान (पाचन की क्षमता):  आमाशय में एकत्रित भोजन का पाचन करता है।
(घ) व्यान (संचरण क्षमता):  यह पचे हुए भोजन के परिणामस्वरूप बने पोषक तत्वों को रक्तके माध्यम से शरीर के विभिन्न अंगों को पहुंचाता है।
(च) उदान (चिन्तन क्षमता):  यह वर्तमान स्तर से अपने विचारों को उन्नत करने की क्षमता है जिससे कि एक नये सिद्धान्त या विचार, स्वशिक्षा की क्षमता की संभावना या सराहने की क्षमता है।

ये पाँचो क्षमताएँ अधिक उम्र  के लोगों में धीरे-धीरे कमजोर होती जाती हैं  प्राणमय कोश ,अन्नमय कोश को नियंत्रित एवं नियमित करता है। जब प्राण ठीक से काम नहीं करते तो भौतिक शरीर प्रभावित होता है। प्राणमय कोश के स्वस्थ विकास के संकेत उत्साह, आवाज को प्रभावी ढंग से प्रयोग करने की क्षमता, शरीर की लोच, दृढ़ता, नेतृत्व, अनुशासन, ईमानदारी और श्रेष्ठता में मिलते हैं ।

३.मनोमय कोश  ( The Mental Sheath ) 
संकल्प-विकल्पात्मक अंत:करण का नाम “मन” है ;जो तद्रूप हो उसे मनोमय कहते हैं अन्न और प्राणों के क्रियाशील होने पर मन का व्यापार शुरू होता है !

 इसके बाद के मन्त्र में मनोमयकोशस्थ पुरुष के स्वरूप का वर्णन है तस्माद्वा एतस्मात्प्राणमयादन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः......“ ( इस प्राणमय पुरुष से भिन्न किन्तु उसके अंदर रहने वाला मनोमय आत्मा है; तै.२.३.२ ) इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि एक ही परमात्मा के भिन्न-भिन्न स्तर स्थूल से सूक्ष्म होते जा रहे हैं  तदोपरांत इस मनोमय कोश की महत्ता कही गई है  :-
मन्त्र : यतो वाचो निवर्तन्ते।अप्राप्य मनसा सह।आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्।न बिभेति कदाचनेति।तस्यैष एव शारीर आत्मा। यः पूर्वस्य । तै.२.४.१ 
अर्थ : जहाँ से वाणीसहित इन्द्रियाँ उसे न पाकर लौट आती हैं उस ब्रह्म के आनन्द को जानने वाला प्राणी कभी भय नहीं करता,  वही पूर्ववर्ती परमात्मा अन्नरसमय स्थूलशरीरधारी कोश , प्राणमयकोश और मनोमयकोश में विद्यमान ( समान स्वरूपवान ) है | 

व्यक्तित्व से संबंध : मन, प्राणमय कोश को नियंत्रित करता है। उदाहरण के लिए जब मन किसी आघात के कारण परेशान होता है तब प्राण के कार्यों  और शरीर को  प्रभावित करता है। मन ज्ञानेन्द्रियों  की व्याख्या करता है। यह अतीत की अच्छी और बुरी यादों को संग्रहीत  करता है। नियमित प्रार्थना, संकल्प लेने और उन्हें पूरा करने  द्वारा मन की शक्ति में  वृद्धि संभव  है। शरीर, प्राण और मन के बीच एक गहरा संबंध है। मन की गति बड़ी विलक्षण है, किन्तु एक संतुलित व्यक्तित्व व जीवन में लगातार तरक्की करने के लिए मन का सामंजस्य किस प्रकार का होना चाहिए यह गीता ( अ.१२, श्लोक १८-१९ ) में भगवान ने अच्छी तरह बखान किया है :- 
 " जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है॥ जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है॥१८-१९॥" 
शेष दो कोशों की चर्चा हम अपने अगले चिठ्ठे में करेंगे अब अपने  अमित को आज्ञा दीजिये, मैं आपके हृदय में विराजमान उस परमसत्ता को सादर प्रणाम करता हूँ कृपया स्वीकार करें ......

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