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सोमवार, 22 सितंबर 2014

ईशावास्योपनिषद् (प्रथम मन्त्र) की विवेचना

(संकलन )



उपनिषत – उप अर्थात समीप, व निषत-निषीदति अर्थात बैठने वाला | जो उस परमतत्व के समीप पहुँचाकर चुपचाप बैठ जाता है वह उपनिषद है | उपनिषत को ब्रह्मविद्या या आध्यात्मविद्या भी कहा जाता है | ब्रह्म के प्रतिपादक वेद के शिरोभाग या अंत में होने के कारण इसे उत्तरमीमांसा या वेदांत भी कहते हैं | वेद के अंगभूत संहिता, ब्राम्हण, आरण्यक में से ही ब्रह्मज्ञान प्रतिपादक भागों को पृथक करके उन्हें उपनिषद नाम दिया गया है | उपनिषदों की संख्या अनेक है, अकेले अथर्ववेद में 52 उपनिषद हैं | 

ईशावास्योपनिषद् को प्रथम उपनिषद माना गया है | यह शुक्लयजुर्वेदसंहिता का चालीसवाँ अध्याय है, मन्त्र भाग का अंश होने से इसका विशेष महत्व है | शुक्लयजुर्वेदसंहिता के प्रथम उनतालीस अध्यायों में कर्मकाण्ड का निरूपण हुआ है | यह उस काण्ड का अंतिम अध्याय है और इसमें भगवत्त्वरूप ज्ञानकाण्ड का निरूपण किया गया है | इसके पहले मन्त्र के प्रथम  भाग में ईशावास्य शब्द आने से इसका नाम ईशावास्योपनिषद् हुआ |

अब हम इसी प्रथम मन्त्र की वैसी जैसी कि मैंने समझी विभिन्न शास्त्रों व विद्वानों के मत से युक्तिसंगत तुलनात्मक विवेचना देखेंगे- 

मन्त्र : ॐ ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। 
तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥1॥ 

भावार्थ - 1 : अखिल ब्रम्हाण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतन स्वरूप जगत है, यह समस्त ईश्वर से व्याप्त है | उस ईश्वर को साथ रखते हुए इसे त्यागपूर्वक भोगते रहो ( इसमें ) आसक्त मत होओ (क्योंकि) धन, भोग्य पदार्थ किसका है ( अर्थात किसी का भी नहीं है )

भावार्थ – 2 : इस ब्रम्हाण्ड में जो कुछ भी यह जगत है यह सब का सब ईश्वर से व्याप्त है | उस ईश्वर के द्वारा जो तुम्हारे लिए त्याग किया गया है अर्थात प्रदान किया गया है, उसी को अनासक्त भाव से भोगो | किसी के भी धन की इच्छा मत करो | 

श्रीआदिशंकराचार्य जी की व्याख्या :

ईशा ईष्ट इतीट तेनेशा’ – जो ईशन ( शासन ) करे उसे ईट कहते हैं, उसका तृतीयान्त रूप ‘ईशा’ है | सबका ईशन करने वाला परमेश्वर परमात्मा है | वही सब जीवों का आत्मा होकर अन्तर्यामीरूप से सबका ईशन करता है | ‘स्वेन’ – अपने, या ( यह सब कुछ मैं ही हूँ ) ऐसा जानकर अपने परमार्थसत्यस्वरूप परमात्मा से यह सम्पूर्ण मिथ्याभूत चराचर ( जगत ) आच्छादन करने योग्य है | एषणाओं से रहित ( त्याग ) होकर यह भावना रखते हुए कि धनादि सब कुछ आत्मा से उत्पन्न हुआ तथा सब कुछ आत्मरूप ही होने के कारण मिथ्यापदार्थविषयक आकांक्षा न कर – ऐसा इसका तात्पर्य है | 

श्रीहरिकृष्णदास गोयन्दका की श्रीमद्भगवतगीता संगत व्याख्या ( क - घ ) एवं  विभिन्न विद्वानों के मत : 

( क ) मनुष्यों के प्रति वेद भगवान का पवित्र आदेश है कि अखिल विश्व ब्रह्मांड में जो कुछ भी यह चराचरात्मक जगत तुम्हारे देखने सुनने में आ रहा है सबका सब सर्वाधार, सर्वनियन्ता, सर्वाधिपति, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वकल्याण गुण स्वरूप परमेश्वर से व्याप्त है, सदा सर्वत्र उन्हीं से परिपूर्ण है : 

· उपरोक्त अर्थांश की संगत तुलना करें : श्रीमद्भगवतगीता ९/४ से : 


मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः ॥

भावार्थ : मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत्‌ जल से बर्फ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं, किंतु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ॥९/४॥ 


- डॉ.राधाकृष्णन की इस श्लोक ( गी. ९/४ ) की व्याख्या : सम्पूर्ण विश्व का अस्तित्व लोकातीत परमेश्वर के कारण है और फिर भी इस संसार के रूप उस परमेश्वर को पूरी तरह न तो अपने अंदर रखते हैं और न उसे अभिव्यक्त करते हैं | उसकी परम वास्तविकता देशकालाधीन वस्तुओं की प्रतीति से बहुत ऊपर है | साथ ही वो इसके लिए श्रीमद्भगवतगीता के श्लोक संख्या ७/१२ का सन्दर्भ देते हैं जिसके अनुसार : 

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥

भावार्थ : और भी जो सत्त्व गुण से उत्पन्न होने वाले भाव हैं और जो रजो गुण से होने वाले भाव हैं, उन सबको तू 'मुझसे ही होने वाले हैं' ऐसा जान, परन्तु वास्तव में उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं॥ ७/१२

( ख ) इसका कोई भी अंश उन (परमेश्वर) से रहित नहीं है
· उपरोक्त अर्थांश की संगत तुलना करें : श्रीमद्भगवतगीता १०/३९ व ४२ से :

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्‌ ॥

भावार्थ : और हे अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मैं ही हूँ, क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो॥१०/३९

संत  नामदेव  कहते हैं  : सबै घट रामु बोलै, राम बिना को बोलै रे |
असथावर जंगम कीट पतंगम घटि-घटि रामु समाना रे ||

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌ ॥

भावार्थ : अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रायोजन है। मैं इस संपूर्ण जगत्‌ को अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ॥१०/४२

- देखिये श्वेताश्व. उप. ६/८ : परास्यशक्ति विर्विधैव श्रूयते  ( भगवान की पराशक्ति अनेक प्रकार की सुनी जाती है )


( ग ) ऐंसा समझकर उन ईश्वर को निरंतर अपने साथ रखते हुए सदा सर्वदा उनका स्मरण करते हुए ही तुम इस जगत में त्याग भाव से केवल कर्तव्य पालन के लिए ही विषयों का यथा विधि उपभोग करो अर्थात यथार्थ विश्वरूप ईश्वर की पूजा के लिए ही कर्मों का आचरण करो | विषयों में मन को मत फंसने दो इसी में तुम्हारा निश्चित कल्याण है | 

· उपरोक्त अर्थांश की संगत तुलना करें : श्रीमद्भगवतगीता २/६४,३/९, व १८/४६ से :

रागद्वेषवियुक्तैस्तुविषयानिन्द्रियैश्चरन्‌।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

भावार्थ : परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥२/६४॥


यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्रलोकोऽयंकर्मबंधनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥

भावार्थ : यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर॥ ३/९ ॥

- देखिये  पा.व्या. ३/३/९० : जिसमें देवताओं का पूजन हो , सभी वर्णों और आश्रमों के लोग जिसमें एकत्रित हों तथा उन्हें अन्न-वस्त्रादि का दाय-प्रदाय किया जावे उसे यज्ञ कहते हैं |

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्‌।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥

भावार्थ : जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत्‌ व्याप्त है (जैसे बर्फ जल से व्याप्त है, वैसे ही संपूर्ण संसार सच्चिदानंदघन परमात्मा से व्याप्त है), उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके (जैसे पतिव्रता स्त्री पति को सर्वस्व समझकर पति का चिंतन करती हुई पति के आज्ञानुसार पति के ही लिए मन, वाणी, शरीर से कर्म करती है, वैसे ही परमेश्वर को ही सर्वस्व समझकर परमेश्वर का चिंतन करते हुए परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार मन, वाणी और शरीर से परमेश्वर के ही लिए स्वाभाविक कर्तव्य कर्म का आचरण करना 'कर्म द्वारा परमेश्वर को पूजना' है) मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है॥१८/४६॥

- देखिये  वाल्मीकि  रामायण  ( बालकाण्ड १/५७  ) : शबर्या पूजित: सम्यग्  ( शबरी ने भली-भांति पूजा की ) और रामचरितमानस ( अरण्यकाण्ड ३५/७ ) : सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे  , शबरी अपने स्वाभाविक कर्म सेवा को करती रही , उन्होंने कोई वेदपाठ नहीं किया एकमात्र भगवान की स्मृति और उनके प्रति समर्पण का उनको यह फल मिला कि स्वयं भगवान उनकी कुटीर पर पधारे और उनकी प्रशंसा की | 


( घ ) वस्तुत: ये भोग्य पदार्थ किसी के भी नहीं हैं | मनुष्य भूल से ही इनमें ममता और आसक्ति कर बैठता है | यह सब परमेश्वर के हैं और उन्हीं के लिए इनका उपयोग होना चाहिए | 

- देखिये कवितावली उत्तरकाण्ड ४२ ( गोस्वामी तुलसीदास ) : 
सुरसाज सो राज-समाजु, समृद्धि बिरंचि, धनाधिप-सो धनु भो।
 पवमानु-सो पावकु-सो, जमु, सोमु-सो, पूषनु -सेा भवभूषनु भो।। 
करि जोग, समीरन साधि , समाधि कै धीर बड़ो , बसहू मनु भो। 
सब जाय, सुुभायँ कहै तुलसी, जो न जानकीजीवनको जनु भो।।

भावार्थ : इंद्र के समान राजसामग्री हो गई, ब्रह्मा के समान ऐश्वर्य हो गया, और कुबेर के समान धन हो गया तथा वायु के समान वेगवान, अग्नि के समान तेजस्वी, यमराज के समान दण्डधारक, चन्द्रमा के समान शीतल और आह्लादकारी, और सूर्य के समान संसार को प्रकाशित करने वाले और संसार के भूषण बन गए हो; वायु को साधकर ( प्राणायाम करते हुए ) योगाभ्यास-समाधि के द्वारा बड़े धीर हो गए हो तो भी तुलसी सच्चे भाव से कहते हैं कि  ' अगर जानकीनाथ के सेवक न बन पाए तो यह सब व्यर्थ है |   

इस प्रकार ईशा.उप. का यह प्रथम मन्त्र ही संसार में भुक्ति से किस प्रकार मुक्ति सम्भव है इसका संदेश देता है, अब अपने  अमित को आज्ञा दीजिये, मैं आपके हृदय में विराजमान उस परमसत्ता को सादर प्रणाम करता हूँ कृपया स्वीकार करें ........... 








सोमवार, 8 सितंबर 2014

श्री श्रीचैतन्य-चरितावली

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरि: ॥३॥
( महाप्रभु चैतन्य कृत शिक्षाष्टक से  )


श्रीराधाकृष्ण व चैतन्य महाप्रभु 


भावार्थ : यदि तुम श्रीकृष्णनामसंकीर्तन करना चाहते हो, तो परम यत्न के साथ उसमें अधिकार प्राप्त करो। यह अधिकार प्राप्त करने हेतु अपने जड़ीय अहंकार को छोड़कर अपनेको तृण से भी दीन, हीन और क्षुद्र समझो। वृक्ष के समान सहनशील बनो। वृक्ष के समान क्षमा गुण अपनाओ, प्रतिहिंसा छोड़कर सबका पालन-पोषण करो। अपने जीवन-निर्वाह के लिए किसीको उद्वेग मत दो। अपने सुख का त्याग करके भी परोपकार करो, सब गुणों के आगार होनेपर भी प्रतिष्ठा पाने की लालसा दूर रखो और जीवमात्र में श्रीकृष्ण को स्थित जानकर आदरपूर्वक  उन्हें यथायोग्य सम्मान दो। इस प्रकार दीनता, दया, मान और प्रतिष्ठावर्जन , इन चारों गुणों से विभूषित होकर श्रीकृष्णनामसंकीर्तन करो।

     'श्री श्रीचैतन्य-चरितावली' हाल ही में इस पुस्तक रूपी रत्न को आद्योपांत पढ़ा और मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इसे पढ़ने का जो सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ यह किसी वरदान से कम नहीं है। इसका पाठन करने के बाद इसके बारे में आपको बताने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। पहले श्रीचैतन्य महाप्रभु , जिनकी कि यह जीवनी है उनका अति सूक्ष्म परिचय दे देना मैं आवश्यक समझता हूँ।

आभास :

     श्रीचैतन्य महाप्रभु का जन्म बंगाल के नवद्वीप (नदिया) नामक स्थान में ई. 1485 में हुआ , इनके बचपन का नाम था निमाई, आप विलक्षण प्रतिभाशाली थे, उस समय नवद्वीप विद्या अध्ययन के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध था , व्याकरण, मीमांसा, काव्य आदि विषय के यहाँ प्रकांड पंडित थे जो अपनी पाठशालाओं में देश भर से आये छात्रों को इन विषयों की शिक्षा दिया करते थे। उस समय नव्य-न्याय का एक मात्र शिक्षा केंद्र नवद्वीप था। समय आने पर आपने भी विद्याध्ययन किया और नवद्वीप में ही अपनी स्वतंत्र पाठशाला स्थापित की , आपकी पढ़ाने की शैली शीघ्र ही प्रसिद्ध हो गई और आप भी निमाई पंडित के नाम से ना सिर्फ नवद्वीप और बंगाल अपितु अन्य-अन्य जगहों पर प्रसिद्ध हो गये।

     तत्कालीन देशकाल को समझ लेना भी उपयुक्त होगा, उस समय तक भारत के अधिकाँश प्रदेशों में विदेशी ( अफ़गान, मुगल,तुर्क आदि ) राज्यसत्ता कायम हो चुकी थी। छोटे-छोटे अनेक राज्य अस्तित्व में थे जिनमें से कुछ तो बादशाहत के मातहत थे और कुछ स्वतंत्र थे। इन राज्यों का आपस में लगातार युद्ध चलता रहता था जिसकी वजह से आमजनता पीड़ित थी। भौतिक त्रासना के बलवती होने से जनमानस का आध्यात्मिक पतन हो चुका था , संक्षेप में कहें तो अंधकार या चेतनाशून्यता का युग था ।

     ऐंसे समय में विद्वान व ज्ञानीजन भी पुस्तकीय विद्या को ही सब कुछ मानकर अपने दम्भ में चूर रहते थे , उनका विचार था कि ज्ञान प्राप्त करके आजीविका अर्जित करना और जीवन को भौतिक सुखसुविधा मय बनाना ही एकमात्र ध्येय है , जब विद्वानों की यह दशा थी तो सामान्य जनों की कौन कहे ? "भक्तिमार्ग" मानने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। स्त्रियाँ, शूद्र,अन्त्यज और निम्न श्रेणी के लोगों को ज्ञान प्राप्त करने या आत्मोन्नति का अनाधिकारी समझा जाता था। ऐंसे कठिन समय में श्रीचैतन्य महाप्रभु का जन्म हुआ । प्रारम्भ में आप भी अपने समकालीन अध्यापकों के समान ही आचरण करते थे , कितुं जगतोद्धार का संकल्प आपके अंतर्मन में सुसुप्त था जो आपकी गया यात्रा के दौरान अंकुरित हुआ । अपने प्रादुर्भाव से श्रीचैतन्य ने धर्म, वर्ण, जाति, लिंग, भाषादि  के भेद-भाव के बिना सभी को एक समान प्रेम-माधुर्य और भगवतभक्ति का उपदेश किया।

पुस्तकपुष्प और लेखक :


श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी व उनकी लिखित श्री श्रीचैतन्य-चरितावली 


     यह ग्रन्थ कागज पर स्याही से मुद्रित जीवनी मात्र ही नहीं है, बल्कि भक्ति और प्रेम के तत्व का साक्षात मूर्तिमान स्वरूप है । इसे पढ़ते हुए ऐंसा लगने लगता है, जैसे कोई आपको बहुत प्यार के साथ इसे सुना कर कानों में रस घोल रहा हो। जगह-जगह विभिन्न शास्त्रों और ग्रन्थों के सन्दर्भ दिए गये हैं। जिनका ना सिर्फ अनुवाद ही साथ में है वरन सरस भावपल्लवन भी किये गए हैं जो बिना कहे ही लेखक के उच्चकोटि के विद्वान् और रस मर्मज्ञ होने की गवाही देते हैं।

     लेखक ने इस ग्रन्थ को लिखने में कमाल की प्रतिभा का परिचय दिया है। संदर्भो के लिए आधे दर्जन से अधिक भाषाओं के पचास से अधिक ग्रन्थों का आश्रय लेने के बाद भी यह पुस्तक एकदम मधुर रसधारावत है जो पढ़ते-पढ़ते ही सीधे मनो-मस्तिष्क में उतरती जाती है। लेखक का हुनर यह नहीं है कि कठिन भाषा और अतिशयोक्तिपूर्ण शब्दालंकार का प्रयोग करके अपनी विद्वत्ता सिद्ध की जाए, ऐंसा करना तो बहुत ही सुगम है क्योंकि इस सबसे अनजान पाठक इतना शब्दाडम्बर देखकर ही लेखक को विद्वान मान लेता है भले ही वह उस पुस्तक से अपने को ना जोड़ पाये, लेकिन श्री श्रीचैतन्य-चरितावली में इतने दुरूह विषय को सामान्य साक्षर भी आत्मसात कर सके यही लक्ष्य नजर आता है, और यही असली लेखकीय प्रतिभा है।

     उक्त ग्रन्थ के लेखक श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी हैं । त्यागी व जीवमात्र के कल्याण के आकांक्षी साहित्यकार बहुधा अपनी लिखी पुस्तकों पर अपना चित्र या परिचय प्रकाशित नहीं होने देते, फिर भी इसी पुस्तक व अन्य संदर्भों से जो कुछ जानकारी ( और आपकी छवि भी ) प्राप्त हुई है वह यह है कि आप न सिर्फ संत थे अपितु आप स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे। आपने स्वतन्त्रता संग्राम में ब्रिटिश राज के विरुद्ध संघर्ष करते हुए जेलयात्रा भी की । इसके बाद आपने गीताप्रेस,गोरखपुर के तत्कालीन व्यवस्थापक श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार के इस आग्रह पर कि इस पुस्तक से हिंदीभाषी भी श्रीचैतन्य महाप्रभु के जीवन व शिक्षाओं से परिचित हो सकेंगे, इस पुस्तक का प्रणयन किया। लेखक के ही शब्दों में :

' जिसे अपने जीवन को सर्वोत्कृष्ट , आनंदमय, सौन्दर्यमय, भावमय तथा प्रेममय बनाना हो, जो प्रभु प्रेम में बिलखना, तड़पना, और छटपटाना चाहते हों , उनसे हमारी प्रार्थना है, वे श्री श्रीचैतन्य-चरितावली का स्वाध्याय करें । '

     चलते-चलते आपको बता दें कि मैंने इस पुस्तक के 19वें पुनर्मुद्रण का पाठन किया है। पुस्तक A4 आकार के लगभग 650+ पृष्ठों में मुद्रित है। कपड़े की जिल्द और लेमीनेटेड जैकेट में है। छपाई व कागज़ की गुणवत्ता उत्तम है और मूल्य है रु. 120 ( रु.. एक सौ बीस मात्र ), प्रकाशक हैं गीताप्रेस,गोरखपुर

     बहुत संभव है कि आपको मेरा यह चिठ्ठा बड़ा अस्त-व्यस्त सा लगा हो मुझे यह कहने में कोई द्विविधा नहीं कि यह लेख कोई समीक्षा नहीं है, यह तो इस पुस्तक को लेकर मेरा अनुभव मात्र है, यह तज़ुर्बा गूंगे के गुड़ के समान है जिसका जायका तो मैंने लिया है, लेकिन इसे शब्दों में कह पाना मेरी क्षमता से बाहर है अगर आप भी इस रस-सरोवर में डुबकियाँ लेना चाहते हैं तो एक बार श्री श्रीचैतन्य-चरितावली अवश्य पढ़ें आप सम्मोहित हुए बिना नहीं रह पाएंगे । तब तक के लिए आज्ञा दीजिये , अमित के प्रणाम स्वीकार करें..... 


सोमवार, 1 सितंबर 2014

'इश्क़ तुम्हें हो जाएगा' 'ब्लॉगसेतु' पर : एक किताब - एक पोर्टल

जी हाँ , आज के शीर्षक से आप को कुछ-कुछ आभास तो हो ही गया होगा कि आज चर्चा का विषय है एक किताब और एक अंतर्जाल स्थल , अपनी बात शुरू करते हैं इश्क़ की किताब से फिर आप और हम चलेंगे ब्लॉग के सेतु पर :

 'इश्क़ तुम्हें हो जाएगा' 

हाथ में आई कोई किताब तब तक दिल में नहीं उतर पाती जब तक कि उससे मोहब्बत न हो जाये, लफ्ज़-दर-लफ्ज़ और नज़्म-दर-नज़्म यह सिलसिला पुख्ता होता जाता है, लेकिन जब इस सिलसिले का नाम ही 'इश्क़ तुम्हें हो जाएगा' हो तो यह पहली ही नज़र में, पहली ही छुअन में आँखों से होकर रगों में समाने लगती है ।  इसमें जरुर कहीं ना कहीं कवियित्री की रसायनशास्त्र की तालीम का हाथ है, जो उन्होंने ऐंसे हैरतअंगेज शब्द-समीकरण सिद्ध कर डाले हैं : 

" तुम पर लिखी नज्मों, 
स्याही से रंगे हुए हैं हाथ मेरे, 
तुझसे इश्क़ का सीधा इल्जाम है मुझ पर, 
एक सजा खत्म हो तो नयी कोई नज्म लिखूं ..............."




कलम भी स्याह है, और उसका अंतरद्रव भी स्याह ही है लेकिन जब यह कागज़ के जिस्म पर उतारा गया है तो हम जैसों को सुर्खरूह कर गया है।  और गवाह हैं हम भी इस मौके के जब कि Anulataजी  की कृति ने काव्य-विलयन ( Solution ) बना डाला है , जिसमें इश्क़, विलेय ( solute ) है और इसकी रवानी, विलायक ( Solvent ) आपने हमें यह संतृप्त (saturated) शर्बत चखाया और भरपेट पीने का मौका दिया इसके लिए तहेदिल से शुक्रगुजार हैं | आपकी चीज आपको ही पेश करता हूँ : 

"ठहरे वक्त में चलती रही कलम
इश्क़ और दर्द की रोशनाई से
स्याह हुए पन्ने आपकी नजर
और एक छोटा सा वादा
कि पढ़ना मुझे तन्हाइयों में
इश्क़ तुम्हें हो जायेगा............................

आइये अब कुछ देर पुल पर भी खड़े हो लेते हैं इस पुल का नाम है : 


वो सभी मित्र जो ब्लॉगलेखक हैं,  या ब्लॉगपाठक हैं उनके लिए मित्र Kewal Ram जी और उनकी टीम ने एक नवप्रयास प्रारम्भ किया है, विशेषत: राष्ट्रभाषा हिन्दी के चिट्ठाकारों के लिए  जिसका नाम है Blogsetu, यह है तो एक ब्लॉग एग्रीगेटर लेकिन कुछ हट कर , इसके लिये वह बधाई के पात्र हैं इसकी कुछ विशेषतायें जो मुझे अच्छी लगीं : 




1. इससे जुड़ना पूर्णत: नि:शुल्क और आसान है , पंजीकरण की प्रक्रिया में मुश्किल से 5 मिनिट का समय लगता है। 

2. अपने और साथी ब्लॉगलेखकों के ब्लॉग तक पहुंचना बहुत आसान है , नवीन और पुरानी पोस्ट एक ही जगह पर समयवार ( Chronologically ) उपलब्ध हैं जिनसे आप सुगमता से उनको पढ़ सकते हैं।  

3. प्रतिदिन जुड़ने वाले ब्लॉग की प्रविष्टि रोज अपडेट होती है,  ब्लॉगसेतु से जब कोई ब्लॉग जुड़ जाता है तो उस ब्लॉग पर जब भी कोई पोस्ट ब्लॉगर द्वारा प्रकाशित की जाती है तो वह एक मिनट से भी कम समय में स्वतः ही ब्लॉगसेतु पर अपडेट हो जाती हैंऔर प्रत्येक रविवार को इससे जुड़े हुए ब्लॉग की रैंक अपडेट होती है।  

4. एक बार जुड़ जाने पर आप अपने ब्लॉग के सभी आंकड़े आप यहीं पा सकते हैं जो निश्चय ही ब्लॉगिंग को एक सुखद अनुभव में बदल देते हैं।  

और 5 ( पर अंतिम नहीं ) . साथी ब्लॉगलेखकों का जन्मदिवस प्रदर्शित होता है जो इसे आत्मीयता का एक मंच बना देता है ........

आप भी ब्लॉगसेतु से जरुर जुड़ें , कोई समस्या होने पर नि:संकोच पार केवलराम जी से सम्पर्क कर सकते हैं । 

चलते-चलते कुछ पंक्तियाँ अनुलता जी की किताब से 
जब ज़िंदगी में एहसासे - सुकूँ था
तब लिखी गयी कोई कविता
जब कभी कभी दिल परेशाँ हुआ
तब भी लिख डाली कोई एक सीली - सी नज्म 

तब तक के लिए आज्ञा दीजिये , अमित के प्रणाम स्वीकार करें.....