तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरि: ॥३॥
( महाप्रभु चैतन्य कृत शिक्षाष्टक से )
श्रीराधाकृष्ण व चैतन्य महाप्रभु
भावार्थ : यदि तुम श्रीकृष्णनामसंकीर्तन करना चाहते हो, तो परम यत्न के साथ उसमें अधिकार प्राप्त करो। यह अधिकार प्राप्त करने हेतु अपने जड़ीय अहंकार को छोड़कर अपनेको तृण से भी दीन, हीन और क्षुद्र समझो। वृक्ष के समान सहनशील बनो। वृक्ष के समान क्षमा गुण अपनाओ, प्रतिहिंसा छोड़कर सबका पालन-पोषण करो। अपने जीवन-निर्वाह के लिए किसीको उद्वेग मत दो। अपने सुख का त्याग करके भी परोपकार करो, सब गुणों के आगार होनेपर भी प्रतिष्ठा पाने की लालसा दूर रखो और जीवमात्र में श्रीकृष्ण को स्थित जानकर आदरपूर्वक उन्हें यथायोग्य सम्मान दो। इस प्रकार दीनता, दया, मान और प्रतिष्ठावर्जन , इन चारों गुणों से विभूषित होकर श्रीकृष्णनामसंकीर्तन करो।
'श्री श्रीचैतन्य-चरितावली' हाल ही में इस पुस्तक रूपी रत्न को आद्योपांत पढ़ा और मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इसे पढ़ने का जो सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ यह किसी वरदान से कम नहीं है। इसका पाठन करने के बाद इसके बारे में आपको बताने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। पहले श्रीचैतन्य महाप्रभु , जिनकी कि यह जीवनी है उनका अति सूक्ष्म परिचय दे देना मैं आवश्यक समझता हूँ।
आभास :
श्रीचैतन्य महाप्रभु का जन्म बंगाल के नवद्वीप (नदिया) नामक स्थान में ई. 1485 में हुआ , इनके बचपन का नाम था निमाई, आप विलक्षण प्रतिभाशाली थे, उस समय नवद्वीप विद्या अध्ययन के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध था , व्याकरण, मीमांसा, काव्य आदि विषय के यहाँ प्रकांड पंडित थे जो अपनी पाठशालाओं में देश भर से आये छात्रों को इन विषयों की शिक्षा दिया करते थे। उस समय नव्य-न्याय का एक मात्र शिक्षा केंद्र नवद्वीप था। समय आने पर आपने भी विद्याध्ययन किया और नवद्वीप में ही अपनी स्वतंत्र पाठशाला स्थापित की , आपकी पढ़ाने की शैली शीघ्र ही प्रसिद्ध हो गई और आप भी निमाई पंडित के नाम से ना सिर्फ नवद्वीप और बंगाल अपितु अन्य-अन्य जगहों पर प्रसिद्ध हो गये।
तत्कालीन देशकाल को समझ लेना भी उपयुक्त होगा, उस समय तक भारत के अधिकाँश प्रदेशों में विदेशी ( अफ़गान, मुगल,तुर्क आदि ) राज्यसत्ता कायम हो चुकी थी। छोटे-छोटे अनेक राज्य अस्तित्व में थे जिनमें से कुछ तो बादशाहत के मातहत थे और कुछ स्वतंत्र थे। इन राज्यों का आपस में लगातार युद्ध चलता रहता था जिसकी वजह से आमजनता पीड़ित थी। भौतिक त्रासना के बलवती होने से जनमानस का आध्यात्मिक पतन हो चुका था , संक्षेप में कहें तो अंधकार या चेतनाशून्यता का युग था ।
ऐंसे समय में विद्वान व ज्ञानीजन भी पुस्तकीय विद्या को ही सब कुछ मानकर अपने दम्भ में चूर रहते थे , उनका विचार था कि ज्ञान प्राप्त करके आजीविका अर्जित करना और जीवन को भौतिक सुखसुविधा मय बनाना ही एकमात्र ध्येय है , जब विद्वानों की यह दशा थी तो सामान्य जनों की कौन कहे ? "भक्तिमार्ग" मानने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। स्त्रियाँ, शूद्र,अन्त्यज और निम्न श्रेणी के लोगों को ज्ञान प्राप्त करने या आत्मोन्नति का अनाधिकारी समझा जाता था। ऐंसे कठिन समय में श्रीचैतन्य महाप्रभु का जन्म हुआ । प्रारम्भ में आप भी अपने समकालीन अध्यापकों के समान ही आचरण करते थे , कितुं जगतोद्धार का संकल्प आपके अंतर्मन में सुसुप्त था जो आपकी गया यात्रा के दौरान अंकुरित हुआ । अपने प्रादुर्भाव से श्रीचैतन्य ने धर्म, वर्ण, जाति, लिंग, भाषादि के भेद-भाव के बिना सभी को एक समान प्रेम-माधुर्य और भगवतभक्ति का उपदेश किया।
पुस्तकपुष्प और लेखक :
श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी व उनकी लिखित श्री श्रीचैतन्य-चरितावली
यह ग्रन्थ कागज पर स्याही से मुद्रित जीवनी मात्र ही नहीं है, बल्कि भक्ति और प्रेम के तत्व का साक्षात मूर्तिमान स्वरूप है । इसे पढ़ते हुए ऐंसा लगने लगता है, जैसे कोई आपको बहुत प्यार के साथ इसे सुना कर कानों में रस घोल रहा हो। जगह-जगह विभिन्न शास्त्रों और ग्रन्थों के सन्दर्भ दिए गये हैं। जिनका ना सिर्फ अनुवाद ही साथ में है वरन सरस भावपल्लवन भी किये गए हैं जो बिना कहे ही लेखक के उच्चकोटि के विद्वान् और रस मर्मज्ञ होने की गवाही देते हैं।
लेखक ने इस ग्रन्थ को लिखने में कमाल की प्रतिभा का परिचय दिया है। संदर्भो के लिए आधे दर्जन से अधिक भाषाओं के पचास से अधिक ग्रन्थों का आश्रय लेने के बाद भी यह पुस्तक एकदम मधुर रसधारावत है जो पढ़ते-पढ़ते ही सीधे मनो-मस्तिष्क में उतरती जाती है। लेखक का हुनर यह नहीं है कि कठिन भाषा और अतिशयोक्तिपूर्ण शब्दालंकार का प्रयोग करके अपनी विद्वत्ता सिद्ध की जाए, ऐंसा करना तो बहुत ही सुगम है क्योंकि इस सबसे अनजान पाठक इतना शब्दाडम्बर देखकर ही लेखक को विद्वान मान लेता है भले ही वह उस पुस्तक से अपने को ना जोड़ पाये, लेकिन श्री श्रीचैतन्य-चरितावली में इतने दुरूह विषय को सामान्य साक्षर भी आत्मसात कर सके यही लक्ष्य नजर आता है, और यही असली लेखकीय प्रतिभा है।
उक्त ग्रन्थ के लेखक श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी हैं । त्यागी व जीवमात्र के कल्याण के आकांक्षी साहित्यकार बहुधा अपनी लिखी पुस्तकों पर अपना चित्र या परिचय प्रकाशित नहीं होने देते, फिर भी इसी पुस्तक व अन्य संदर्भों से जो कुछ जानकारी ( और आपकी छवि भी ) प्राप्त हुई है वह यह है कि आप न सिर्फ संत थे अपितु आप स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे। आपने स्वतन्त्रता संग्राम में ब्रिटिश राज के विरुद्ध संघर्ष करते हुए जेलयात्रा भी की । इसके बाद आपने गीताप्रेस,गोरखपुर के तत्कालीन व्यवस्थापक श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार के इस आग्रह पर कि इस पुस्तक से हिंदीभाषी भी श्रीचैतन्य महाप्रभु के जीवन व शिक्षाओं से परिचित हो सकेंगे, इस पुस्तक का प्रणयन किया। लेखक के ही शब्दों में :
' जिसे अपने जीवन को सर्वोत्कृष्ट , आनंदमय, सौन्दर्यमय, भावमय तथा प्रेममय बनाना हो, जो प्रभु प्रेम में बिलखना, तड़पना, और छटपटाना चाहते हों , उनसे हमारी प्रार्थना है, वे श्री श्रीचैतन्य-चरितावली का स्वाध्याय करें । '
चलते-चलते आपको बता दें कि मैंने इस पुस्तक के 19वें पुनर्मुद्रण का पाठन किया है। पुस्तक A4 आकार के लगभग 650+ पृष्ठों में मुद्रित है। कपड़े की जिल्द और लेमीनेटेड जैकेट में है। छपाई व कागज़ की गुणवत्ता उत्तम है और मूल्य है रु. 120 ( रु.. एक सौ बीस मात्र ), प्रकाशक हैं गीताप्रेस,गोरखपुर ।
बहुत संभव है कि आपको मेरा यह चिठ्ठा बड़ा अस्त-व्यस्त सा लगा हो मुझे यह कहने में कोई द्विविधा नहीं कि यह लेख कोई समीक्षा नहीं है, यह तो इस पुस्तक को लेकर मेरा अनुभव मात्र है, यह तज़ुर्बा गूंगे के गुड़ के समान है जिसका जायका तो मैंने लिया है, लेकिन इसे शब्दों में कह पाना मेरी क्षमता से बाहर है अगर आप भी इस रस-सरोवर में डुबकियाँ लेना चाहते हैं तो एक बार श्री श्रीचैतन्य-चरितावली अवश्य पढ़ें आप सम्मोहित हुए बिना नहीं रह पाएंगे । तब तक के लिए आज्ञा दीजिये , अमित के प्रणाम स्वीकार करें.....
सुन्दर .. धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआपका स्वागत है !!
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