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"सार्वजनिक जीवन में पाखंड का बढ़ना भी खतरनाक है। चुनाव किसी व्यक्ति को भ्रांतिपूर्ण अवधारणाओं को आजमाने की अनुमति नहीं देते हैं। जो लोग मतदाताओं का भरोसा चाहते हैं, उन्हें केवल वही वादा करना चाहिए जो संभव है। सरकार कोई परोपकारी निकाय नहीं है। लोकलुभावन अराजकता, शासन का विकल्प नहीं हो सकती,झूठे वायदों की परिणति मोहभंग में होती है, जिससे क्रोध भड़कता है तथा इस क्रोध का एक ही स्वाभाविक निशाना होता है : सत्ताधारी वर्ग । "( गणतंत्र दिवस 2014 की पूर्व संध्या पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का राष्ट्र के नाम संदेश से एक अंश )
दांडी नमक सत्याग्रह यात्रा |
पिछले दिनों एक शब्द बहुत चर्चा में रहा, राष्ट्रपति से लेकर राहगीर तक की जुबान पर रहा, विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने तरीके से इसका विश्लेष्ण किया और कमोबेश अभी भी है वह है "अराजकता", यह शब्द गूंजा दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री केजरीवाल के धरने के बाद जिसमें एक बयान में उन्होंने यहाँ तक कह डाला कि
"कुछ लोग कहते हैं मैं अराजक हूँ और अव्यवस्था फैला रहा हूँ. मैं सहमत हूँ कि मैं अराजक हूँ. मैं भारत का सबसे बड़ा अराजकतावादी हूँ."
आखिर ये अराजकतावाद ( Anarchism ) है क्या बला ? , जनमानस इस शब्द से अर्थ निकालता है " धरना, प्रदर्शन, हड़ताल, चक्काजाम, तोड़-फोड़ वगैरह-वगैरह ; और परिभाषा की बात करें तो यह राजनैतिक दर्शन का क्षेत्र है जिसके अनुसार "यह राजनीति विज्ञान की वह विचारधारा है जिसमें राज्य की उपस्थिति को अनावश्यक माना जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी तरह की सरकार अवांछनीय है। लेकिन इस विचारधारा का अमली रूप एक उच्च सामाजिक मनोदशा है जिसमें समाज स्वत: नियमन का पालन करता है और किसी भी किस्म की शासन-व्यवस्था की जरूरत नहीं होती जो तभी सम्भव है जब मानव अपने व्यवहार की आदर्शावस्था को प्राप्त हो जाये जिसकी गुंजाईश फ़िलहाल दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती | "अराजकता" और "अराजकतावाद" कोई नवीन वस्तु नहीं है, इसको लेकर भी विभिन्न राजनीतिज्ञों के अपने-अपने विचार हैं |
डॉ. बी.आर.अम्बेडकर के अनुसार
" भारत को सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को पाने के लिए क्रांति के रक्तरंजित तरीकों, सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह का रास्ता छोड़ देना चाहिए.जहाँ संवैधानिक रास्ते खुले हों, वहाँ असंवैधानिक तरीकों को सही नहीं ठहराया जा सकता है. यह तरीके और कुछ नहीं केवल अराजकता भर हैं और इन्हें जितना जल्दी छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही बेहतर है."
हम यहाँ देखते हैं कि डॉ. अम्बेडकर ने असहमति प्रकट करने के सशस्त्र और नि:शस्त्र दोनों ही तरीकों को अराजकता कहा है | उपरोक्त व्यक्तव्य में तीन ऐंसे शब्दों का उपयोग हुआ है जिनको सीधे-सीधे महात्मा गाँधी से जोड़कर ही देखा जाता है 'सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह' कहीं कहीं पर ऐंसा भी देखने में आता है जहाँ गाँधीजी को अराजकतावाद का पैरोकार कहा जाता है उदाहरण हेतु जार्ज वुडकॉक जैसे अराजकतावादी विचारकों का दावा है कि गांधीजी स्व-परिचित ( Self Identified ) अराजकतावादी हैं वह गाँधीजी के इस बयान को आधार बनाकर यह बात कहते हैं " सामाजिक बुराइयों का प्रभाव राज्य रूपी बुराई में नजर आता है जो स्वत: कोई कारण नहीं है, जिस प्रकार लहरें , तूफ़ान का प्रभाव हैं कारण नहीं , इस रोग के उपचार का एकमात्र तरीका है कारण को समाप्त कर देना " तो जब यहाँ गाँधीजी कारण को समाप्त करने की बात करते हैं तो उनका आशय है सामाजिक बुराइयों को समाप्त करना ना कि "राज्य" को समाप्त करना | क्योंकि गाँधीजी ने अपने असहमति प्रकट करने के कार्यक्रमों के दौरान कभी राज्य का नाश नहीं चाहा, वह तो यह चाहते थे कि साम्राज्यवाद के चँगुल से मुक्त होकर भारत स्वराज को प्राप्त हो | महात्मा गांधी कहते हैं :
' राज्य तभी पूर्ण और अहिंसक हो सकता है , जब जनता पर न्यूनतम शासन हो, अहिंसात्मक लोकतंत्र ही शुद्ध अराजकता का निकटतम विकल्प है '
महात्मा गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन में इन तीनों ( सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह) का भरपूर उपयोग किया है और बहुधा सकारात्मक परिणाम भी पाया है | उनकी विधियाँ समय की कसौटी पर खरी उतरीं है , अन्य नेताओं यथा मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला ने भी इनका सफल प्रयोग कर इनकी शाश्वतता सिद्ध की है | इन तीनों तरीकों का अपना नियम-सिद्धांत है , सत्याग्रह क्या है ? कैसे किया जाना है ? इसका बाकायदा लिखित प्रारूप है | गांधी जी कहते हैं कि :
" सत्याग्रह कोई नई बात नहीं है, यह एक ऐंसा सिक्का है जिसके ऊपर सत्य, प्रेम और शांति का संदेश अंकित किया गया है | यह मात्र सत्य का आग्रह ही नहीं है परन्तु अनाकरण सत्य की खोज और सत्य के पालन का संकल्प है | सत्य के अलावा अहिंसा और असहयोग इसके मूलतत्व हैं | यह हर तरह की हिंसा के खिलाफ है चाहे वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष, आवरण में हो या अनावरित हो | इसका मूलमंत्र है कि अपने प्रतिद्वंदी के प्रति मन में कोई दुर्भावना नहीं रखनी चाहिये या उसे किसी भी प्रकार से नुकसान पहुँचाने का विचार मन में नहीं आना चाहिये | यह धर्मयुद्ध है जिसके लिए न तो झूठ और न ही कुछ छल-कपट हो, सभी प्रयास पारदर्शी होने चाहिये | सत्याग्रही को प्रेम, सद्भावनापूर्ण और उत्साहवर्धक वातावरण का निर्माण करना चाहिये, ना कि भय या आतंक का | यदि दुराभाव से इसे किया जाये तो यह सत्याग्रह नहीं है और न ही इसकी सफलता सम्भव है | एक बड़े उद्देश्य से किया गया सत्याग्रह इस बात पर निर्भर नहीं होता कि उसमें कितनी संख्या है किन्तु उसकी सफलता उसकी गुणवत्ता पर निर्भर होती है , एक सच्चा सत्याग्रही किसी भी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है | "गाँधी जी इस से आगे बढकर सत्याग्रह की विधि ( प्रक्रिया ) में यह भी कहते हैं :
" धरना एक क्रूर, कायराना और तिरस्कृत कार्य है , यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है |"
केजरीवाल साहब के धरना को सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह बहुजनहिताय बहुजनसुखाय की मूल भावना पर आधारित नहीं था | आपको समझना चाहिये था कि आप अब एक संवैधानिक पद पर हैं जिसकी अपनी गरिमा है , आप ने अपने एक सहयोगी का अनुचित बचाव करने के लिए यह घटनाक्रम आयोजित किया , यहाँ पर कुछ दशक पूर्व का एक प्रसंग पठनीय है : बिहार में डॉ. श्रीकृष्ण सिंह मुख्यमंत्री हुआ करते थे। उन्होंने एक पढ़े-लिखे व्यक्ति को अपनी सरकार का कानून मंत्री बनाया था। कानून मंत्री बनते ही वे सज्जन हाईकोर्ट पहुंचे और चीफ जस्टिस से कहा कि कल से आप और हाईकोर्ट के सारे जज मेरे ऑफिस में हाजिरी देंगे और जो मैं कहूंगा उसी के मुताबिक निर्णय देंगे। चीफ जस्टिस ने डॉ. श्रीकृष्ण सिंह को फोन कर कहा कि शायद आपका नया कानून मंत्री पगला गया है। उन्हें यह पता नहीं है कि उनकी इन हरकतों के कारण हम उन्हें जेल भेज सकते हैं। डॉ. श्रीकृष्ण सिंह ने कार भेजकर तुरन्त अपने कानून मंत्री को बुलाया और बड़ी फटकार लगाई और कहा कि कभी तो संविधान को पढ़िए। हाईकोर्ट के जज आपके अधीन नहीं हैं और ये जज जब चाहें कोर्ट की अवमानना के आरोप में आपको जेल भेज सकते हैं। कानून मंत्री को होश आ गया और मौके की नजाकत को देखकर तथा हाईकोर्ट के जजों का गुस्सा शांत करने के लिये डॉ. श्रीकृष्ण सिंह ने अपने कानून मंत्री को दूसरे ही दिन मंत्री पद से हटा दिया।
श्री केजरीवाल की सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की इस राजनीति से आम जनता परेशान होने लगी, जिस जन-संग्रह की आशा आपने लगा रखी थी वह कुछ मौसम, कुछ मोहभंग के चलते निराशा में बदल गई तो आप अपना यह नुक्कड़ नाटक छोड़कर वैकल्पिक मार्ग तलाश करने लगे, इस सब में क्या और कितना सत्य है यह तो आप ही जानते होंगे लेकिन आप को यह भी तो स्मरण रखना था कि अब आप एक राज्य के मुखिया होने के नाते " लॉ एंड ऑर्डर " के अभिन्न अंग हैं , जब आप ही अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करेंगे तो आप नागरिकों से उनके मौलिक कर्तव्यों के पालन की उम्मीद कैसे संजो सकते हैं ? आम आदमी पार्टी का सियासी मुस्तक्बिल, अर्श पर होगा या फर्श पर यह तो भविष्य की पर्तों में छुपा है | लेकिन जन-सामान्य ने आपसे जो उम्मीदें संजोकर , आप में जो विश्वास जताया है उस पर तो खरे उतर कर दिखाइये, यह तो आम आदमी भी जानता है कि रातोंरात कोई करिश्मा होने से रहा पर कदम तो बढाइये.....................
चलते चलते दो बातें आपको बता दें अव्वल तो ये कि गाँधीजी ने अपने आदर्श राज्य की अवधारणा को "रामराज्य " का नाम दिया और दूजी यह कि बापू का सामाजिक आन्दोलनकर्ता के रूप में प्रादुर्भाव तब हुआ जब 1893 में बारिस्टर गाँधीजी को प्रथम श्रेणी के डब्बे से यह कह कर फेंक दिया था कि यह गोरों के लिये है भले ही आपके पास वैधानिक टिकिट हो | आज बापू की पुण्यतिथि पर मेरी यह पाती उनको समर्पित करता हूँ
तब तक के लिये अनुमति दीजिये , कृपया मेरे प्रणाम स्वीकार करें ............