जब भी सोशल मीडिया पर आते हैं तो पाते हैं कि 90% पोस्ट्स; राजनीति, टी.व्ही. चैनलों और उनके विख्यात या कुख्यात पत्रकारों के बारे में होती हैं। आपको बताना चाहेंगे कि हम यह सब देखते ही नहीं, क्यों नहीं देखते ? इसका एक ठोस कारण है।
क्योंकि इन सब को किसी नैतिक जिम्मेदारी का बोध नहीं है, यह मात्र व मात्र आपको भावनात्मक रूप से उद्वेलित करके अपनी टकसालें चला रहे हैं; समसामयिक घटनाक्रम को जानने हेतु अखबारों का सहारा है। यह तरीका भले ही पुराना हो पर कारआमद है। तो फिर हम देखते क्या हैं ?
हम देखते हैं "जयवंत उर्फ़ दादा वाडेकर " जैसे लोगों के बारे में, दादा ने अपना जीवन समर्पित किया है सीमांत कृषकों द्वारा हाथों से इस्तेमाल किये जाने वाले छोटे-छोटे से खेतिहर औजारों को कुशल बनाने में, नये औजारों के गढ़ने में; शायद आपको मेरी बात समझ ना आई हो तो एक उदाहरण से समझाता हूँ :-
'खेत में फसल की कटाई करने वाले हंसिये का वजन लगभग 250 ग्रा. होता है, कटाई के दौरान लगातार इसे चलाने पर मजदूरों ( विशेषत: महिला मजदूरों ) के हाथ भर आते हैं (मांसपेशियों का थकाव), दादा ने इसका उन्नत प्रारूप बनाया है जिसका वजन पारम्पारिक हंसिये की तुलना में आधा (लगभग 120 ग्रा.) गम्भीरता पूर्वक सोचा जाए तो यह ना कुछ सा लगने वाली बात एक बड़ी सोच का परिणाम है।'
यह और इन जैसे लोग किसी इतिहास में दर्ज नहीं किये जायेंगे। इनके बारे में कोई किताब या जीवनी नहीं लिखी जायेगी , इनकी अपनी कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं, इनकी कोई आर्थिक महत्वाकांक्षा नहीं; पर यह अपने समाज को, परिवेश को वह लौटा रहे हैं जिसकी पूर्ति किसी परिकल्पित राजनैतिक-आर्थिक सिद्धांत से संभव नहीं और अपने समुदाय में उत्सव मनाने की असली वजह इन्हीं जैसे लोग हैं।