दूसरी दुनिया के अवशेष : एक था सोवियत संघ :
सिनेमा
आवारा हूँ, आवारा हूँ या गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ - शैलेन्द्र
इस विषय पर आज की अपनी बात शुरू करने के लिये मुझे इससे अधिक कोई उपयुक्त गीत नहीं मिल सकता, राजकपूर की 'आवारा' पहली भारतीय फिल्म थी जिसने सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में सफलता के सारे कीर्तिमान तोड़ दिये | राजकपूर, सोवियत प्रजा के लिये जैसे जीवित किवदंती बन गये और उनकी यह फिल्म एक दंतकथा बन गई | इस बारे में एक छोटी सी कहानी आपको आभास करा देगी कि आवारा की लोकप्रियता किस हद तक थी , यह घटना सोवियत संघ के एक बंदरगाह वाले शहर की है :
" एक भारतीय युवक किसी काम से डाकघर पहुँचा | काउंटर पर बैठी महिला कर्मचारी से उसने टिकिट मांगे | महिला को जब पता चला कि वह भारतीय है तो पहले तो उसने उसे गौर से देखा और कहा " आवारा हो ? " , युवक हतप्रभ हो गया | महिला रुसी में कुछ गुनगुनाई फिर जोर से बोली " आवारा हो, वेगाबोंड ? " सहमे हुये युवक ने रुसी में कहा " नहीं, आवारा नहीं हूँ, जहाज में काम करता हूँ " महिला जोर से हंसी | तब एक अंग्रेजी जानने वाले कर्मचारी ने बताया कि तुम भारतीय हो , इसलिये वह जानना चाहती है कि क्या तुमने आवारा फिल्म देखी है ? तब कहीं जाकर उस युवक की जान में जान आयी | "
सोवियत संघ में होने वाले फिल्म महोत्सवों में भारतीय सिने कलाकार नियमित रूप से जाते थे , और जब वो वहाँ पहुँचते थे तो जैसे शहर के शहर उनके स्वागत के लिये उमड आते थे , मानो वो कोई अवतार हों या विश्व-नायक हों | ये कुछ वीडियो लिंक्स हैं जिनको देख के यह बात आप सरलता से समझ सकेंगे |
जैसा कि हम इस कड़ी की पहली पाती में लिखते आये हैं कि सोवियत संघ व वारसा संधि के पूर्वी यूरोपीय देशों में सारी बातें लगभग एक जैसी ही थीं | यहाँ पर मैं उद्यत करना चाहूँगा प्रो. सूरजभान सिंह ( केन्द्रीय हिंदी संस्थान ) की लिखी काले सागर का गोरा देश : रोमानिया से एक अंश जो शब्दशः इस प्रकार है :
" इन देशों की अपनी फ़िल्में अक्सर युद्ध या राष्ट्रीय विषयों को लेकर बनती हैं | ऐंसी परम्परागत फिल्मों के लम्बे दौर के बाद अचानक जब झुमानेवाले संगीत और नृत्य के साथ एक सामाजिक भावनापूर्ण कहानी को लेकर बनी फिल्म ' आवारा ' जब यहाँ आई तो जैसे ताज़ी हवा का एक झौंका इनके चित्रपट पर आया और देखते ही देखते ' आवारा ' और ' राजकपूर ' का नाम हर आम आदमी की जुबान पर चढ़ गया | "
इन भारतीय फिल्मों ने उन लोगों के मनो:मष्तिस्क में भारत और भारतीयों के प्रति क्या धारणा और दृष्टिकोण विकसित किया इसके बारे में इसी किताब में वो आगे लिखते हैं :
" जिन लोगों के पास भारत के संबंध में जानकारी का कोई दूसरा साधन नहीं है उनके लिये हिंदी फ़िल्में ही उनकी जानकारी का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं | फलस्वरूप, सही या गलत, कुछ आम लोगों के मन में फिल्मों से उतारी गई भारत की एक खास छवि बन गई है | अपनी प्रेमिका के लिये जान की बाज़ी लगाने वाले सुंदर युवकों और हमेशा सजी-धजी रहने वाली सुंदर युवतियों का एक ऐंसा काल्पनिक देश जहाँ भावुक युवक गा-गाकर अपनी प्रेमिका या पत्नी को रिझाता है, एक ऐंसा देश जहाँ के मकान फ़िल्मी सेटों की तरह भव्य होते हैं और जहाँ माँ और बहन की खातिर लोग हर तरह की क़ुरबानी करते हैं |
इन सबका का एक अद्भुत नतीजा निकला है | किशोरियों की यहाँ एक ऐसी पूरी पंक्ति तैयार है जो हर कीमत पर एक भारतीय पति चाहती है | कारण ? भारतीय पति अधिक निष्ठावान होता है ,तलाक का कोई भय नहीं | दुर्भाग्य यह कि यहाँ भारतीय छात्र यहाँ बहुत कम हैं , लेकिन जो हैं , प्राय: खाली हाथ नहीं लौटते |"
लेखक ने यह बात भावना के अतिरेक में नहीं कही है क्योंकि इन बातों की पुष्टि मेरे भाई ने भी की जो सोवियत संघ के विघटन के १२ साल बाद २००३ में वहाँ एक छात्र के रूप में गया था | लोग सिर्फ इसलिये आपसे हाथ मिलाना चाहते हैं , आपको छूना चाहते हैं क्योंकि आप भारतीय हैं | यह एक और इसी प्रकार की वीडियो क्लिप है |
न्यूयॉर्क के 'म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट' वेबसाइट पर राजकपूर के बारे में लिखा गया है कि उत्तरी अमेरिका के लोग राजकपूर के बारे में भले ही न जानते हों, लेकिन राजकपूर को रूस, पूर्व सोवियत संघ और मध्य पूर्व जैसे इलाकों में पूजा जाता है।
राजकपूर के बाद इन देशों में धूम मचाई मिथुन चक्रवर्ती ने , मिथुन का प्रभाव इससे जाना जा सकता है कि यहाँ पर आज भी भारतीयों को देखकर लोग मिथुन-मिथुन पुकारने लगते हैं | यहाँ के हिंदी फ़िल्मप्रेमियों को ये समझाना मुश्किल था कि सबसे मशहूर फ़िल्मी कलाकार अमिताभ बच्चन हैं, मिथुन चक्रवर्ती नहीं | डिस्को डांसर हिंदी की चालू फिल्म है, लेकिन इसका असर व्यापक है। यही पापुलर कल्चर का कमाल है, जिसे हमारे बुद्धिजीवी समझने को तैयार नहीं हैं। फिल्मों की बात छेड़ते ही उनकी त्योरियां चढ़ जाती हैं।
आज सोवियत संघ और वारसा संधि के देशों का कोई राजनैतिक अस्तित्व नहीं है , लेकिन हिंदी फिल्मों का जादू आज भी यहाँ बरकरार है , वर्तमान हिंदी फ़िल्में और उनके सितारे भी बहुत लोकप्रिय हैं | इस बारे में लिखने , बताने को इतना कुछ है कि कई जिल्दें तैयार हो जायें लेकिन अब हम अपनी चिट्ठी को यहीं अल्पविराम देते हैं |
चलते चलते आपको बता दें कि दादा साहब फ़ाल्के पुरस्कार की पहली विजेता, 1930 और 40 के दशकों में हिन्दी फ़िल्मों की नायिका देविका रानी निकोलाई रेरिख़ के पुत्र और प्रसिद्ध चित्रकार स्वेतोस्लाफ़ रेरिख की पत्नी थीं.
तब तक के लिये अनुमति दीजिये , कृपया मेरे प्रणाम स्वीकार करें ............
सहज और आत्मीयता पूर्वक प्रदान की गई जानकारी.....आभार।
जवाब देंहटाएंआदरणीया, बहुत बहुत धन्यवाद , मेरा लेख आपसे कुछ कह सका, मेरी शैली में आपको अपनत्व अनुभव हुआ , यही मेरे लिए लेखन की प्राप्ति है | पुन: धन्यवाद |
हटाएंबहुत अच्छा लिखा है आपने और बिलकुल सही ...सिर्फ अपने देश में ही नहीं दुसरे देशों के नागरिकों को भी हमारी फ़िल्में थोड़ी देर के लिए सपनों की दुनिया में ले जाती हैं. मलेशिया में शाहरुख़ खान इतने ही लोकप्रिय हैं .वे लोग भी शाहरुख और करण जौहर की फ़िल्में देख सोचते होंगे...भारत में लोग ऐसे ही होते हैं ,इसी तरह रहते हैं.
जवाब देंहटाएंमेरी एक मलेशियन फ्रेंड ने वोईस मेल में 'कुछ कुछ होता है'.. गाकर भेजा था :)
सादर धन्यवाद ! यही तो प्रदर्शनकारी कलाओं का जादू है !!
हटाएंकुछ पुराने वीडियो दिखते हैं जिनमें रुसी जनता राजकपूर की रुस यात्रा के दौरान "आवारा हूँ" गाकर उनका स्वागत कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया और जानकारी से परिपूर्ण लेख। बधाई और शुभकामनाएं स्वीकार करें।
फिल्मों से भारतीय के रूप में पहचाने जाने का अनुभव एक बार मुझे भी त्रिपोली से बाहर एक छोटी सी जगह में हुआ था
जवाब देंहटाएंक्या बात है !!
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