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रविवार, 1 दिसंबर 2013

दूसरी दुनिया के अवशेष : शुरुआत

दूसरी दुनिया के अवशेष : एक था सोवियत संघ :

शुरुआत 



                               मानव सभ्यता के निरंतर विकास में अनेक राज्य-व्यवस्थाओं ने जन्म लिया, पनपी और धराशायी हों गईं, ये प्रयोग निरंतर जारी है , 20 वीं शताब्दी का सबसे रोमांचक राजनैतिक प्रयोग था “ सोवियत संघ ” , कार्ल मार्क्स से प्रेरित लेनिन ने इस विचारधारा को सिद्धांत से व्यवहार रूप में परिणित किया, और एक समय ऐंसा भी था जब विश्व इस राज्य-व्यवस्था को इंसानियत की उपलब्धि तक मानने लगा था, इसका कारण था सोवियत व्यवस्था को अंगीकार करने वाले अलग अलग जातीय और राष्ट्रीयता के लोगों का गठजोड़ | जिसने सोवियत समाजवादी गणतंत्र संघ को वह विशालता और भव्यता प्रदान की जो ज्ञात इतिहास में अभूतपूर्व थी | इस दीर्घकायता को इस चित्र से समझा जा सकता है :
यह चित्र 1960 ई. का है , जिसमें सोवियत समाजवादी गणतंत्र संघ और वारसा संधि के देशों 
को लाल रंग से दर्शाया गया है | 

                    उपरोक्त चित्र से हम इस भू-भाग की व्यापकता समझ सकते हैं, जिसमें अकेले सोवियत समाजवादी गणतंत्र संघ का क्षेत्रफल ही 22,402,200 वर्ग कि.मी. था , यानि भारत के क्षेत्रफल का लगभग 7 गुना , अंतिम सोवियत नेता मिख़ाइल गोर्बाचोव ने देश में ग्लास्नोस्त (glasnost) नामक राजनैतिक खुलेपन की नई नीति और पेरेस्त्रोइका (perestroika) नामक आर्थिक ढाँचे को बदलने की नीति के अंतर्गत सुधार करने की कोशिश की जिसके फलस्वरूप पीड़ित प्रजा ने स्वतंत्रता का रसास्वादन किया |

नतीजतन 1989 के बाद इस का विघटन प्रारम्भ हो गया जिसकी शुरुआत वारसा संधि के अन्य सदस्य देशों ( पूर्वी जर्मनी, बुल्गारिया, रोमानिया, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया , पोलैंड ,अल्बानिया ) में जन-आंदोलनों से हुई और और बाद में इसने सोवियत संघ को अपनी चपेट में ले लिया और सोवियत समाजवादी गणतंत्र संघ, 15 स्वतंत्र राष्ट्रों में टूट गया जिनके नाम हैं - रूस, जॉर्जिया, युक्रेन, मोल्दोवा, बेलारूस, आर्मीनिया, अज़रबैजान, कजाकिस्तान, उज़बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किरगिज़स्तान, ताजिकस्तान, एस्टोनिया, लातविया, और लिथुआनिया | इस विघटन की औपचारिक घोषणा 26 दिसम्बर 1991 को की गई |

सोवियत संघ का जीवनकाल सदैव विवाद का विषय रहा है और रहेगा, मार्क्सवाद-लेनिनवाद में कई ऐंसे विचार थे जिनका इससे पूर्व मानव-सभ्यता से परिचय न था उदाहरण के रूप में -: ' ईश्वर व धर्म का निषेध' इस संबंध में एक लतीफा बड़ा मशहूर है :
कम्यूनिस्ट पार्टी का एक अधिकारी मास्को से रवाना हुआ और सामूहिक खेती के एक फार्म पर "आलू" की पैदावार को दर्ज करने के लिये पहुंचा |
' किसान साथी इस साल आलू की पैदावार कैसी रही ? ' अधिकारी ने पूछा |
' ईश्वर की कृपा से आलू के पहाड़ लग गये हैं ' किसान ने बताया |
' लेकिन ईश्वर तो होता नहीं ! ' अधिकारी ने उसकी बात काटी |
' तो फिर, आलू के पहाड़ भी नहीं होते ! ' किसान ने जवाब दिया |
1989 में बर्लिन दीवार के गिरते ही दूसरी दुनिया का पतन प्रारंभ हो गया , अपने पिछड़ेपन की पहचान से सोवियत नागरिकों को राजनैतिक-मनोवैज्ञानिक सदमा पहुंचा और एक एक कर सोवियत खेमे के देश जिन्हें संयुक्त रूप से ईस्टर्न ब्लॉक ( या दूसरी दुनिया ) भी कहा जाता था , में जनता वास्तविक आज़ादी के लिए सडकों पर उतर आई | लेनिन के जलाये दीये ने गोर्बाचोव की बस्ती में दावानल का रूप धारण कर लिया और इस आग ने लगभग 8 दशकों के  निरंकुश उपेक्षा और दमन के सत्तावाद को होम कर डाला |

बर्लिन दीवार का पतन 1989-1990 


सोवियत शासन, में जुल्मों-सितम, गतिरुद्ध प्रशासन, भारी भ्रष्टाचार, गलतियों को सुधारने व शासन में अधिक खुलापन लाने के प्रति अनिच्छा और अक्षमता और लोकतंत्र एवं अभिव्यक्ति की आज़ादी का अभाव इस सबके बावजूद कुछ ऐंसा भी है जिसे भुलाया नहीं जा सकता और वह है भारत और सोवियत संघ के प्रगाढ़  संबंध , इन गहरे संबंधों के चलते समीक्षकों को यह भी कहने का मौका मिला कि "भारत, सोवियत खेमे का हिस्सा था |" यह संबंध बहुआयामी थे जो अपने में आर्थिक, राजनैतिक, सैन्य और सांस्कृतिक सहयोग को संजोये हुये थे |

बहरहाल इस वार्ता का उद्देश्य सोवियत इतिहास का पुनरावलोकन नहीं है ,और जैसा कि इस चिट्ठी का शीर्षक है “दूसरी दुनिया के अवशेष” वही हमारा विषय है | चिट्ठी के दूसरे हिस्से में हम 'भारत-सोवियत संबंधो ' के सांस्कृतिक आयाम के तहत 'साहित्य' पर बात करेंगे और उससे अगली किश्त  में इस चर्चा को  'सिनेमा' से समेटने की कोशिश करेंगे |

तब तक के लिये अनुमति दीजिये , कृपया मेरे प्रणाम स्वीकार करें ............

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