आज बचपन कितना सीमित हो गया है। इस सीमित बचपन में भी कितनी कृत्रिमता भर गई है। एक समय था जब बचपन प्रकृति के निकट था, सुखमय था। हम भी गवाह रहे हैं ऐसे बचपन के जब बच्चों को हरफनमौला नहीं बल्कि बच्चा ही समझा जाता था।
हमारे बुंदेलखंड में भादों-क्वार ( भाद्रपद-आश्विन ) के महीनों में छोटी-छोटी लडकियाँ माहुलिया ( मामुलिया ) का खेल रचा करती थीं। इस खेल को खेलने ना कोई महंगे खिलौने चाहिए होते हैं और ना कोई तामझाम। बस एक देशी बेरी की कँटीली झाड़ी ली जाती थी । उसके काँटों पर बरसात में होने वाले फूल सजाये जाते थे। इसमें निहित संदेश कितना महत्वपूर्ण है कि यह संसार कंटकमय है, इन काँटों पर अपनी मुस्कुराहटों, अपने जीवट के पुष्प सजा कर इसे रंगीन,कोमल और शोभनीय बना दो।
खेल तो लड़कियों का होता था, पर हम जैसे दीदियों के छोटे भाई भी साथ में चले जाया करते थे। सुंदर फूलों से सजी उस कंटीली टहनी को लिपे-पुते स्थान पर लगाया जाता था। उसे चुनरी उड़ाई जाती थी सब कन्यायें उसे हल्दी-सिंदूर लगाती थी, चूड़ी-कंगन पहना कर उसका श्रृंगार करती थीं और फिर गाँव-बस्ती में उसकी फेरी लगाकर, बहुत भरे मन से उसका विसर्जन नदी में किया जाता था। माहुलिया को सिराते समय लडकियाँ गाती थीं :-
‘
‘जरै ई छाबी तला कौ पानी रे
मोरी माहुलिया उजर गई।’’
इन पंक्तियों में भारतीय वेदान्त का सार तत्व निहित है। जीवन जल के समान है जिसमें नहाकर माहुलिया रूपी आत्मा और अधिक निखर उठती है। फिर घाट पर सब लडकियाँ ककड़ी और चना-चबैना खाते हुए गाती थीं :-
"माहुलिया के आ गये लिवौआ,
झमक चली अरी ढूडक चली मोरी माहुलिया"
इस जीवन का तभी तक श्रृंगार होता है, जब तक कि उसके लिबौआ (विदा कराने वाले) ना आ जाएँ । यह सब एक सलोने सपने जैसा बीत गया !! अब क्यों नहीं आते ऐसे खूबसूरत ख़्वाब ?
चित्र साभार : www.bundelkhandnews.com