expr:class='"loading" + data:blog.mobileClass'>

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

// है मजबूर कितना मर्द तुमसे प्रेम करके //



// है मजबूर कितना मर्द तुमसे प्रेम करके //


" प्रेम स्त्री का हो तो
सर्वस्व है समर्पण है
प्रेम पुरुष करे तो
सिर्फ स्वार्थ है सताना है
है मजबूर कितना मर्द तुमसे प्रेम करके


विवशताएँ भेद नहीँ करती
स्त्री की हो तो संस्कार है
वही जो कभी
पुरुष की हो तो तिरस्कार है
है मजबूर कितना मर्द तुमसे प्रेम करके

जिंदगी की जंग जबर जालिम
इस रण में जो हाथ छूट जाये
तुम फरियादी बनके
हमदर्दी बटोरती फिरती हो
नर को बना मुलजिम इतराती हो
है मजबूर कितना मर्द तुमसे प्रेम करके

तुम सुहृदय हो कोमल हो
मर्द पाषाण और कठोर है
तुम सद्य करुणापात्र
हम जघन्य घृणा को मात्र
है मजबूर कितना मर्द तुमसे प्रेम करके "

कविता: © डॉ. अमित कुमार नेमा


1 टिप्पणी:

  1. बढ़िया प्रस्तुति
    आपको जन्मदिन की बहुत बहुत हार्दिक मंगलकामनाएं

    जवाब देंहटाएं