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मंगलवार, 18 अगस्त 2015

सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ..

र उत्सव किसी ना किसी प्रतीक से जुड़ा होता है। जैसे होली रंगों से, वैसे ही झूले सावन का प्रतीक हैं। आज हरियाली तीज है। आज के दिन से हमारे छोटे से शहर के मन्दिरों में झूले डाले जाते हैं। जिनपर प्रियतम-प्यारी झूलते हैं। मन्दिरों में लगने वाले झूलों के साथ बचपन की जाने कितनी यादें जुड़ी हुईं हैं।  

हम बच्चों में भगवान को झूला झुलाने के साथ जुड़ा हुआ आकर्षण यह था कि झूलों के साथ-साथ पूर्णिमा तक हरदिन बदल-बदल कर मन्दिरों में पौराणिक प्रसंगों की झाँकियों की प्रस्तुति की जाती थी। उस समय हमारे यहाँ खिलौने सिर्फ सावन के महीने में ही मिला करते थे तो वह भी कुछ कम बात नहीं थी। इस साल कौन सा नया खिलौना आया? कितनी कीमत का है ?  शाला में यह चर्चा का खास मुद्दा हुआ करता था। मन्दिर में भगवान की झांकी - दुकानों पर खिलौनों की झाँकी, बालमन के लिए यह किसी अलौकिक आभास से कम नहीं हुआ करता था। 




पानी बरसता जा रहा है और हम सब दौड़ते-भागते जा रहे हैं मन्दिरों को। पैरों में चप्पल हुई तो हुई और ना हुई तो और भी अच्छा कि उधर चप्पलों के ढेर में से अपनी चप्पल ढूँढने से मुक्ति मिली। पैर सड़कों पर हो जाने वाले मिट्टी-कीचड़ में लथपथ, पर कोई बात नहीं धो लेंगे। तो कभी किसी दुकान पर खड़े होकर खिलौने देख रहे हैं। तय कर रहे हैं कि इस बार कौन-कौन से खिलौने लेने हैं। मोमबत्ती से चलने वाली नाव लेना है, ये छोटा सा बल्ब वाला सिनेमा लेना है, अरे हाँ यह चाबी वाली रेल तो बिलकुल असली रेल जैसी चलती है, यह भी मिल जाए तो !

भीगे बदन - कीचड़ में लिथड़े पाँव कहीं घर पर किसी ने देख लिए तो डांटेंगे। चुपके से कपड़े गोल-गोल बंडल बना के छुपा दिए ( जो रात या अधिकतम सुबह तक माँ के हाथ लग ही जायेंगे ) सर पर से एक बाल्टी पानी, हर-हर गंगे और भूमिका बनाना शुरू कि खिलौने कैसे मिलें ? 

सावन की ऐसी जाने कितनी शामें-रातें बीती और सचमुच बीत ही गईं ……… तुम तो बड़े हो भगवान, हम बच्चे थे तब तुमको चाँदी के पालने में रेशम की डोर से झुलाते थे। अब तुम हमें झुला रहे हो पक्की वाली चुम्मी-चुम्मी  

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