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बुधवार, 30 दिसंबर 2015

उसी नमक के सहारे





" ह जीवन सबको मिलता है
एक पारी के रूप में
अपना खेल दिखाने को
सब पर छा जाने को 
कुछ बेहतर खेल दिखाते हैं
सब उन पर मोहित हो जाते हैं
क्योंकि वो भावों के सेवक नहीं 
उनका हर करतब एक सिद्ध प्रमेय
लिखे जाते प्रशस्ति काव्य उन्हीं के
संवेदी होना , सहनशील होना 
है इस पारी को खोना
पर कभी भीगे सीले पृष्ठ
भी पढ़े जायेंगे पढ़ते हुए
आंसुओं से भिगोये जायेंगे
मैं उसी नमक के सहारे जी रहा हूँ ! "


© डॉ. अमित कुमार नेमा


मंगलवार, 10 नवंबर 2015

ग्राम्य नायक



जब भी सोशल मीडिया  पर   आते हैं तो पाते हैं कि 90% पोस्ट्स; राजनीति, टी.व्ही. चैनलों और उनके विख्यात या कुख्यात पत्रकारों के बारे में होती हैं। आपको बताना चाहेंगे कि हम यह सब देखते ही नहीं, क्यों नहीं देखते ? इसका एक ठोस कारण है।

क्योंकि इन सब को किसी नैतिक जिम्मेदारी का बोध नहीं है, यह मात्र व मात्र आपको भावनात्मक रूप से उद्वेलित करके अपनी टकसालें चला रहे हैं; समसामयिक घटनाक्रम को जानने हेतु अखबारों का सहारा है। यह तरीका भले ही पुराना हो पर कारआमद है। तो फिर हम देखते क्या हैं ?

हम देखते हैं "जयवंत उर्फ़ दादा वाडेकर " जैसे लोगों के बारे में, दादा ने अपना जीवन समर्पित किया है सीमांत कृषकों द्वारा हाथों से इस्तेमाल किये जाने वाले छोटे-छोटे से खेतिहर औजारों को कुशल बनाने में, नये औजारों के गढ़ने में; शायद आपको मेरी बात समझ ना आई हो तो एक उदाहरण से समझाता हूँ :-





'खेत में फसल की कटाई करने वाले हंसिये का वजन लगभग 250 ग्रा. होता है, कटाई के दौरान लगातार इसे चलाने पर मजदूरों ( विशेषत: महिला मजदूरों ) के हाथ भर आते हैं (मांसपेशियों का थकाव), दादा ने इसका उन्नत प्रारूप बनाया है जिसका वजन पारम्पारिक हंसिये की तुलना में आधा (लगभग 120 ग्रा.) गम्भीरता पूर्वक सोचा जाए तो यह ना कुछ सा लगने वाली बात एक बड़ी सोच का परिणाम है।'

यह और इन जैसे लोग किसी इतिहास में दर्ज नहीं किये जायेंगे। इनके बारे में कोई किताब या जीवनी नहीं लिखी जायेगी , इनकी अपनी कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं, इनकी कोई आर्थिक महत्वाकांक्षा नहीं; पर यह अपने समाज को, परिवेश को वह लौटा रहे हैं जिसकी पूर्ति किसी परिकल्पित राजनैतिक-आर्थिक सिद्धांत से संभव नहीं और अपने समुदाय में उत्सव मनाने की असली वजह इन्हीं जैसे लोग हैं।


शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

नित्य मिलन-विरह





" भंगुर है वह मिलन 
जिसे तुम  स्थायी मान बैठी हो
इसलिये नहीं कि मेरे प्रेम में 
कोई खोट है पर प्रयास है
तुमसे हर बीते दिन से 
अधिक प्रेम करने का 
इसके लिए जरूरी है कि
यह मिलन अस्थायी हो
मैं तुम्हें नित-नित खोना चाहता हूँ 
मैं तुम्हें नित-नित पाना चाहता हूँ "

© डॉ. अमित कुमार नेमा




सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

एक आँखो देखी त्रासना 498अ की



 किसी कारणवश अदालत जाना हुआ और वहाँ एक झकझोर देने वाला दृश्य देखा। हम कोर्टरूम के बाहर बनी हुई पत्थर की बेंच पर बैठे हुए थे। बाजू वाली बेंच पर एक सजी-सँवरी विवाहित युवती बैठी हुई थी, जो अपने साथ के एक दम्पत्ति से बहुत प्रसन्नता से बात कर रही थी। जिन्हें वह भैया-भाभी पुकार रही थी।

इसी समय न्यायालय परिसर के मुख्यद्वार से पुलिस के साथ एक पुरुष, एक अधेड़ महिला-पुरुष और व्हीलचेयर पर एक अतिवृद्ध महिला को आते देखा, अकारण ही मेरी निगाह बाजू वाली बेंच पर घूमी तो पाया कि ननद और भैया-भाभी, आगंतुकों को आग्नेय नेत्रों से घूर रहे थे।




पुलिस इन्हें लेकर कोर्ट में चली गई, चूँकि हमारी बेंच दरवाजे सामने ही थी तो हमने देखा कि इन सबको पुलिस ने आरोपियों वाले कटघरे में खड़ा कर दिया अब हमारा ध्यान सबसे ज्यादा उस अतिवृद्धा ने आकर्षित किया, वो दादी अम्मा करीब 80-85 की उम्र की थीं, आँखों पर चश्मा और इतनी असहाय कि वो अपने मुँह से बहने वाली लार को भी नहीं पोंछ पा रही थीं। जो उनके कपड़ों को भिगो रही थी।

तभी चपरासी ने एक महिला नाम की पुकार लगाई और सजी-सँवरी विवाहित युवती जो अभी तक अपनी हँसी से पूरा गलियारा गुलज़ार किये हुए थी, अपनी आँखों पर रूमाल रख के उठी, कोर्ट के दरवाज़े तक पहुँचते-पहुँचते तो वो बाकायदा सुबकने भी लगी थी।

भैया का तो पता नहीं पर भाभी जरुर हमें, अपनी ननद की दहेज प्रताड़ना से शिक्षा प्राप्त करती हुई दिखी। कब्र में पाँव लटकाए वह बुजुर्ग महिला जरुर ही भयंकर राक्षसी होगी..........

छायाचित्र : साभार www.abc.net.au


सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

भारतीय बुद्धिजीवियों की भूख

" भारतीय बुद्धिजीवियों का भूख से उभरा ज्ञान देश को विनाश की ओर उन्मुख कर रहा है। "  - पॉल थरु (अमेरिकन यात्रालेखक/उपन्यासकार)

यह बात 1970 के दशक में कही गई थी। हमारे बुद्धिजीवियों ने अपनी 'चर्चा में बने रहने की भूख' से समाज को वास्तविक मुद्दों से भटका दिया है। वो अपने पुरुस्कार लौटा रहे हैं, यह उनके विरोध दर्ज कराने का एक तरीका है जिसका मैं सम्मान करता हूँ। लेकिन पूरे घटनाक्रम पर नज़र डालें तो क्या ऐसा नहीं लगता कि हमारे प्रतिष्ठित साहित्यकार/बुद्धिजीवियों के पास (स्व) चयनित मुद्दे हैं जिनका वो समर्थन या विरोध करते हैं, इतना होता तो भी ठीक था पर एक जैसे मुद्दों पर ही धर्म/जाति/सम्प्रदाय के आधार पर उनकी प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है। हाल ही में तसलीमा नसरीन ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है- " ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष लोग मुस्लिम समर्थक और हिन्दू विरोधी हैं। वे हिंदू कट्टरपंथियों के कामों की तो आलोचना करते हैं और मुस्लिम कट्टरपंथियों के घृणित कामों का बचाव करते हैं। "



कट्टरपंथ निश्चित ही किसी आधुनिकता और मानवीयता को अपनाने वाले समाज,राष्ट्र के लिए घातक है। नसरीन ने बड़ी बेबाकी से कहा कि जब वो विभिन्न कट्टरपंथियों द्वारा प्रताड़ित की जा रही थी तब हमारे यह स्वनामधन्य लेखकगण मौन थे, बल्कि 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का दम भरने वाले दो लेखकों ( जो खुद साहित्य अकादमी पुरूस्कार प्राप्त हैं ) ने तो उनकी किताब को प्रतिबंधित कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आईना देख लिया करिएगा साहब।

अगर हमारे साहित्यकारों/बुद्धिजीवियों की अक्ल इतनी कुंद हो गई है कि उनको सही मुद्दे/विषय सूझते ही नहीं, तो मैं आपकी मदद करता हूँ। बशर्ते आप अपने लिजलिजा चुके स्वविवेक को खूंटी पर टांग दे। हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है "राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा" स्वतंत्रता के बाद से आजतक इस पर अमल ना कर पाने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने अभी-अभी नाखुशी भी जाहिर की है। प्रो.हरबंश दीक्षित (संविधान विशेषज्ञ) इस संदर्भ में लिखते हैं- "आधुनिक सोच का लाभ केवल हिंदुओं तक ही सीमित न रहे और वह दूसरे मतावलम्बियों को भी हासिल हो”  

वर्तमान सत्ताधारी दल का भी यह एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा था। साहित्यकार/बुद्धिजीवीसिविल सोसाईटी का असरदार प्रतिनिधित्व करते हैं। आप सब मिलकर घेरिये सरकार को कि वह समान सिविल संहिता जल्द से जल्द लागू करे, बनाइए दबाव, लौटाइये सम्मान/पुरूस्कार। पर शायद यह आपको माफिक नहीं आएगा क्योंकि इससे आपकी (चयनित) धर्मनिरपेक्षता की भावना को गहरा आघात पहुँचता है।

" अब क़यामत से क्या डरे कोई
अब क़यामत तो रोज आती है " - ख़ुमार बाराबंकवी  


सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

जयप्रकाश



"महापुरुष सिर्फ बड़ा आदमी नहीं होता, एक प्रतीक होता है--किसी महान उद्देश्य का, किसी महान कर्म का। लक्ष-लक्ष मानव मन की आशायें, आकांक्षायें ही एकत्र होकर एक महापुरुष का रूप धारण करती हैं ! ऐसे महान पुरुषों का वंदन-अभिनंदन व्यक्तिपूजा नहीं, आदर्शपूजा है और उसके कार्यों में हाथ बंटाने की चेष्टा पुनीत महायज्ञ। यज्ञाग्नि प्रज्जवलित है, उसमें अपनी समिधा डालो। " - रामवृक्ष बेनीपुरी

पिछले सौ सालों के जिन व्यक्तित्वों से प्रभावित हुआ हूँ , 'लोकनायक जयप्रकाश नारायण' उनमें से एक हैं। इस गांधीवादी आदमी की सम्पूर्ण क्रांति इस भारतवर्ष के सभी पहलुओं को समावेष्टित करती है। लोकनायक ने कहा कि "सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल है - राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति। इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रान्ति होती है।"

उनका साफ कहना था कि इंदिरा सरकार को गिरना ही होगा। तब श्रीमती इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की आधी रात में राष्‍ट्रीय आपातकाल घोषित किया जिसके बाद लोक नायक जय प्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर लिया गया था और चंडीगढ़ में बंदी बनाकर रखा गया था।




तब दिल्ली के रामलीला मैदान में एक लाख से अधिक लोगों ने जय प्रकाश नारायण की गिरफ्तारी के खिलाफ हुंकार भरी थी। उस समय आकाश में सिर्फ उनकी ही आवाज सुनाई देती थी। उसी वक्त राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने कहा था 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।' 'दिनकर' ने  कहा  :-  

 " कहते हैं उसको "जयप्रकाश"
जो नहीं मरण से डरता है,
ज्वाला को बुझते देख, कुण्ड में
स्वयं कूद जो पड़ता है।

है "जयप्रकाश" वह जो न कभी
सीमित रह सकता घेरे में,
अपनी मशाल जो जला
बाँटता फिरता ज्योति अँधेरे में। "    रामधारी सिंह 'दिनकर'


यह संयोग ही है कि आज से आगामी सप्ताह में जेपी का जन्मदिवस और पुण्यतिथि दोनों ही हैं ।

थोड़ा-थोड़ा करके तो जेपी को जाना ही है, पर आज से पहले 'दियारा सिताब' के इस नक्षत्र के बारे में कोई प्रामाणिक किताब मेरे पास मौजूद ना थी। आज तीन किताबें खोजी हैं जिनमें से एक का जिक्र यहाँ जरुर करना चाहूँगा वो है 'श्री रामवृक्ष बेनीपुरी' की 'जयप्रकाश' , अगर आजादी के समय तक के जेपी के बारे में आप जानना चाहते हैं तो यह किताब आपको नि:शुल्क उपलब्ध करवाने में मुझे आत्मीय संतोष होगा। समाज-परिवर्तन के कंटकाकीर्ण मार्ग की अभिव्यक्ति उन्हीं के शब्दों में :-

" सफलता और विफलता की/ परिभाषायें भिन्न हैं मेरी,
इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व बन नहीं सकता था प्रधानमंत्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रांतिशोधक के लिए कुछ अन्य ही पथ मान्य थे,उद्दिष्ट थे
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के/ पथ संघर्ष संपूर्ण क्रांति के । " - जयप्रकाश नारायण


रविवार, 27 सितंबर 2015

माहुलिया के दो दो फूल, छिटक मोरी माहुलिया


ज बचपन कितना सीमित हो गया है। इस सीमित बचपन में भी कितनी कृत्रिमता भर गई है। एक समय था जब बचपन प्रकृति के निकट था, सुखमय था। हम भी गवाह रहे हैं ऐसे बचपन के जब बच्चों को हरफनमौला नहीं बल्कि बच्चा ही समझा जाता था।

हमारे बुंदेलखंड में भादों-क्वार ( भाद्रपद-आश्विन ) के महीनों में छोटी-छोटी लडकियाँ माहुलिया ( मामुलिया ) का खेल रचा करती थीं। इस खेल को खेलने ना कोई महंगे खिलौने चाहिए होते हैं और ना कोई तामझाम। बस एक देशी बेरी की कँटीली झाड़ी ली जाती थी । उसके काँटों पर बरसात में होने वाले फूल सजाये जाते थे। इसमें निहित संदेश कितना महत्वपूर्ण है कि यह संसार कंटकमय है, इन काँटों पर अपनी मुस्कुराहटों, अपने जीवट के पुष्प सजा कर इसे रंगीन,कोमल और शोभनीय बना दो।




खेल तो लड़कियों का होता था, पर हम जैसे दीदियों के छोटे भाई भी साथ में चले जाया करते थे। सुंदर फूलों से सजी उस कंटीली टहनी को लिपे-पुते स्थान पर लगाया जाता था। उसे चुनरी उड़ाई जाती थी सब कन्यायें उसे हल्दी-सिंदूर लगाती थी, चूड़ी-कंगन पहना कर उसका श्रृंगार करती थीं और फिर गाँव-बस्ती में उसकी फेरी लगाकर, बहुत भरे मन से उसका विसर्जन नदी में किया जाता था। माहुलिया को सिराते समय लडकियाँ गाती थीं :-

जरै ई छाबी तला कौ पानी रे
मोरी माहुलिया उजर गई।’’

इन पंक्तियों में भारतीय वेदान्त का सार तत्व निहित है। जीवन जल के समान है जिसमें नहाकर माहुलिया रूपी आत्मा और अधिक निखर उठती है। फिर घाट पर सब लडकियाँ ककड़ी और चना-चबैना खाते हुए गाती थीं :-

"माहुलिया के आ गये लिवौआ, 
झमक चली अरी ढूडक चली मोरी माहुलिया"

इस जीवन का तभी तक श्रृंगार होता है, जब तक कि उसके लिबौआ (विदा कराने वाले) ना आ जाएँ । यह सब एक सलोने सपने जैसा बीत गया !! अब क्यों नहीं आते ऐसे खूबसूरत ख़्वाब ?

चित्र साभार  : www.bundelkhandnews.com


गुरुवार, 3 सितंबर 2015

// है मजबूर कितना मर्द तुमसे प्रेम करके //



// है मजबूर कितना मर्द तुमसे प्रेम करके //


" प्रेम स्त्री का हो तो
सर्वस्व है समर्पण है
प्रेम पुरुष करे तो
सिर्फ स्वार्थ है सताना है
है मजबूर कितना मर्द तुमसे प्रेम करके


विवशताएँ भेद नहीँ करती
स्त्री की हो तो संस्कार है
वही जो कभी
पुरुष की हो तो तिरस्कार है
है मजबूर कितना मर्द तुमसे प्रेम करके

जिंदगी की जंग जबर जालिम
इस रण में जो हाथ छूट जाये
तुम फरियादी बनके
हमदर्दी बटोरती फिरती हो
नर को बना मुलजिम इतराती हो
है मजबूर कितना मर्द तुमसे प्रेम करके

तुम सुहृदय हो कोमल हो
मर्द पाषाण और कठोर है
तुम सद्य करुणापात्र
हम जघन्य घृणा को मात्र
है मजबूर कितना मर्द तुमसे प्रेम करके "

कविता: © डॉ. अमित कुमार नेमा


शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

वांछित-अवांछित

पिछले कुछ सालों से हमारे क्षेत्र की खरीफ की मुख्य फसल "सोयाबीन" लगातार किसी ना किसी आपदा से ग्रसित होती आ रही है। इस बार फसल अच्छी है तो येलो मोज़ेक वायरस का प्रकोप शुरू हो गया। एकबार पौधे के इससे ग्रसित हो जाने पर इसका कोई सटीक उपचार नहीं है।  आप बस इसे फ़ैलाने वाले कीटों पर ही नियन्त्रण कर सकते हैं। रोगग्रसित पौधे पुन: स्वस्थ नहीं होते। इसी के चलते हमने खेतों का व्यापक निरीक्षण किया और इससे मिलता-जुलता सबक जिंदगी के लिए भी सीखा। वही यहाँ दोहराना चाहता हूँ।

 " उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं।।
 सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू।।
(रामचरितमानस बाल. 4.3)

खेतों में कितनी लगन-मेहनत के साथ फसल लगाई जाती है। समय-समय पर उसकी देखभाल की जाती है। उसमें खाद-उर्वरक, दवाईयाँ डाली जाती हैं। यही सब हम भी अपने जीवन के साथ करते हैं। जीवन की बढ़िया साज-सम्हाल, सुख-सुविधाओं के लिए प्रयत्न करते हैं। जैसे अच्छा फसलोत्पादन वैसे ही एक उत्तम जीवन भी हमारे लिए वांछित होता है। इतनी एहतियात बरतने के बाद भी दोनों के सामने पचास तरह की आफतें आती हैं।  


येलो मोजेक वायरस से ग्रस्त सोयाबीन की पत्तियाँ 


वहीं दूसरी तरफ नींदा (खरपतवार) होते हैं। यह पूर्णत: अवांछनीय हैं; फिर भी बिना किसी देखभाल के सदा लहराते रहते हैं। ना तो इनको कोई कीट-व्याधि होती है और ना इनमें कोई रोग लगता है। हमारे संसार-समाज में भी ऐसी बहुत सी अनचाही चीजें हैं। फिर वो चाहे बुरे लोग हों, व्यसन हों, कुरीतियाँ हों, या अपराध हों; यह दोनों ही दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ते हैं।    

" पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं।।
बंदऊँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा।।"
(रामचरितमानस बाल.  3ख.4)


आपके हृदय में विराजमान सीतारामजी को, हमारे सीतारामजी की, जयसीतारामजी की पहुँचे। 

  

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ..

र उत्सव किसी ना किसी प्रतीक से जुड़ा होता है। जैसे होली रंगों से, वैसे ही झूले सावन का प्रतीक हैं। आज हरियाली तीज है। आज के दिन से हमारे छोटे से शहर के मन्दिरों में झूले डाले जाते हैं। जिनपर प्रियतम-प्यारी झूलते हैं। मन्दिरों में लगने वाले झूलों के साथ बचपन की जाने कितनी यादें जुड़ी हुईं हैं।  

हम बच्चों में भगवान को झूला झुलाने के साथ जुड़ा हुआ आकर्षण यह था कि झूलों के साथ-साथ पूर्णिमा तक हरदिन बदल-बदल कर मन्दिरों में पौराणिक प्रसंगों की झाँकियों की प्रस्तुति की जाती थी। उस समय हमारे यहाँ खिलौने सिर्फ सावन के महीने में ही मिला करते थे तो वह भी कुछ कम बात नहीं थी। इस साल कौन सा नया खिलौना आया? कितनी कीमत का है ?  शाला में यह चर्चा का खास मुद्दा हुआ करता था। मन्दिर में भगवान की झांकी - दुकानों पर खिलौनों की झाँकी, बालमन के लिए यह किसी अलौकिक आभास से कम नहीं हुआ करता था। 




पानी बरसता जा रहा है और हम सब दौड़ते-भागते जा रहे हैं मन्दिरों को। पैरों में चप्पल हुई तो हुई और ना हुई तो और भी अच्छा कि उधर चप्पलों के ढेर में से अपनी चप्पल ढूँढने से मुक्ति मिली। पैर सड़कों पर हो जाने वाले मिट्टी-कीचड़ में लथपथ, पर कोई बात नहीं धो लेंगे। तो कभी किसी दुकान पर खड़े होकर खिलौने देख रहे हैं। तय कर रहे हैं कि इस बार कौन-कौन से खिलौने लेने हैं। मोमबत्ती से चलने वाली नाव लेना है, ये छोटा सा बल्ब वाला सिनेमा लेना है, अरे हाँ यह चाबी वाली रेल तो बिलकुल असली रेल जैसी चलती है, यह भी मिल जाए तो !

भीगे बदन - कीचड़ में लिथड़े पाँव कहीं घर पर किसी ने देख लिए तो डांटेंगे। चुपके से कपड़े गोल-गोल बंडल बना के छुपा दिए ( जो रात या अधिकतम सुबह तक माँ के हाथ लग ही जायेंगे ) सर पर से एक बाल्टी पानी, हर-हर गंगे और भूमिका बनाना शुरू कि खिलौने कैसे मिलें ? 

सावन की ऐसी जाने कितनी शामें-रातें बीती और सचमुच बीत ही गईं ……… तुम तो बड़े हो भगवान, हम बच्चे थे तब तुमको चाँदी के पालने में रेशम की डोर से झुलाते थे। अब तुम हमें झुला रहे हो पक्की वाली चुम्मी-चुम्मी  

सोमवार, 10 अगस्त 2015

मोहब्बत का मुरब्बा


जी हाँ , कैसे बनता है ?, बताता हूँ,


विधि क्रमांक - 1 : युवतियाँ MyChoice का उद्घोष करती हुई, बिना किसी झाँसे के अपनी मर्जी से जिस्मानी ताल्लुकात बनाती हैं।
विधि क्रमांक - 2 : या / होता यह है कि युवा प्रेमी जोड़े “ प्यार किया तो डरना क्या “ स्टाइल में घर से भाग जाते हैं।
     इसके बाद वो या उनके परिजन रपट दर्ज कराते हैं और पुलिस “ कानून के हाथ लंबे होते हैं “ स्टाइल में उनको खोज निकालती है या लड़के के घर पर दबिश देना शुरू कर देती है। अब होती है मोहब्बत का मुरब्बा बनने की प्रक्रिया चालू , जो लड़की अपनी मर्जी से, पूरे होशोहवास में घर से भागी थी , अब वह “ पारो “ से “पीड़ित” बन जाती है, और “ मजनूँ “ बन जाता है “ मुलजिम “, तो, जनाब आशिक के खिलाफ अपहरण से लेकर दुष्कर्म तक की धाराएँ लगा कर झूठा प्रकरण तैयार कर दिया जाता है।



     अब चूँकि माननीय न्यायालयों के आदेश का पालन करते हुये “पीड़िता” की पहचान तो गुप्त रखी जाती है, लेकिन “ मजनूँ “ का सचित्र जीवन परिचय पत्र पत्रिकाओं और न्यूज़ चैनल पर दिखा दिया जाता है। लडके का परिवार किन किन प्रताड़नाओं से गुजरता है, यह जानने की फुरसत किसी को नहीं। अब हमारे प्यारे फेसबुकियन मित्र कहेंगे कि अगर वो निर्दोष है तो उसे न्यायालय के आदेश का इंतज़ार करना चाहिये, उनका ऐंसा कहना ठीक भी है , क्योंकि उनमें से अधिकाँश पुलिस और न्यायालयीन प्रक्रियायों से वाकिफ ही नहीं हैं। न्यायालय भी क्या करें इस देश में मुकदमेबाजी भी तो महामारी बन गई है।

तो दोस्तों “ मजनूँ “ से “ मुलजिम “ बने लड़के की जिंदगी तो नरक बन ही जाती है, और उसे याद आते हैं स्व.मो.रफी साहब जिन्होंने कभी कहा था :-
“दोनों ने किया था प्यार मगर मुझे याद रहा तू भूल गई 
मैने तेरे लिये रे जग छोड़ा तू मुझको छोड़ चली "

साथ ही उसके परिजन भी विकट कष्ट भोगते हैं, अब आप समझे कि कैसे बनता है मोहब्बत का मुरब्बा.........सावधान मित्रों कहीं आप भी किसी से दिल तो नहीं लगा बैठे ?

रहा नहीं गया सो ये कहानी सुना दी, कहा सुना माफ़ करना .....


सोमवार, 29 जून 2015

दीपदान


" ह माँ तुम भी बातें करने में बड़ी अच्छी हो । जब मैं बड़ा होकर बहुत सी जागीर जीतूँगा, तो मैं तुम्हारे लिए एक मन्दिर बनवाऊँगा। देवी के स्थान पर तुमको बिठलाऊँगा और तुम्हारी पूजा करूँगा। तुम अपनी पूजा करने दोगी ? " 




पुरानी तस्वीरें देखते हुए इस तस्वीर पर नजर पड़ी अकस्मात बहुत सी यादें ताज़ा हो गईं और आज आपके साथ वही साझा कर रहा हूँ। 

विद्यालय में वार्षिकोत्सव होना था। जिसमें होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में 'डॉ.रामकुमार वर्मा' कृत 'दीपदान' एकांकी भी शामिल की गई। डॉ.वर्मा मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं, साथ-साथ आधुनिक हिंदी के एकांकीकारों में उल्लेखनीय स्थान रखते हैं। आप मूलत: छायावादी कवि हैं इसलिए काव्य की सरसता आपकी एकांकियों में बाहुल्यता से पाई जाती है। गर्व की बात यह भी है कि उनका और हमारा जन्म एक ही जिले में हुआ है। 

दीपदान, चित्तौड़ की एक वीरांगना 'पन्ना धाय' पर आधारित ऐतिहासिक एकांकी है। जिसमें पन्ना ने राज्य की रक्षा हेतु अपने एकमात्र पुत्र का बलिदान कर दिया। इसमें हमें वीर क्षत्राणी पन्ना धाय के पुत्र 'चंदन' का पात्र अभिनीत करने के लिए चुना गया। अब होता यह था कि कक्षाएँ समाप्त हो जाने के बाद वो बच्चे जिन्होंने किसी प्रोग्राम में हिस्सा लिया है; और शिक्षक रिहर्सल के लिए रुक जाया करते थे। कुछ सहपाठी दर्शक बनने भी रुक जाया करते थे। 

कार्यक्रम फरवरी में होना था पर हमारी तैयारियाँ अक्टूबर से ही शुरू हो गई थीं। हम सभी जोशो-खरोश से जुटे हुए थे। यहाँ तक कि अपने संवादों के अलावा दूसरे पात्रों तक के संवाद और उनका क्रम कंठस्थ हो गया; और तभी गणतन्त्र दिवस मनाने के बाद पता चला कि किसी कारणवश वार्षिकोत्सव नहीं होगा। हम सब बहुत मायूस हुए, पर क्या कर सकते थे ?  बालमन कुम्हला कर रह गया।  

अगले साल फिर से निर्धारित समय पर सालाना जलसे की तैयारियाँ शुरू हुईं। इस बार दीपदान को प्रधान प्रस्तुति के रूप में रखने का निर्णय लिया गया। हम सब अतिरिक्त उत्साह के साथ फिर से रिहर्सल करने लगे। यहाँ बताता चलूँ कि एकांकी में मेरी माँ पन्ना धाय का पात्र मुझसे एक कक्षा नीचे पढ़ने वाली एक छात्रा ने निभाया था। 

तयशुदा वक्त पर कार्यक्रम हुआ और इसमें दीपदान की प्रस्तुति सुपर-डुपर हिट रही। कुछ समय तक तो हमें नगर में हमारे नाम की जगह चंदन कह के ही पुकारा जाता रहा। संस्मरण के शुरू में दिया हुआ कथ्य इसी एकांकी से लिया गया चंदन का एक संवाद है; और छायाचित्र में आपका मित्र चंदन के रूप में। 



शनिवार, 13 जून 2015

टपकती खुशियाँ





" सुखों की सरिता निर्बाध
है यह कल्पना मात्र 
खुशियाँ हैं नल से टपकती, 
उन बूँदों के जैसी जो 
आप में से ही होकर हैं गुज़रती, 
हम वृहद धारा की प्रत्याशा में 
इन्हें बह जाने देते हैं 
वाष्पित हो फिर नहीं मिलती। "



चित्र : एलिजाबेथ व्हाइटमैन 
कविता : © डॉ. अमित कुमार नेमा

गुरुवार, 11 जून 2015

इमली का वार

मारे घर के पास एक चौक है, जहाँ अक्सर खेल-तमाशे दिखाने वाले अपने करतब दिखाते हैं। आजकल तो किसी के पास यह सब देखने की फुरसत ही नहीं पर एक समय हुआ करता था जब यह मनोरंजन का प्रधान साधन थे और खेल-तमाशा दिखाने वाले की प्रतिभा को दिल खोल कर तारीफों और अन्य तरीकों से पुरुस्कृत किया जाता था। कई बार तो ऐसा भी होता था कि एक मदारी खेल दिखा रहा हो और दूसरा उस जगह पर कब्जा लेने को प्रतीक्षा में खड़ा दिखता था ।



इतवार का दिन तो जैसे इसके लिए आरक्षित था। तब हम हाफ पैन्ट पहनने वाले, सुडकती नाक को आस्तीन से पोंछने वाले बच्चे थे। खेल-तमाशा दिखाने वाले जनसमूह को आकर्षित/आमंत्रित करने के लिए बीन या मुंह से बजने वाला कोई वाद्य  बजाया करते थे; तो हमारा भी मोहित हो जाना स्वाभाविक था। पर हम यार-दोस्त वहाँ जाने से पहले एक इमली जेब में रखना नहीं भूलते थे।


अब जैसे ही बाजीगर बीन बजाता हम सब छुप-छुप के उसके सामने इमली लहराने लगते। इमली देखकर उसके मुंह में पानी भर आता और बीन के सुर आड़े-टेढ़े निकलने लगते, फिर मदारी बीन बजाना बंद करके पहले हम लोगों को खदेड़ा करता था; और अगर कोई अगला बाजीगर कतार में हुआ तो वह बीन बजाने से पहले सावधान निगाहों से हमें खोज लिया करता था। हमारा तमाशा तो इतने में ही हो जाता था। यह बात और है कि इमली का वार कभी खाली नहीं गया......

अब अपने अमित को आज्ञा दीजिये, कृपया मेरे प्रणाम स्वीकार करें । 

छायाचित्र साभार : विकीपीडिया 


शुक्रवार, 5 जून 2015

क्या आप पहचान पायेंगे ?

// स्वच्छ व सुरक्षित खान-पान ही स्वस्थ जीवन की एक महत्वपूर्ण शर्त है //

अक्सर हम देखते हैं कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उत्पादित किये जाने वाले खाद्य-पदार्थ भी संदूषित या स्वास्थ्य के लिए हानिकारक पाये जाते हैं; यह उनका हाल है जिनके पास हजारों करोड़ रूपये का सेटअप है ऐसे में जरा कल्पना तो कीजिये हमारे देश में वैध/अवैध रूप से चलने वाली लाखों ईकाईयों में निर्मित किये जाने वाले खाद्य-उत्पादों के बारे में, मैं आपके सामने दो उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ :



1. हम अपने एक मित्र के साथ थे, हमारे मित्र पान खाने गए क्योंकि वो पान के बड़े शौक़ीन हैं। जैसे ही उन्होंने पान मुंह में डाला तत्काल ही उन्होंने पानवाले को यह कहते हुए कि " पेस्ट लगाया है क्या ? " थूक दिया, मेरे लिए यह नया अनुभव था, मैंने विक्रेता से पूछा कि पेस्ट क्या होता है ? उसने ज़ुबानी कोई जवाब देने की जगह मेरे सामने एक डिब्बी रख दी , उत्सुकतावश मैंने उस का निरीक्षण किया तो पाया कि अंदर भरा हुआ पदार्थ देखने में हुबहू पान में लगाये जाने वाले कत्थे जैसा था लेकिन उस डिब्बी पर अंगरेजी में लिखा हुआ था " Only for Industrial Dying/Tanning Use ( सिर्फ औद्योगिक रंगाई/चमड़ा पकाई के उपयोग हेतु ) " इसके अलावा ना तो उत्पाद के बारे में कोई जानकारी थी और ना ही उत्पादक के बारे में ! हालांकि प्रतिष्ठित और पीढ़ियों से चलती आ रही पान की दुकानें इसका इस्तेमाल नहीं करती पर आप भी कौन सा पान हमेशा एक ही जगह खाते हैं ?

2. हमारे यहाँ और गाँवों में लम्बी ट्यूबनुमा पैकेटों में शरबत को बर्फ जैसा जमाकर 'पेप्सी' के नाम से बेचा जाता है । इसमें पानी, सैकरीन, कृत्रिम रंग/सुगंध बस यह चार ही चीजें होती हैं, पेट संबंधित 70-75 % बीमारियाँ दूषित जल के कारण होती हैं ,इसके अलावा इसमें मिलाये जाने वाले अन्य तीन पदार्थ भी हानिकारक हैं । पिछले दिनों हमारे जिला मुख्यालय में एक यह पेप्सी बनाने वाली ईकाई पकड़ी गई जो कि नितांत अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में अवैध रूप से एक कबाडखाने के पीछे संचालित हो रही थी और यहाँ पाया गया कि पैकेटों में भरे जाने वाले घोल में मरी हुई मक्खियाँ अतरा रही थीं ।

दोनों ही चीजें धड़ल्ले से अभी भी बिक रही हैं । हमारे देश में नियम हैं, मानक हैं, कानून हैं पर उनका परिपालन कराने वाली एजेंसियों में ईमानदारी का घोर अभाव है; क्योंकि एक तो अमला ही जनसंख्या के हिसाब से अपर्याप्त है और दूसरा कारण है कि बंधे हुए हफ्ते या महीने से सबकुछ बनाने/बेचने का अधिकार प्राप्त हो जाता है । नाला/सीवर के मलजल में धोकर लाई हुई सब्जी भी किसी नूडल जितनी ही हानिकारक है पर क्या आप पहचान पायेंगे ?


चलते-चलते आपको बता दें कि 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' ( WHO ) द्वारा इस वर्ष ( ई. 2015 ) का 'विश्व स्वास्थ्य दिवस ' का विषय है 'खाद्य सुरक्षा (Food Safety)' अब अपने अमित को आज्ञा दीजिये, मेरे प्रणाम स्वीकार करें । 

चित्र साभार  :  MID DAY  



गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

रजनी : मैला आँचल


     अप्रैल के पूर्वार्द्ध में दो महान भारतीय साहित्यकारों की पुण्यतिथि होती है ; 08 अप्रैल को श्री बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय की और 11 अप्रैल को श्री फणीश्वरनाथ रेणु की, इन दोनों शब्द शिल्पियों को इन्हीं के रचनांश द्वारा मेरी विनम्र श्रद्धांजलि  :  
" शुष्क भूमि पर वृष्टि या जल पड़ने से क्यों न उसमें उत्पादन शक्ति आयेगी ? सूखी लकड़ी आग में डालने से वह क्यों न जलेगी ? रूप से हो, शब्द से हो, स्पर्श से हो - शून्य रमणी-हृदय में सुपुरुष के सस्पर्श होने से क्यों न प्रेम पैदा होगा ? देखो, अन्धकार में भी फूल खिलते हैं; मेघ से ढकें रहने पर भी चंद्र गगन में विहार करते ही हैं; जनशून्य अरण्य में भी कोयल बोलती है; जिस सागर गर्भ में मनुष्य कभी न जाएगा - वहाँ भी रत्न प्रकाशित होते ही हैं; अंधों के ह्रदय में भी प्रेम पैदा होता है; नयन बंद होने के कारण ह्रदय क्यों न प्रस्फुटित होगा ? "
 ( साभार - उपन्यास : रजनी ( तीसरा परिच्छेद ) / बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ) 
     'रजनी' बांग्ला का पहला मनो-विश्लेषणात्मक उपन्यास है; उपन्यास नायिकाप्रधान है, जिसमें नायिका अंधी है।





" बेचारा डाक्टर रंग भी नहीं देना जानता; हाथ में अबीर लेकर खड़ा है । मुँह देख रहा है, कहाँ लगावे !
"जरा अपना हाथ बढ़ाइए तो । "
"क्यों ? "
"हाथ पर गुलाल लगा दूँ ?"
"आप होली खेल रहे हैं या इंजेक्शन दे रहे हैं । चुटकी में अबीर लेकर ऐसे खड़े हैं मानो किसी की माँग में सिंदूर देना है !" कमली खिलखिलाकर हँसती है । रंगीन हँसी !
डाक्टर अबीर की पूरी झोली कमली पर उलट देता है । सिर पर लाल अबीर बिखर गया - मुँह पर, गालों पर और नाक पर । ...कहते हैं, सिंदूर लगाते समय जिस लड़की के नाक पर सिंदूर झड़कर गिरता है, वह अपने पति की बड़ी दुलारी होती है । ...
ऐसी मचायो होरी हो,
कनक भवन में श्याम मचायो होरी ! "


( साभार : मैला आँचल-24 / फणीश्वरनाथ रेणु )

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

नदियाँ गाती हैं....

    आज फेसबुक पर एक समूह में किसी ने प्रश्न किया कि " निर्माल्य को कैसे विसर्जित करूँ , जल में प्रवाहित करूँ या गड्ढा खोद कर दबा दूँ ? " उनकी इस पोस्ट पर मैंने अपने विचार टिप्पणियों के रूप में व्यक्त किये , जो कि यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ :

      निर्माल्य पर थोड़ा सा गंगाजल छिडकिये और उसे किसी साफ़ जगह ( खेत आदि ) में गड्ढा खोद कर दबा दीजिये ! आजकल बड़े-बड़े प्रसिद्ध मंदिरों में भी निर्माल्य से खाद बनाई जा रही है, इसमें कुछ भी गलत नहीं है बल्कि दो फायदे हैं ( 1 ) . जलस्त्रोत प्रदूषण से बचेंगे ( 2 ) पवित्र और प्राकृतिक खाद प्राप्त होगी |

      मैं आपको अपना एक अनुभव बताता हूँ , मैंने एक-दो बार एक सार्वजनिक दुर्गोत्सव में पूजन किया है, नवमी के दिन हवन के पश्चात स्थापित प्रतिमा का पूजन कर, जवारे अर्पित करके प्रतिमा पर गंगाजल छिडक के प्रतिमा को प्रतीकात्मक रूप से थोड़ा सा हिलाया जाता है, शास्त्रानुसार तो प्रतिमा का विसर्जन यही माना गया है।  निर्माल्य में जो भी होता है ( फूल, पत्र, अगरबत्ती, भस्म आदि ) वह सब का सब जैवअपघटनीय (Biodegradable) होता है , अगर वह हानिकारक या विषाक्त होता तो हम उसे अपने आराध्य की पूजा में उपयोग ही क्यों करते ? उन सब का अपघटन होकर वो कम्पोस्ट में परिवर्तित हो जाएगा जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बढायेगा ।



      वर्तमान में कल-कारखाने/बूचड़खाने हमारे पवित्र जलस्त्रोतों को प्रदूषित कर रहे हैं, किसी समय नदियाँ जरुर  गाती होंगी , आजकल तो उनकी बड़ी डरावनी सी आवाज़ सुनाई देती है कातर पुकार जैसी , हाँ, कोई समय रहा होगा जब नदियाँ पंचम स्वर में तान छेड़ती होंगी और हम पिल पड़े उन पर अपनी सारी गंद लेकर उनका सुरीला गला घोंटने को , बेचारी सहम गई फिर नदियाँ सकुचाते-सकुचाते नालियों में और कहीं-कहीं तो नदारदों में शुमार हो गई और हमारी आस्था से जुड़ी चीजों पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं,  लेकिन मेरा मानना है कि  जिस समय बुजुर्गों ने इन प्रक्रियाओं ( निर्माल्य के जल विसर्जन ) का गठन किया था उस समय जनसंख्या इतनी अधिक नहीं थी, कल-कारखाने नहीं थे, रसायनों का प्रयोग नहीं होता था, नदियाँ सतत प्रवाहशील थीं उन पर बाँध आदि नहीं बांधे गए थे ।

      अब अगर हम कुछ सकारात्मक कदम उठायें जैसे कि निर्माल्य आदि को नदियों में विसर्जित करना बंद कर दें तो हम और अधिक मजबूती से सरकार और दूसरे लोगों को इस बात के लिए मजबूर कर सकते हैं कि हमने तो इतना बड़ा कदम उठाया है अब इन औद्योगिक इकाइयों पर भी नकेल कसी जाए कि वो इन विषाक्त अवशिष्ट पदार्थों को जलस्त्रोतों में डालना बंद करें । 


सोमवार, 6 अप्रैल 2015

दुनिया : उल्टी या सीधी ?

मेरे निजस्वरूप आत्मन : 

अपने सिर को उठाते हुए अपनी पीठ की तरफ ले जाने की कोशिश कीजिये, इस स्थिति में आप ऊपर की ओर देखने लगेंगे, कुछ देर में ही आप असहज होने लगेंगे और एक या दो मिनिट में आपको दर्द भी अनुभव होगा ( अगर आप गर्दन, रीढ़, कमर की किसी समस्या से पीड़ित हैं तो कतई ऐंसा ना करें ), अब अपने सिर को सामान्य अवस्था में ले आइये और आगे पढ़िये :-

हम कुछ ही देर में इस अजीबो-गरीब दशा से परेशान हो गये ; जरा कल्पना तो कीजिये किसी ऐंसे शख्स की जिसका सिर पूरा उल्टा घूम के उसकी पीठ से चिपका हो, इसके साथ-साथ शरीर में कई जगह टेढ़ापन हो, हाथ-पैर अक्रिय हों । वो भी कोई थोड़े समय से नहीं पूरे 39 साल से, मैं बात कर रहा हूँ मोंटेसांतो, ब्राज़ील के रहने वाले  ' क्लाउडियो वियेरा डी ओलिवियेरा  ' उर्फ़ 'क्रिस्टो' की , क्लाउडियो का जब जन्म हुआ तो उनके परिजनों को बताया गया कि वो अधिकतम 24 घंटे ही जीवित रहेंगे ।


दरअसल क्लाउडियो 'आर्थ्रोग्रायिपोसिस मल्टीप्लेक्स कोन्जेनाइटा (Arthrogryposis multiplex congenita )' नाम की जन्मजात व्याधि के गंभीर शिकार हैं, इस बीमारी में जोड़ विकृत हो जाते हैं, उनके जोड़ इतने अधिक विकृत हैं कि वह व्हीलचेयर का प्रयोग भी नहीं कर सकते लेकिन इस सब के बावजूद क्लाउडियो ने जिंदगी की चुनौतियों को स्वीकार किया । वो बाकायदा योग्यताधारी लेखापाल हैं । प्रकृति ने उनको जो शरीर दिया है वो उसी के साथ प्रसन्न हैं, वो टी.व्ही देखते हैं, किताबें पढ़ते हैं, मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं, मुँह में पेन दबाकर और जीभ से कम्प्यूटर और इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं ।

जरा सोचिये कि हम, जिनके पास मनुष्य जन्म के रूप में प्रकृति का दिया हुआ अनमोल उपहार है वो इस तोहफ़े की उपेक्षा करने में लगे हुए हैं । क्या हुआ अगर कोई अनचाहा दुःख आ गया तो ? क्या हुआ अगर कुछ मनचाहा नहीं हुआ तो ? इस संसार में ऐंसा कोई नहीं जिसे कोई कष्ट ना हो ! डरते-भागते क्यों हैं ? योद्धा बनकर पूरी ताकत से मुक़ाबला कीजिये, ऐंसी कोई रात नहीं जिसकी सुबह ना हो ।

क्लाउडियो के जिंदगी को जीने के जज़्बे की दुनिया भर में तारीफ़ हो रही है, उनको संस्थानों में प्रेरक वक्ता के रूप में आमंत्रित किया जाता है । क्लाउडियो कहते हैं कि " मेरे लिए यह दुनिया उल्टी नहीं है बल्कि उल्टी दुनिया ही मेरे लिए सीधी है" वो आगे कहते हैं :- " हम सब यहाँ बहुत दिन नहीं रहेंगे लेकिन हमारे पास जितना भी समय है हमें उसका सकारात्मक उपयोग करना चाहिए " , कुछ दिनों पहले ही उन्होंने अपना जन्मदिन मनाया है । प्रिय क्लाउडियो, मैं आपको सैल्यूट करता हूँ , आप दीर्घायु हों और दुनिया को रोशन करते रहें । यह मेरे लिए गर्व की बात है कि मैं आपको फॉलो कर रहा हूँ ।

यह उनकी कुछ तस्वीरें हैं जिनमें से एक में वो स्वयं, एक में प्रेरक व्याख्यान देते हुए, एक में अपनी मित्र के साथ और एक में अपने परिवार के साथ हैं,....


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गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

बहारें फिर से आयेंगी

हमारे निजस्वरूप आत्मन : सादर जयहिंद,





कुछ दिनों पहले किसी ने कहा कि मैं 'अवसाद' पर कुछ लिखूँ , इस विषय पर कुछ कहूँ इसके पहले मैं आपको एक बात बताना चाहता हूँ । हमारे शरीर में एक प्रतिरक्षा प्रणाली होती है जो हमारे शरीर को रोगों से बचाती है । यह कैसे काम करती है ? मान लीजिये कि हमें कहीं घाव हो गया या कोई संक्रमण हो गया तो हमारे खून में मौजूद श्वेत रक्त कणिकाएँ ( WBC ) प्रभावित स्थान के इर्द-गिर्द जमा होकर बाह्य रोगकारकों से संघर्ष करती हैं । रोगाणुओं और श्वेत रक्त कणिकाओं की इस जंग में जो श्वेत रक्त कणिकाएँ मृत हो जाती हैं, वो मवाद बन जाती हैं; जिन्हें विभिन्न विधियों द्वारा शरीर से बाहर निकालना जरूरी हो जाता है वरना ये मृत कणिकाएँ, रोगाणुओं के लिए भोजन का काम करेंगी जिससे संक्रमण को और बढ़ने का मौका मिलेगा ।

अवसाद (Depression) भी तो एक मानसिक घाव या संक्रमण के समान ही है । जब हमें कोई महत्वपूर्ण मानसिक क्षति होती है मसलन किसी संबंध का टूट जाना या किसी महत्वपूर्ण लक्ष्य / इच्छा का पूरा ना हो पाना तो भावदशा में परिवर्तन के कारण हम अवसाद से घिर जाते हैं । ऊपर वाले मामले में जो काम श्वेत रक्त कणिकाएँ करती हैं, इस मामले में वही काम हमारे सकारात्मक संवेग ( विचारशीलता, सृजनशीलता, जुझारूपन आदि ) करते हैं; लेकिन अगर अवसाद प्रबल है तो यहाँ भी वही खेल होता है कि यह नकारात्मक संवेगों ( चिंता, कुंठा, विचारशून्यता आदि ) में परिवर्तित हो जाते हैं जो अवसाद की कंटीली बेल के लिये खाद-पानी का काम करते हैं ।

और जब मामला इतना मिलता-जुलता है तो हमें यहाँ भी वही विधि अपनानी होगी । इस अवसाद को नश्तर लगाना पड़ेगा जिससे इसका मवाद बाहर निकल जाए, अवसादरूपी घाव सूख जाए और नश्तर कैसा ? नश्तर है प्रार्थना का, आत्ममंथन का, अपनी क्षमता को पहचानने का , 'महावीर स्वामी' कहते हैं : 
" तू आत्मा के साथ ही युद्ध कर। बाहरी शत्रुओं के साथ किसलिए लड़ता है? आत्मा द्वारा ही आत्मा को जीतने से सच्चा सुख मिलता है। "  -  यकीन मानिये संक्रमण समाप्त हो जायेगा ।

फूल फिर खिलेंगे, तितलियाँ फिर गायेंगी 
थोड़ा सा धीर धरो, बहारें फिर से आयेंगी !

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चित्र साभार : गूगल छवियाँ 


सोमवार, 2 मार्च 2015

गुलकंदी गोले

मेरे प्रिय आत्मन,

     कतिपय कारणों के चलते साल के दो माह बीत चुकने पर भी आपसे कुछ बात नहीं कर पाया । जब हम डॉक्टरी पढ़ा करते थे तो टिफिन का खाना पसंद नहीं आता था , माँ के हाथ के खाने की याद आती थी, इस चक्कर में कई बार भूखे ही रह जाते थे तो छुट्टियों में जब भी आते माँ से पाककला सीखते, दोस्तों को बनाकर खिलाया तो उनको भी पसंद आया, बल्कि वो बाकायदा कुछ ना कुछ बनाने की फरमाइश करने लगे, इस तरह यह पकाने-खिलाने और खाने का शौक परवान चढ़ता गया । वैसे खाने से ज्यादा मजा खिलाने में आता है इसमें कोई शक नहीं  है । 

     अब जबकि ऋतुराज वसंत पधार चुके हैं और अपने अभिन्न मित्र  मदनोत्सव को आमंत्रित करने ही वाले हैं तो कुछ मीठा हो जाये  इसलिए पेश है दोस्तो सिर्फ आपके लिए ' गुलकंदी गोले ' ( तकनीकी रूप से लड्डू ही हैं ) ! अगर इसके पहले आपने इनको देखा,सुना और चखा न हो तो अपने इस दोस्त को ही इनका आविष्कारक मान लीजिये, खैर ....क्रेडिट हमें मिले या किसी और को लेकिन बनाइयेगा जरुर, खिलाईयेगा जरुर और खाइयेगा जरुर......


गुलकंदी गोले

इसको बनाने के लिए आपको चाहिए :-

1. कंडेसड मिल्क ( मिठाईमेट या मिल्कमेड ) - 400 ग्रा.
2. नारियल का बूरा - 350 ग्रा. 
3. गुलकंद - 200 ग्रा. 
4. हरी इलायची ( पिसी हुई ) - एक छोटा चम्मच 

इसको ऐंसे बनाये :- 

1. एक गहरे बर्तन ( जैसे कड़ाही ) में पूरा कंडेसड मिल्क और 300 ग्रा. नारियल का बूरा अच्छे से मिक्स करें ( 50 ग्रा. नारियल-बूरा गोले रोल करने के लिए अलग बचा कर रखें ) , जब मिक्स हो जाए तो धीमी आंच पर लगातार चलाते हुए दो मिनिट के लिए इसे गर्म करें | 

2. जब मिश्रण ठंडा हो जाए तो इसमें इलायची मिक्स करें और हाथों में थोड़ा सा घी लगाकर इसमें से एक निम्बू के जितनी लोई तोड़ें उसे चपटा करके थोड़ा फैला लें और बीचोंबीच एक छोटा चम्मच गुलकंद रखें | 

3. किनारों को आपस में मिलाते हुए इसे गोल-गोल लड्डू की शक्ल दें और बचे हुए नारियल के बूरे में इसे रोल करें | सारे लड्डू इसी तरह बना लें | 

हमारे गुलकंदी गोले तैयार हैं !

विशेष :- इन गुलकंदी गोलों का मज़ा अकेले खाने में नहीं है, घर-परिवार , यार-दोस्तों के साथ ही खायें !!

अब अपने अमित को आज्ञा दीजिये, मेरे प्रणाम स्वीकार करें ।