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बुधवार, 27 नवंबर 2013

पदार्पण

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मेरे प्रिय आत्मन,

और कुछ भी होने के पूर्व मैं एक चिदात्मा हूँ, जिसे परमपिता परमेश्वर ने स्वयं अपने कर-कमलों से बनाया है, और उसका ये वचन है कि मैं कभी नष्ट नहीं हो सकता,इस प्रकार मैं उसकी एक अद्वितीय रचना हूँ, और ईश्वर से मेरा निकटतम परिचय है, इतना समीपतम कि हम दोनों एक दूसरे में समाये हुये हैं. वो मुझ पर क्रोध करे इसका कोई कारण ही नहीं है, भला अपने ही बनाये चित्र पर क्रोध करता है कोई ?? मैंने उसको बस एक ही रूप में देखा है एक स्मित मुस्कान के साथ, सजल नयनों से मेरी और बाहें पसारे हुये, तो जब मैं उस के सामने घोषणा करता हूँ कि “अहं ब्रह्मास्मि “ तब वह हौले से मेरे गालों को छूकर कहता है “ तत्वमसि “, मैं उसका ही अक्स तो हूँ | इतनी अंतरंगता है कि दर्पण भी नहीं देखना पड़ता | एक नत दृष्टि ही ह्रदय में हो रहे प्रत्येक स्पंदन में उसका आभास करा देती है :
हे मेरे सृजक, मैं ही तुम हूँ और तुम ही मैं और हम दोनों ने ही तो मिलकर कहा है :-

“ आत्मनेsस्तु नमो मह्यमविछिन्नचिदात्मने |
परामृष्टोsस्मी लब्धोsस्मी प्रोदितोsस्मयचिरादहम् |
उध्रतोsस्मी विक्ल्पेभ्यो योsस्मी सोsस्मी नमोsस्तु ते ||३१||
तुभ्यं मह्यमन्न्ताय मह्यम तुभ्यं चिदात्मने |
नमस्तुभ्यं परेशाय नमो मह्यम शिवाय च ||३२|| “ ( संन्यासोपनिषत )

मुझ अविछिन्न आत्म को नमस्कार है , नमस्कार है मुझ सदा शाश्वत, सदा लब्ध, सनातन उदित मुझ को, मुझ चिर आत्मा को, मुझ विकल्पों से परे को नमस्कार है, तू और मैं दोनों अनंत हैं, तू और मैं दोनों चिदात्मन हैं, हम् दोनों को नमस्कार है, मुझ शिव रूप को नमस्कार है ||३१,३२|| ( संन्यासोपनिषत )

Salutation, salutation to myself alone who am present in all other beings and consist of consciousness free from (the restriction of) an object to be known and am of the form of the individual Self consciousness ||31, 32|| ( Sannyasa Upanishad )

|| ओउम सर्वेषां सुशान्तिर्भवतु ||