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सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

एक आँखो देखी त्रासना 498अ की



 किसी कारणवश अदालत जाना हुआ और वहाँ एक झकझोर देने वाला दृश्य देखा। हम कोर्टरूम के बाहर बनी हुई पत्थर की बेंच पर बैठे हुए थे। बाजू वाली बेंच पर एक सजी-सँवरी विवाहित युवती बैठी हुई थी, जो अपने साथ के एक दम्पत्ति से बहुत प्रसन्नता से बात कर रही थी। जिन्हें वह भैया-भाभी पुकार रही थी।

इसी समय न्यायालय परिसर के मुख्यद्वार से पुलिस के साथ एक पुरुष, एक अधेड़ महिला-पुरुष और व्हीलचेयर पर एक अतिवृद्ध महिला को आते देखा, अकारण ही मेरी निगाह बाजू वाली बेंच पर घूमी तो पाया कि ननद और भैया-भाभी, आगंतुकों को आग्नेय नेत्रों से घूर रहे थे।




पुलिस इन्हें लेकर कोर्ट में चली गई, चूँकि हमारी बेंच दरवाजे सामने ही थी तो हमने देखा कि इन सबको पुलिस ने आरोपियों वाले कटघरे में खड़ा कर दिया अब हमारा ध्यान सबसे ज्यादा उस अतिवृद्धा ने आकर्षित किया, वो दादी अम्मा करीब 80-85 की उम्र की थीं, आँखों पर चश्मा और इतनी असहाय कि वो अपने मुँह से बहने वाली लार को भी नहीं पोंछ पा रही थीं। जो उनके कपड़ों को भिगो रही थी।

तभी चपरासी ने एक महिला नाम की पुकार लगाई और सजी-सँवरी विवाहित युवती जो अभी तक अपनी हँसी से पूरा गलियारा गुलज़ार किये हुए थी, अपनी आँखों पर रूमाल रख के उठी, कोर्ट के दरवाज़े तक पहुँचते-पहुँचते तो वो बाकायदा सुबकने भी लगी थी।

भैया का तो पता नहीं पर भाभी जरुर हमें, अपनी ननद की दहेज प्रताड़ना से शिक्षा प्राप्त करती हुई दिखी। कब्र में पाँव लटकाए वह बुजुर्ग महिला जरुर ही भयंकर राक्षसी होगी..........

छायाचित्र : साभार www.abc.net.au


सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

भारतीय बुद्धिजीवियों की भूख

" भारतीय बुद्धिजीवियों का भूख से उभरा ज्ञान देश को विनाश की ओर उन्मुख कर रहा है। "  - पॉल थरु (अमेरिकन यात्रालेखक/उपन्यासकार)

यह बात 1970 के दशक में कही गई थी। हमारे बुद्धिजीवियों ने अपनी 'चर्चा में बने रहने की भूख' से समाज को वास्तविक मुद्दों से भटका दिया है। वो अपने पुरुस्कार लौटा रहे हैं, यह उनके विरोध दर्ज कराने का एक तरीका है जिसका मैं सम्मान करता हूँ। लेकिन पूरे घटनाक्रम पर नज़र डालें तो क्या ऐसा नहीं लगता कि हमारे प्रतिष्ठित साहित्यकार/बुद्धिजीवियों के पास (स्व) चयनित मुद्दे हैं जिनका वो समर्थन या विरोध करते हैं, इतना होता तो भी ठीक था पर एक जैसे मुद्दों पर ही धर्म/जाति/सम्प्रदाय के आधार पर उनकी प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है। हाल ही में तसलीमा नसरीन ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है- " ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष लोग मुस्लिम समर्थक और हिन्दू विरोधी हैं। वे हिंदू कट्टरपंथियों के कामों की तो आलोचना करते हैं और मुस्लिम कट्टरपंथियों के घृणित कामों का बचाव करते हैं। "



कट्टरपंथ निश्चित ही किसी आधुनिकता और मानवीयता को अपनाने वाले समाज,राष्ट्र के लिए घातक है। नसरीन ने बड़ी बेबाकी से कहा कि जब वो विभिन्न कट्टरपंथियों द्वारा प्रताड़ित की जा रही थी तब हमारे यह स्वनामधन्य लेखकगण मौन थे, बल्कि 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का दम भरने वाले दो लेखकों ( जो खुद साहित्य अकादमी पुरूस्कार प्राप्त हैं ) ने तो उनकी किताब को प्रतिबंधित कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आईना देख लिया करिएगा साहब।

अगर हमारे साहित्यकारों/बुद्धिजीवियों की अक्ल इतनी कुंद हो गई है कि उनको सही मुद्दे/विषय सूझते ही नहीं, तो मैं आपकी मदद करता हूँ। बशर्ते आप अपने लिजलिजा चुके स्वविवेक को खूंटी पर टांग दे। हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है "राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा" स्वतंत्रता के बाद से आजतक इस पर अमल ना कर पाने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने अभी-अभी नाखुशी भी जाहिर की है। प्रो.हरबंश दीक्षित (संविधान विशेषज्ञ) इस संदर्भ में लिखते हैं- "आधुनिक सोच का लाभ केवल हिंदुओं तक ही सीमित न रहे और वह दूसरे मतावलम्बियों को भी हासिल हो”  

वर्तमान सत्ताधारी दल का भी यह एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा था। साहित्यकार/बुद्धिजीवीसिविल सोसाईटी का असरदार प्रतिनिधित्व करते हैं। आप सब मिलकर घेरिये सरकार को कि वह समान सिविल संहिता जल्द से जल्द लागू करे, बनाइए दबाव, लौटाइये सम्मान/पुरूस्कार। पर शायद यह आपको माफिक नहीं आएगा क्योंकि इससे आपकी (चयनित) धर्मनिरपेक्षता की भावना को गहरा आघात पहुँचता है।

" अब क़यामत से क्या डरे कोई
अब क़यामत तो रोज आती है " - ख़ुमार बाराबंकवी  


सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

जयप्रकाश



"महापुरुष सिर्फ बड़ा आदमी नहीं होता, एक प्रतीक होता है--किसी महान उद्देश्य का, किसी महान कर्म का। लक्ष-लक्ष मानव मन की आशायें, आकांक्षायें ही एकत्र होकर एक महापुरुष का रूप धारण करती हैं ! ऐसे महान पुरुषों का वंदन-अभिनंदन व्यक्तिपूजा नहीं, आदर्शपूजा है और उसके कार्यों में हाथ बंटाने की चेष्टा पुनीत महायज्ञ। यज्ञाग्नि प्रज्जवलित है, उसमें अपनी समिधा डालो। " - रामवृक्ष बेनीपुरी

पिछले सौ सालों के जिन व्यक्तित्वों से प्रभावित हुआ हूँ , 'लोकनायक जयप्रकाश नारायण' उनमें से एक हैं। इस गांधीवादी आदमी की सम्पूर्ण क्रांति इस भारतवर्ष के सभी पहलुओं को समावेष्टित करती है। लोकनायक ने कहा कि "सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल है - राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति। इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रान्ति होती है।"

उनका साफ कहना था कि इंदिरा सरकार को गिरना ही होगा। तब श्रीमती इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की आधी रात में राष्‍ट्रीय आपातकाल घोषित किया जिसके बाद लोक नायक जय प्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर लिया गया था और चंडीगढ़ में बंदी बनाकर रखा गया था।




तब दिल्ली के रामलीला मैदान में एक लाख से अधिक लोगों ने जय प्रकाश नारायण की गिरफ्तारी के खिलाफ हुंकार भरी थी। उस समय आकाश में सिर्फ उनकी ही आवाज सुनाई देती थी। उसी वक्त राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' ने कहा था 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।' 'दिनकर' ने  कहा  :-  

 " कहते हैं उसको "जयप्रकाश"
जो नहीं मरण से डरता है,
ज्वाला को बुझते देख, कुण्ड में
स्वयं कूद जो पड़ता है।

है "जयप्रकाश" वह जो न कभी
सीमित रह सकता घेरे में,
अपनी मशाल जो जला
बाँटता फिरता ज्योति अँधेरे में। "    रामधारी सिंह 'दिनकर'


यह संयोग ही है कि आज से आगामी सप्ताह में जेपी का जन्मदिवस और पुण्यतिथि दोनों ही हैं ।

थोड़ा-थोड़ा करके तो जेपी को जाना ही है, पर आज से पहले 'दियारा सिताब' के इस नक्षत्र के बारे में कोई प्रामाणिक किताब मेरे पास मौजूद ना थी। आज तीन किताबें खोजी हैं जिनमें से एक का जिक्र यहाँ जरुर करना चाहूँगा वो है 'श्री रामवृक्ष बेनीपुरी' की 'जयप्रकाश' , अगर आजादी के समय तक के जेपी के बारे में आप जानना चाहते हैं तो यह किताब आपको नि:शुल्क उपलब्ध करवाने में मुझे आत्मीय संतोष होगा। समाज-परिवर्तन के कंटकाकीर्ण मार्ग की अभिव्यक्ति उन्हीं के शब्दों में :-

" सफलता और विफलता की/ परिभाषायें भिन्न हैं मेरी,
इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व बन नहीं सकता था प्रधानमंत्री क्या ?
किन्तु मुझ क्रांतिशोधक के लिए कुछ अन्य ही पथ मान्य थे,उद्दिष्ट थे
पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के/ पथ संघर्ष संपूर्ण क्रांति के । " - जयप्रकाश नारायण