expr:class='"loading" + data:blog.mobileClass'>

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

किताबें और कॉपीराइट

  23 अप्रैल  : विश्व पुस्तक व लिप्याधिकार दिवस 



" मैं चाहता हूँ मिट्टी,आग, रोटी, शक्कर,गेहूं, समुद्र, किताबें और जमीन सभी मनुष्यों के लिये "  पाब्लो नेरूदा 

     किताबों की दुनिया बड़ी रोचक और निराली है । ये ज्ञान विज्ञान के खज़ाने हैं । इतिहास और समाज के आईने हैं ।  पुस्तकें तरह तरह की जानकारियाँ देकर हमारे जीवन को समृद्ध बनाती हैं । यह हमें इस लायक बनाती हैं कि हम अपने पैरों पर खड़े हो पाएं और समाज को एक नई दिशा दे सकें । हमारे देश में शुरू से ही ग्रंथों का बड़ा महत्व रहा है । लेखन की भरपूर परम्परा रही है । शुरुआती दौर में किताबें भोजपत्रों, ताड़पत्रों आदि पर हाथ से लिखी जाती थीं , एक से अधिक प्रतियाँ बनाने के लिए भी इसी विधि का प्रयोग किया जाता था । धीरे-धीरे प्रिंटिग प्रेस के आविष्कार के साथ ही पुस्तकों का मुद्रण होना और भी सुगम हो गया । यह कहना गलत न होगा कि किताबों ने लोगों में पढ़ने के लिए ललक जगाई , कहते हैं कि बाबू देवकीनन्दन खत्री द्वारा लिखी गई चन्द्रकान्ता पढ़ने के लिए बहुत से लोगों ने हिन्दी सीखी । 

     संयुक्त राष्ट्र ने 23 अप्रैल को  विश्व पुस्तक व लिप्याधिकार दिवस घोषित किया हुआ है । यह दिन चुने जाने का कारण है कि इस दिन सर्वेन्तीस, शेक्सपीयर और इन्का गार्सिलसो  जैसे लेखकों की पुण्यतिथि है । संयोग यह है कि यह तीनों  प्रसिद्ध लेखक 1616 ई. में इस  ही दिन स्वर्गवासी हुए थे ।  एक दूसरा कारण यह है कि  मौरिस द्रुओं, लक्सनेस, व्लादिमीर नाबोकोव, जोसेप प्ला, और मेनुअल वॉलेजो  जैसे लेखकों की जन्म या पुण्यतिथि भी इसी दिन पड़ती है । यूनेस्को की महानिदेशक श्रीमती इरीना बोकोवा का इस दिन के बारे में कहना है : 
"हमारा उद्देश्य स्पष्ट है - लेखकों और कलाकारों को प्रोत्साहित करना और यह सुनिश्चित करना कि अधिक से अधिक महिलाएं और पुरुष साक्षरता से लाभ उठा सकें, क्योंकि पुस्तकें गरीबी हटाने और शांति स्थापित करने में सबसे सशक्त बल हैं "- इरीना बोकोवा
     यूनेस्को प्रत्येक वर्ष एक विश्व पुस्तक राजधानी का भी चयन करता है । इस वर्ष की  विश्व पुस्तक राजधानी  नाइजीरिया का पोर्ट हारकोर्ट ( Port Harcourt ) शहर है ।

     हमारे देश में भी पुस्तक प्रोन्नयन एवं लोगों में पढ़ने की आदत को बढ़ावा देने हेतु सन् 1957 में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ( National Book Trust ) नाम से भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीनस्थ एक शीर्षस्थ संस्था स्थापित की गई । प्रकाशन न्यास की एक प्रमुख गतिविधि है। यह बच्चों के लिए विभिन्न प्रकार की सचित्र पुस्तकों समेत, समाज के सभी तबकों और आयु वर्गों के पाठकों के लिए विभिन्न प्रकार की पुस्तकें प्रकाशित करता है जिसका विस्तार कथा साहित्य, चिकित्सा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर उच्च गुणवत्ता की सामग्री के प्रकाशन तक है। बीते वर्षों में न्यास दृष्टि-अक्षम एवं नवसाक्षरों के लिए विभिन्न प्रकार की पुस्तकों का प्रकाशन भी करता रहा है।

     न्यास अँग्रेज़ी समेत 18 प्रमुख भारतीय भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित करता है जिनमें असमिया, बांग्ला, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, मराठी, नेपाली, ओडि़या, पंजाबी, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। इनके अतिरिक्त, न्यास ने आओ, नगा, भोजपुरी, हिमाचली,कोकबोरक, खासी, गारो, लेपचा,भुटिया, मिसिंग, लिंबू, मिजो, नेवारी, बोडो आदि में भी पुस्तकें प्रकाशित की हैं।

     लोगों में पढ़ने के प्रति ललक तो है फिर भी सूचना क्रांति के इस समय में किताबें अब कुछ दूर सी होती जा रही हैं । लेकिन इंटरनेट , टी. व्ही.  ही इसका कारण नहीं है । अच्छी किताबें लगातार महंगी होती जा रही हैं, हिन्दी की किताबें भी महंगाई की शिकार हैं । किताबों के प्रकाशन को लेकर किसी पारदर्शी नीति का अभाव इसकी वजह है । इसका नतीजा यह होता है कि पाठकों तक मनचाही किताबें नहीं पहुँच पाती हैं । आजकल प्रकाशक जिस तरह से मूल्य बढ़ा-चढ़ा कर रखते हैं वैसे में सामान्य पाठक की स्थिति ऐंसी नहीं होती कि वह उन्हें खरीद सके । वह पुस्तकें खरीदना चाहता है लेकिन अलमारी सजाने के लिए नहीं बल्कि पढ़ने के लिए । 




     हमारे देश में सार्वजनिक पुस्तकालयों का नितांत अभाव है । महानगरों को छोड़ दिया जाए तो मझोले शहरों में भी पुस्तकालय दुर्लभ हैं , कस्बों और गाँवों की तो बात ही मत कीजिये यहाँ तो अभी पुस्तकालयों का  "क ख ग.… " भी शुरू नहीं हुआ है । बड़े शहरों में जो पुस्तकालय हैं उनमें भी उन पुस्तकों की अनुपलब्धता रहती है जो कि पाठक पढ़ना चाहते हैं । कहा जाता है कि प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय में तीन महान पुस्तकालय थे- रत्नोदधि,रत्नसागर और रत्नरंजक। इनके भवनों की ऊँचाई का वर्णन करते हुए युवानच्वांग ने लिखा है कि 

' इनकी सतमंजिली अटारियों के शिखर बादलों से भी अधिक ऊँचे थे और इन पर प्रातःकाल की हिम जम जाया करती थी। इनके झरोखों में से सूर्य का सतरंगा प्रकाश अन्दर आकर वातावरण को सुंदर बनाता था। इन पुस्तकालयों में सहस्त्रों हस्तलिखित ग्रंथ थे। '

इनमें से अनेकों की प्रतिलिपियां युवानच्वांग ने की थी। जैन ग्रंथ सूत्रकृतांग में नालंदा के हस्तियान नामक सुंदर उद्यान का वर्णन है। बख्तियार ख़िलजी के आक्रमण ने नालंदा को भी प्रकोप का शिकार बनाया । यहाँ के सभी भिक्षुओं को आक्रांताओं ने मौत के घाट उतार दिया।उसने नालंदा के जगत प्रसिद्ध पुस्तकालयों को जला कर भस्मसात कर दिया और यहाँ की सतमंजिली, भव्य इमारतों और सुंदर भवनों को नष्ट-भ्रष्ट करके खंडहर बना दिया।

     अब हम थोड़ी सी चर्चा करते हैं  "लिप्याधिकार" या  "कॉपीराइट " की हमारे देश में कॉपीराइट और इससे संबंधित व्‍यापक कानून है कॉपीराइट अधिनियम, 1957 । इस अधिनियम के अनुसार, शब्‍द 'कॉपीराइट' का अर्थ है कोई कार्य को करने या उसका पर्याप्‍त भाग करने या प्राधिकृत करने का एकमात्र अधिकार। अगर आप इसके बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं तो क्लिक करें- कॉपीराइट के संबंध में विस्तृत जानकारी, लेकिन किसी कृति का कॉपीराइट होना यह सुनिश्चित नहीं करता कि अब उस की चोरी नहीं होगी ।  यह मात्र इस बात को सिद्ध करता है कि संबंधित रचना पर कॉपीराइटधारक का अधिकार है , लेकिन अगर धारक अपनी किसी कृति/रचना की चोरी या छेडखानी के विरुद्द कोई संज्ञान लेता तो कानूनन यह मददगार होगा अन्यथा  बेमानी है । 

     चलते-चलते आपको बता दें कि दुनिया की सबसे महँगी किताब है लियोनार्डो द विंसी की लिखी 'द कोडेक्स लिसेस्टर' 72 पेज की यह किताब बिल गेट्स ने 30,802,500 डॉलर में खरीदी जिसकी कीमत भारतीय मुद्रा में लगभग 1 अरब 70 करोड़ रूपये होती है । और हमारे देश की सबसे महँगी किताब है ओपस जिसे ऑटोमोबाइल कम्पनी फरारी ने प्रकाशित किया है इसकी कीमत है डेढ़ करोड़ रूपये । यह भी कह दें कि किताबें पढ़िए और अगर आपने अभी शुरुआत न कि हो तो उपहार के रूप में पुस्तकें भेंट करने के बारे में गम्भीरता पूर्वक विचार अवश्य कीजियेगा | एक बार आपको फिर याद दिला दें कि मुझे आपके अमूल्य सुझावों की बहुत जरूरत है , उम्मीद है आप मुझे इनसे नवाजेंगे । तब तक के लिए आज्ञा दीजिये , अमित के प्रणाम स्वीकार करें __/\__

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

कैसे हो द्वारकाधीश

भारत दर्शन : कैसे हो द्वारकाधीश  

|| झाँकी हिंदुस्तान की :- इस श्रंखला की चौथी पाती ||

इससे पूर्ववर्ती पाती के लियें देखें : झांकी हिंदुस्तान की - जागो मोहन प्यारे

ब्लॉग के आलेखों को पढने की सुविधा हेतु उनको विषयवार टेब्स ( Tabs) में व्यवस्थित किया गया है प्रकाशित  सभी चिट्ठों को आप  'मुखपृष्ठ : शुभ स्वागतमके अतिरिक्त उनके  टेब्स ( Tabs) पर भी क्लिक करके विषयवार पढ़ सकते हैं । उदाहरण : यथा आप इस लेख और इस विषय ( यात्रा ) पर आधारित लेखों को " पथ की पहचान" टेब्स ( Tabs)  में भी  पढ़ सकते हैं धन्यवाद ) 

:::-   आपको एक बार और याद दिला दें कि  मैंने ब्लॉग में कुछ उन्नयन किया है ,  4 नये फीचर्स जोड़े गये हैं | जो इस बात को ध्यान में रखते हुये शामिल किये गये हैं कि हम में से लगभग सभी फेसबुक ( facebook) का उपयोग करते हैं , इन 4 में से 3 फीचर  आप ब्लॉग में दायीं तरफ मेरे फेसबुक बैज के ऊपर और नीचे देख सकते हैं जो कि क्रमश: इस प्रकार हैं :-  (1)  Like – इसको क्लिक करके आप मेरे इस ब्लॉग को अपनी पसंदीदा सूची में जोड़ सकते हैं ,  (2) Share – इसका उपयोग कर आप मेरे ब्लॉग को साझा कर सकते हैं ,  (3) Follow – इस बटन को क्लिक करके आप मुझे फेसबुक पर फ़ॉलो कर सकते हैं और मेरी विभिन्न पोस्ट की जानकारी अपने आप पा सकते हैं , चौथा फीचर जो कि पेज पर सबसे नीचे है,  वो है  (4) Comment – अब आप मेरे लेखों पर अपने  फेसबुक खाते से ही सीधे  टिप्पणी कर सकते हैं | उम्मीद है यह नये परिवर्तन आपको रुचिकर लगेंगे |  धन्यवाद     -:::   


गतांक से आगे :- 
                 
                     क्षमाप्रार्थी हूँ कि इस श्रंखला की यह चौथी पाती प्रस्तुत करने में मामूली से अधिक देर हो गई, आशा है आपने इस बीच ब्लॉग पर प्रकाशित अन्य आलेखों का आनन्द लिया होगा । मैं अपनी बात शुरू करूँ उससे पहले आपको आज की पाती के शीर्षक के संबंध में कुछ बता देना चाहता हूँ , जैसा कि मैंने अपनी पिछली पाती में कहा था कि इस शीर्षक से जुडा हुआ एक बड़ा ही सुंदर , रोचक आख्यान भी है । तो लीजिये क्यों न हम अपनी यात्रा प्रारम्भ करें उसके पहले यह प्रसंग पढ़ लिया जाये , इसे आप यहाँ पर पढ़ सकते हैं :-कैसे हो द्वारकाधीश , आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आपने इस कथा के मर्म को आत्मसात किया होगा । 

      दि. 19 नवम्बर 2009 , दिन : गुरूवार ::-  बस की विंड-स्क्रीन पर उनके क्रमांक लिखे हुये थे , अपने लिए निर्धारित क्रमांक की बस में सवार हो गये जो कि अब हमें हमारे अगले पड़ाव यानि एक धर्मशाला ले जाने वाली थी , जहाँ पर हमारे स्नान और भोजनादि का प्रबंध था । प्रत्येक बस में एक केयरटेकर भी था जो कि गाडी के कर्मीदल का ही सदस्य था। सप्तपुरियों और चार धामों में से एक द्वारका के मार्गों से होते हुये हम पहुंचे उस धर्मशाला जो कि हमारा अल्पकालीन पड़ाव था , इस का नाम था  "परम पूज्य संत श्री कानदास बापू आश्रम, द्वारका" , यह आश्रम जामनगर रोड पर है । यह पहले-पहल मौका था जब हम अपने सभी सहयात्रियों के साथ रेल से कहीं बाहर आये थे , और हमने यह अनुभव किया कि हम सब जो लगभग 10 बसों से वहाँ पहुँचे थे , जब एक साथ कहीं जाते हैं तो स्वत: वहाँ भीड़ हो जाती है ।

     इस जगह पर भी इतने लोगों के हिसाब से शौचालय और स्नानघर पर्याप्त नहीं थे । पर जितने भी थे स्वच्छ और व्यवस्थित थे । लेकिन हमारे साथ फिर वही समस्या हो गयी कि अगर हम जलदबाज़ी करें तो शिष्टाचार का उल्लंघन होता और प्रतीक्षा करें तो काफ़ी समय गुजारना पड़ता क्योंकि जैसा कि आप जानते हैं हमारे सहयात्रियों में बुजुर्गों के साथ-साथ महिलायें भी काफ़ी थी । फिर भी हमने इंतजार करने का ही निर्णय लिया, चूँकि सब पहली-पहली बार ही हो रहा था तो हम इन अनुभवों को महसूस करते हुये इनके समाधान पर भी विचार कर रहे थे ।


अंकित, कानदास बापू आश्रम के मुख्य द्वार के समीप  

     मैं और अंकित यही सोचते हुए आश्रम से बाहर आ गये , समुद्रतटीय इलाका होने से यहाँ आभास भी नहीं हो रहा था कि यह ठण्ड का मौसम है । बाहर आये तो कुछ स्थानीय निवासी पर परम्परागत वेशभूषा में मिले हमें जो हमारे बारे में जानने को उत्सुक थे , अब वो जो भाषा बोल रहे थे वो आधी-अधूरी ही हमारी समझ में आ रही थी , फिर भी हमने जैसे-तैसे उनको अपने बारे में बता दिया । उनके व्यक्तित्व और पहनावे ने हमें प्रभावित किया और हम लोगों की जाने किस चीज ने उनको प्रभावित किया ,  तो सोचा कि एक छायाचित्र तो ले ही लिया जाये  जिसके लिये वो सहर्ष तैयार हो गये ।  एक ने तो बाकायदा वो बीड़ी जो हाथों में दबी हुई थी , उसको मुंह से लगाते हुये फरमाइश रखी कि जब मैं कश लूँ तभी फोटो लेना । हालांकि बीड़ी का धूँआ  तकलीफ़देह था फिर भी मौके की नज़ाकत को समझते हुये हमने कुछ नहीं कहा ।



     इस सब से फुरसत हो कर अंदर झाँकने गये तो लगा कि अब हमारे स्नान की व्यवस्था हो जायेगी । स्नानादि से निवृत हुये तो आश्रम के ही एक हाल में दोपहर के भोजन का प्रबंध था , यहाँ आपको बताते चलें कि जब कहीं भी दोपहर या रात्रि के भोजन का प्रबंध ट्रेन  से बाहर होता था तब भी भोजन , रेलगाड़ी के रसोई यान से ही पकाकर और पैक करके निश्चित स्थान तक लाया जाता था । परोसने के लिए अतिरिक्त भोजन बड़े  पात्रों में लाया जाता था । भोजन करने के बाद हमें आश्रम छोड़ना था , इसलिये सब अपने कपड़े, सामान बटोरकर अपनी अपनी बस की ओर चल पड़े । बहुतों से अपने कपड़े धो भी डाले थे तो वह भीगे हुये कपड़े बसों की खिडकियों पर सुसज्जित हुये अब यहाँ एक मज़ेदार घटना हुई, वो क्या थी ये आपको पाती के अंत में बताऊंगा ।

     अब हम पहुंचे  'श्री नागेश्वर' द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं  'श्री नागेश्वर' , यह ज्योतिर्लिंग द्वारका से लगभग 27 कि. मी. की दूरी पर स्थित है , हमें तो द्वारका-पुरी के भ्रमण के लिये आवागमन की कोई व्यवस्था अलग से नहीं करना पड़ी, लेकिन जिनको ऐंसी आवश्यकता हो, वह आसानी से द्वारका-दर्शन के लिये बस प्राप्त कर सकते हैं जो लगातार उपलब्ध हैं | ऐंसी बहुत सी पर्यटक बसें हमने 'श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर ' के प्रांगण में देखी | हम जब यहाँ पहुंचे थे उन दिनों कोई उत्सव नहीं था  इसलिये बहुत अधिक भीड़भाड़ नहीं थी | हमने बहुत ही आनंदपूर्वक भगवान भूतपावन नागेश्वर ( कहीं-कहीं इन्हें नागनाथ भी कहा जाता है ) का दर्शन लाभ प्राप्त किया | उत्तर भारत के देव-स्थानों की अपेक्षा यहाँ पर व्यवस्था अच्छी थी | मन्दिर परिसर , व गर्भगृह में भी स्वच्छता व व्यवस्था का स्तर उत्तम था । हमने भी भगवान नागेश्वर महादेव के दर्शन किये और प्रभु को धन्यवाद प्रेषित किया ।
श्री नागेशं दारुकावन 
भगवान शिव की मुक्ताकाशी प्रतिमा
     मन्दिर परिसर में भगवान शिव की एक मुक्ताकाशी विशाल प्रतिमा भी है , जो कि अभी कुछ समय पहले ही निर्मित की गई है ।  बहुधा दक्षिण के शिल्पकारों द्वारा निर्मित शिव जी की यह प्रतिमाएं आप भारत के बहुत से हिस्सों में देख सकते हैं । इन प्रतिमाओं का शिल्पकौशल भी लगभग समान ही होता है तो अपने देश के पश्चिम में स्थित दो ज्योतिर्लिंगों में से एक के दर्शन लाभ और इस स्थान के महत्व को आत्मसात करने की कोशिश करते हुए हम निर्धारित समय में वापिस अपनी बस में आ गए । अब हमारी यात्रा शुरू हुई  ' ओखा पोर्ट ' की ओर जहाँ से आगे हम 'बेट द्वारका' जाने वाले थे , वैसे इस मार्ग में ही ' गोपी तालाब ' भी है जहाँ कि मृत्तिका  ' गोपी चन्दन ' के नाम से प्रसिद्ध है ।  

     इस रास्ते के एक और स्थान जिसका मैं जिक्र करना चाहूँगा वो है वह जगह बनता है  'देश का नमक' , जी हाँ !! इस रास्ते में मीठापुर नाम की जगह है जहां पर "टाटा केमिकल्स लिमिटेड" का बृहद कारखाना है । अगर आप गुजरात के मानचित्र को ध्यान से देखें तो इसका समुद्रतटीय हिस्सा एक खुले हुए मुंह जैसा दिखेगा और यह मीठापुर इसके निचले जबड़े पर बिलकुल सिरे पर स्थित है जो कि द्वारकानगरी से लगभग 20 कि.मी. और ओखा पोर्ट से 10 कि.मी. की दूरी पर है । इस कारखाने की वजह से यह छोटी सी बसाहट शुरू से ही सुव्यवस्थित और विकसित है ।  

     चलते-चलते आपको बता दें कि पहले जब यात्रा-संस्मरण लिखे जाते थे तो प्रत्येक स्थान का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाता था लेकिन आपने देखा होगा कि मैंने कमोबेश ऐंसा नहीं किया है , इसका कारण यह है कि एक तो आप मेरा यह संस्मरण ऑनलाइन रहते हुए पढ़ रहे हैं , दूसरे यह कि अगर आलेखों को पढने के दौरान आप किसी शब्द या विषय के बारे में और अधिक जानकारी पाना चाहते हैं तो मैंने अपने ब्लॉग पर विकिपीडिया का विकल्प दिया हुआ है । यह आप मेरे ब्लॉग के पृष्ठ पर ऊपर बांयी ओर पा सकते हैं ।अगली बार आप और हम चलेंगे ओखा और फिर वहां से बेट द्वारका और द्वारका स्थित जगतमन्दिर , तो बने रहिये अमित के साथ । एक बार आपको फिर याद दिला दें कि मुझे आपके अमूल्य सुझावों की बहुत जरूरत है , उम्मीद है आप मुझे इनसे नवाजेंगे । तब तक के लिए आज्ञा दीजिये , अमित के प्रणाम स्वीकार करें __/\__