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सोमवार, 30 दिसंबर 2013

यह आकाशवाणी है !

यह आकाशवाणी है अब आप देवकीनंदन पाण्डेय से समाचार सुनिये !



           बचपन से जुड़ी हुई किसी याद पर लिखना कभी कभी बहुत कठिन हो जाता है मेरे लिये, क्योंकि लिखते समय कभी कभी एक ही शब्द पर अटक जाता हूँ , उस से जुड़ा हुआ कोई चित्र देखता हूँ , कोई गीत सुनता हूँ और पता चलता है कि एक घंटा हो गया और लिखा कितना एक पंक्ति और कभी कभी तो वो भी नहीं | इस मौजूदा चिट्ठे का मकसद है रेडियो से जुड़ी हुई अपनी यादों को जिनमे कुछ जानी-पहचानी हैं तो कुछ अनजानी उनको आपके सामने लाना | इस चिट्ठे के माथे पर जिनका नाम लिखा है  "देवकीनंदन पाण्डेय " , वो आकाशवाणी के अपने जमाने के मशहूर समाचार वाचक थे , हालाँकि मुझे तो कभी उनकी आवाज़ में कुछ सुनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ लेकिन इनके बारे में कहा जाता है कि जब ये खबरें पढते थे तो मानो रेडियो थर्राने लगता था | पाण्डेय जी का परिचय जब श्रीमती इंदिरा गांधी से करवाया गया तो श्रीमती गांधी ने मुस्कुराते हुये कहा  " अच्छा, तो आप हैं हमारे देश की न्यूज वोईस " | संजय गांधी के आकस्मिक निधन का समाचार वाचन करने के लिये सेवानिवृत पाण्डेय जी को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था |

               खैर, तो रेडियो मनोरंजन, जानकारी , और प्रचार के उन चंद समावेशी साधनों में से एक है जिनकी चमक समय के साथ मद्धम नहीं हुई , इस जगह हम आपको फटाफट अपने देश में रेडियो का इतिहास बता दें और फिर आपको ले चलेंगे अपने साथ हम अपने बचपन में , मज़ा वाकई आने वाला है | 

                जून १९२३  ई. में अपने देश में रेडियो क्लब ऑफ बाम्बे नामक एक निजी प्रसारक ने हमारे देश का सर्वप्रथम रेडियो प्रसारण किया था , इसके पांच महीने बाद यानि नवम्बर १९२३ ई. में कलकत्ता रेडियो क्लब अस्तित्व में आया यह भी एक निजी संस्था ही थी | २३ जुलाई १९२७ को  "इंडियन ब्रोडकास्टिंग कम्पनी (  Indian Broadcasting Company : IBC ) जो लगभग तीन वर्ष बाद , अप्रैल १९३० में ही  "इंडियन ब्रोडकास्टिंग सेवा "(  Indian Broadcasting Service ) में विलय यह हो गई, यह सेवा तत्कालीन उद्योग एवं श्रम विभाग के अंतर्गत कार्य करती थी | इस समय तक यह प्रसारण सेवा प्रायोगिक तौर पर ही कार्य कर रही थी | अगस्त १९३५ ई. में लियोनेल फील्डेनLionel Fielden ) को भारत का प्रथम प्रसारण नियंत्रक बनाया गया |

                                आपने गौर किया हो या ना किया हो लेकिन अभी तक इन तमाम लम्बे-चौड़े नामों के बीच में कहीं पर भी हमारा कर्णप्रिय नाम "आकाशवाणी " नहीं दिखाई दिया | लीजिये, इंतज़ार की घडियां समाप्त हुई , सितम्बर १९३५ ई. में मैसूर में श्री एम.वी.गोपालास्वामी ने "आकाशवाणी" नाम से एक निजी रेडियो स्टेशन स्थापित किया | मैंने बहुत खोज की और पाया कि इन महापुरुष की स्मृति में हमने आजतक एक डाक-टिकिट भी जारी नहीं किया , हो सकता है मेरी जानकारी गलत हो , अगर आप के पास श्री गोपालास्वामी की स्मृति में किसी डाक-टिकिट या अधिकारिक स्मृति-चिन्ह जारी होने की जानकारी हो तो मुझे प्रेषित कर अनुग्रहीत करें | मुझे इन का एक चित्र प्राप्त हुआ है जो मैं यहाँ चस्पा कर रहा हूँ | 

श्री एम.वी. गोपालास्वामी और इनका रेडियो स्टेशन "आकाशवाणी मैसूर (विठ्ठल विहार ) "
                                         
                                      अगले ही वर्ष ८ जून १९३६ ई. को सभी सरकारी, निजी प्रसारकों का राष्ट्रीयकरण करके  "आल इण्डिया रेडियो" की स्थापना की गई , और इसे भारत के अधिकारिक राजकीय प्रसारणकर्ता का दर्जा दिया गया | स्वतंत्रता के बाद १९५६ ई. में इस "आल इण्डिया रेडियो" का नाम बदलकर "आकाशवाणी" किया गया और यह एक राष्ट्रीय प्रसारक के रूप में अस्तित्व में आया . महात्मा  गांधी जयंती ( २ अक्टूबर ) १९५७ ई. में  आकाशवाणी की  "विविध भारती " प्रसारण सेवा की शुरुआत की गई , यहाँ यह जानना दिलचस्प होगा कि विविध भारती की स्थापना  "रेडियो सीलोन " के व्यवसायिक प्रतिद्वंदी के रूप में की गई थी और हिंदी फ़िल्मी संगीत का प्रसारण इसका एक प्रमुख अवयव था और है | उम्मीद है कि इतिहास के इस कालखंड से आप उकताये नहीं होंगे , और गर्मागर्म चाय के साथ आपने इसका आनंद लिया होगा | तो अब ,
आओ हुजूर तुमको सितारों में ले चलूं , 
दिल झूम जाये ऐंसी बहारों में ले चलूं  | 

क्यों न आगे बढ़ने के पहले हम आकाशवाणी की यह हस्ताक्षर धुन सुन लें , 

                                                           आई ना कुछ याद और एक मुस्कुराहट ऐंसे ही मुस्कुराते रहिये , रेडियो से मेरा पहला परिचय हुआ अपने बब्बा ( दादा ) जी ,  स्व. श्री बाबूलाल नेमा की बैठकनुमा दुकान से , वहाँ एक बड़ा सा , वजन में किसी कदर १०-१२ किलो से कम का ना होगा ऐंसा भारीभरकम,  बब्बा जी जैसा ही भव्य  रेडियो सेट , रुकिए आपको दिखाते हैं कैसा दिखता है वो अंदर बाहर से :

वोल्व रेडियो सेट


                                                                 इस रेडियो सेट का एक बड़ा अजीबोग़रीब एरियल था जो मच्छरदानी जैसा जालीदार एक करीब ६ इंच चौड़ी और ४ फुट लम्बी पट्टी की शक्ल में था , यह रेडियो मेरे लिये एक बुजुर्ग की सी अहमियत रखता है , क्योंकि ये मेरे जन्म से भी करीब दो-ढाई दशक पहले का है , उन दिनों आने वाले कार्यक्रमों की समय-सारिणी मुंहजुबानी याद रखी जाती थी | और घड़ियाँ भी रेडियो से मिलाई जाती थीं | अब आपको इतना बताने के बाद ये कहा जाये कि रेडियो को सुनने के लिये एक लाइसेंस बनवाना पड़ता था और तयशुदा म्याद पर उसे नवीनीकृत भी करवाना पड़ता था तो शायद आप उसे एकबारगी कोरी गप्प कह दें , लेकिन ठहरिये ये बिलकुल सच है , मेरे बब्बा जी के महत्वपूर्ण दस्तावेजों में से इस रेडियो का लाइसेंस भी एक है , बब्बा जी तो अब नहीं रहे और ये निराला संयोग ही है कि आज ( ३० दिसम्बर ) उनका जन्मदिन है , आज अगर वो होते तो ये उनका १०१ वाँ जन्मदिवस होता , ये लाइसेंस एक पासबुक जैसी पुस्तिका होता था , जिसमें लाइसेंस फीस खास टिकिटों के रूप में जिनमे रेडियो लाइसेंस फीस लिखा होता था , दर्ज की जाती थी , वे सब, अब  मेरे पास हैं और जो किसी एक जमाने में मेरे दादा जी के हाथों से होके गुज़रे होंगे , लगे हाथ आप भी देख लीजिए :

रेडियो लाइसेंस और उसकी शुल्क के टिकिट 

                                इन टिकिटों पर लगी मुहरों पर ध्यान दें तो पाते हैं कि इन पर १९६० से १९८० तक के तीन दशकों की दिनाँक मुद्रित है | और १ रु. से लेकर ५० रु. तक के मूल्य वर्गों के टिकिट हैं | ये थी साहब रेडियो की दीवानगी | इसके बाद यानि १९९० से अभी तक के रेडियो के सफर के बारे में मेरी आयुवर्ग के बहुत से मित्र परिचित होंगे , इसलिये हम अब यहाँ उसको नहीं दोहराते |

                            चलते चलते आपको दो बातें बता दें , पहली तो ये कि यह पाती लिखते हुये मैं विविधभारती में कार्यरत अपने हरदिलअज़ीज़ दोस्त युनूस खान साहब द्वारा प्रस्तुत कार्यक्रम " पिटारा" सुन रहा था और दूसरी ये कि १९७६ तक हमारे देश में दूरदर्शन  "आकाशवाणी" का ही एक अंग था और संभवतः यही हमारी अगली चर्चा का विषय होगा |

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मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

दूसरी दुनिया के अवशेष : सिनेमा

दूसरी दुनिया के अवशेष : एक था सोवियत संघ :

सिनेमा 


आवारा हूँ, आवारा हूँ
या गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ -  शैलेन्द्र 

                       इस विषय पर आज की अपनी बात शुरू करने के लिये मुझे इससे अधिक कोई उपयुक्त गीत नहीं मिल सकता, राजकपूर की  'आवारा' पहली भारतीय फिल्म थी जिसने सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में सफलता के सारे कीर्तिमान तोड़ दिये | राजकपूर, सोवियत प्रजा के लिये जैसे जीवित किवदंती बन गये और उनकी यह फिल्म एक दंतकथा बन गई | इस बारे में एक छोटी सी कहानी आपको आभास करा देगी कि आवारा की लोकप्रियता किस हद तक थी , यह घटना सोवियत संघ के एक बंदरगाह वाले शहर की है :
"  एक भारतीय युवक किसी काम से डाकघर पहुँचा | काउंटर पर बैठी महिला कर्मचारी से उसने टिकिट मांगे | महिला को जब पता चला कि वह भारतीय है तो पहले तो उसने उसे गौर से देखा और कहा  " आवारा हो ? " , युवक हतप्रभ हो गया | महिला रुसी में कुछ गुनगुनाई फिर जोर से बोली  " आवारा हो, वेगाबोंड  ? " सहमे हुये युवक ने रुसी में कहा  " नहीं, आवारा नहीं हूँ, जहाज में काम करता हूँ  " महिला जोर से हंसी | तब एक अंग्रेजी जानने वाले कर्मचारी ने बताया कि तुम भारतीय हो , इसलिये वह जानना चाहती है कि क्या तुमने आवारा फिल्म देखी है ? तब कहीं जाकर उस युवक की जान में जान आयी | "
सोवियत संघ में होने वाले फिल्म महोत्सवों में भारतीय सिने कलाकार नियमित रूप से जाते थे , और जब वो वहाँ पहुँचते थे तो जैसे शहर के शहर उनके स्वागत के लिये उमड आते थे , मानो वो कोई अवतार हों या विश्व-नायक हों | ये कुछ वीडियो लिंक्स हैं जिनको देख के यह बात आप सरलता से समझ सकेंगे |

जैसा कि हम इस कड़ी की पहली पाती में लिखते आये हैं कि सोवियत संघ व वारसा संधि के पूर्वी यूरोपीय देशों में सारी बातें लगभग एक जैसी ही थीं | यहाँ पर मैं उद्यत करना चाहूँगा प्रो. सूरजभान सिंह ( केन्द्रीय हिंदी संस्थान )  की लिखी काले सागर का गोरा देश : रोमानिया  से एक अंश जो शब्दशः इस प्रकार है :
"  इन देशों की अपनी फ़िल्में अक्सर युद्ध या राष्ट्रीय विषयों को लेकर बनती हैं | ऐंसी परम्परागत फिल्मों के लम्बे दौर के बाद अचानक जब झुमानेवाले संगीत और नृत्य के साथ एक सामाजिक भावनापूर्ण कहानी को लेकर बनी फिल्म ' आवारा ' जब यहाँ आई तो जैसे ताज़ी हवा का एक झौंका इनके चित्रपट पर आया और देखते ही देखते ' आवारा ' और  '  राजकपूर  ' का नाम हर आम आदमी की जुबान पर चढ़ गया | "
इन भारतीय फिल्मों ने उन लोगों के मनो:मष्तिस्क में भारत और भारतीयों के प्रति क्या धारणा और  दृष्टिकोण विकसित किया  इसके बारे में इसी किताब में वो आगे लिखते हैं :
"    जिन लोगों के पास भारत के संबंध में जानकारी का कोई दूसरा साधन नहीं है उनके लिये हिंदी फ़िल्में ही उनकी जानकारी का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं | फलस्वरूप, सही या गलत, कुछ आम लोगों के मन में फिल्मों से उतारी गई भारत की एक खास छवि बन गई है | अपनी प्रेमिका के लिये जान की बाज़ी लगाने वाले सुंदर युवकों और हमेशा सजी-धजी रहने वाली सुंदर युवतियों का एक ऐंसा काल्पनिक देश जहाँ भावुक युवक गा-गाकर अपनी प्रेमिका या पत्नी को रिझाता है, एक ऐंसा देश जहाँ के मकान फ़िल्मी सेटों की तरह भव्य होते हैं और जहाँ माँ और बहन की खातिर  लोग हर तरह की क़ुरबानी करते हैं |  
                   इन सबका का एक अद्भुत नतीजा निकला है | किशोरियों की यहाँ एक ऐसी पूरी पंक्ति तैयार है जो हर कीमत पर एक भारतीय पति चाहती है | कारण ? भारतीय पति अधिक निष्ठावान होता है ,तलाक का कोई भय नहीं | दुर्भाग्य यह कि यहाँ भारतीय छात्र यहाँ बहुत कम हैं , लेकिन जो हैं , प्राय: खाली हाथ नहीं लौटते |"  

लेखक ने यह बात भावना के अतिरेक में नहीं कही है क्योंकि इन बातों की पुष्टि मेरे भाई ने भी की जो सोवियत संघ के विघटन के १२ साल बाद २००३ में  वहाँ एक छात्र के रूप में  गया था | लोग सिर्फ इसलिये आपसे हाथ मिलाना चाहते हैं , आपको छूना चाहते हैं क्योंकि आप भारतीय हैं | यह एक और इसी प्रकार की वीडियो क्लिप है | 

न्यूयॉर्क के 'म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट' वेबसाइट पर राजकपूर के बारे में लिखा गया है कि उत्तरी अमेरिका के लोग राजकपूर के बारे में भले ही न जानते हों, लेकिन राजकपूर को रूस, पूर्व सोवियत संघ और मध्य पूर्व जैसे इलाकों में पूजा जाता है। 

राजकपूर के बाद इन देशों में धूम मचाई मिथुन चक्रवर्ती ने , मिथुन का प्रभाव इससे जाना जा सकता है कि यहाँ पर आज भी भारतीयों को देखकर लोग मिथुन-मिथुन पुकारने लगते हैं | यहाँ के हिंदी फ़िल्मप्रेमियों को ये समझाना मुश्किल था कि सबसे मशहूर फ़िल्मी कलाकार अमिताभ बच्चन हैं, मिथुन चक्रवर्ती नहीं | डिस्‍को डांसर हिंदी की चालू फिल्‍म है, लेकिन इसका असर व्‍यापक है। यही पापुलर कल्‍चर का कमाल है, जिसे हमारे बुद्धिजीवी समझने को तैयार नहीं हैं। फिल्‍मों की बात छेड़ते ही उनकी त्‍योरियां चढ़ जाती हैं।



आज सोवियत संघ और वारसा संधि के देशों का कोई राजनैतिक अस्तित्व नहीं है , लेकिन हिंदी फिल्मों का जादू आज भी यहाँ बरकरार है , वर्तमान हिंदी फ़िल्में और उनके सितारे भी बहुत लोकप्रिय हैं | इस बारे में लिखने , बताने को इतना कुछ है कि कई जिल्दें तैयार हो जायें लेकिन अब हम अपनी चिट्ठी को यहीं अल्पविराम देते हैं |
     
चलते चलते आपको बता दें कि दादा साहब फ़ाल्के पुरस्कार की पहली विजेता,  1930 और 40 के दशकों में हिन्दी फ़िल्मों की नायिका देविका रानी निकोलाई रेरिख़ के पुत्र और प्रसिद्ध चित्रकार स्वेतोस्लाफ़ रेरिख की पत्नी थीं.


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गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

दूसरी दुनिया के अवशेष : साहित्य

दूसरी दुनिया के अवशेष : एक था सोवियत संघ :

साहित्य 

         "इस तरफ से गुज़रे थे काफ़िले बहारों के
        आज तक सुलगते हैं ज़ख्म रहगुज़ारों के"       - साहिर 
                   
                     भारत और सोवियत संघ के मैत्रीपूर्ण संबंधों का एक पहलू संस्कृति से भी ताल्लुक रखता है | किसी भी देश या काल का लेखन हमें उस देश या काल की झलक दिखलाता है | भारत और सोवियत संघ के बहुत से लेखकों और कलाकारों ने एक-दूसरे के देशों की यात्रायें की और अपने संस्मरणों और लेखन को प्रस्तुत किया , किन्तु हमारी इस चिट्ठी का सन्दर्भ कुछ अलग है , यहाँ हम बात करेंगे उस साहित्य की जिसका सृजन तो मूलरूप से सोवियत संघ में रुसी या सोवियत संघ की अन्य भाषाओँ में होता था | मुद्रण व प्रकाशन भी मास्को या सोवियत गणतंत्रों के शहरों में होता था किन्तु वह हिंदी, अंग्रेजी व अन्य भारतीय भाषाओँ में अनुदित होकर भारत आता था , छपाई की गुणवत्ता और सामग्री ऊँचे दर्जे की होती थी व मूल्य के आधार पर यह सारा सोवियत साहित्य भारत में मुद्रित-प्रकाशित किताबों, पत्रिकाओं से सस्ता होता था | 

1950 के दशक में तत्कालीन सोवियत राष्ट्रपति निकिता सर्गेइविच ख्रुश्चेव के काल में यह प्रकाशन  हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ में प्रारम्भ हुये  , और पुस्तकों के अलावा सोवियत भूमि, सोवियत संघ और सोवियत नारी नाम की पत्रिकाएँ, दर्जन भर अन्य पत्रिकाओं के साथ बहुत लोकप्रिय हुई , ये पत्रिकाएँ हिंदी व अंग्रेजी के अतिरिक्त अन्य करीब 25 देशी-विदेशी भाषाओँ में प्रकाशित होती थीं | ये मासिक आवृति वाली पत्रिकाएँ थीं, जो  चिकने पन्नों पर बड़े आकार में मुद्रित होती थीं |  इन पत्रिकाओं के माध्यम से सोवियत संघ  की भौगोलिक परिस्थितियों और वहाँ के समाज एवं संस्कृति का परिचय मिलता था | भारतीय घरों तक इनकी पहुँच व्यापक थी |

सोवियत पत्रिकाएँ



स्तालिन, ख्रुश्चेव और बाद में ब्रेजनेव के शासन में कट्टर साम्यवाद का वर्चस्व था और वो साहित्यकार जिनकी रचनायें साम्यवादी विचारधारा के विपरीत होती थी, उन रचनाओं को प्रतिबंधित करके लेखक को निर्वासित कर दिया जाता था | ऐंसा ही एक उपन्यास है अरबात के बच्चे जिसमें स्तालिन के समय की दमनकारी झलक मिलती है; फलस्वरूप इसके रचनाकार   अनातोली रीबाकोव  को भी अपने उक्त उपन्यास के नायक साशा पान्क्रातोव की भांति साइबेरिया में निर्वासन की सज़ा काटनी पड़ी | बोल्शेविक क्रांति से लेकर ब्रेजनेव के समय तक मात्र उन्हीं कृतियों का अनुवाद और प्रकाशन हुआ जो किसी ना किसी प्रकार साम्यवादी राज्य-व्यवस्था की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करती थीं | उस समय के सोवियत शहरों में मुख्यत: मास्को में अनेक राजकीय प्रकाशनगृह जिनमें  रादुगा प्रकाशन, प्रगति प्रकाशन एवं मीर प्रकाशन मुख्य हैं ,अपने अपने विषय ( कथा-उपन्यास, विज्ञान, गणित, और बहुत से अन्य विषय  ) पर आधारित हिंदी में अनुदित पुस्तकें प्रकाशित करते थे | यहाँ पर कुछ उन अनुवादकों के नाम उल्लेखित करना भी तर्कसंगत होगा जिन्होंने रुसी व सोवियत गणराज्य की अन्य भाषाओँ से इस सामग्री को हिंदी में अनुदित करके इस विस्तृत परियोजना को सम्भव बनाया इनमें से कुछ हैं भीष्म साहनी ( प्रसिद्ध उपन्यास 'तमस' के लेखक ), मदनलाल 'मधु', सुधीर कुमार माथुर, संगमलाल मालवीय, विनय शुक्ला, मुनीश सक्सेना और त्रिभुवन नाथ |


सोवियत संघ में हिंदी में मुद्रित/प्रकाशित कुछ पुस्तकें 



यह सारी मुद्रित सामग्री सोवियत संघ की राजकीय विमानन सेवा एयरोफ्लोत द्वारा हमारे देश में आती थी | और थोड़ी बहुत मात्रा में नहीं, बल्कि इतनी भारी तादाद में, जिससे गोदाम के गोदाम भर जायें , इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि सोवियत संघ के विघटन के 22 वर्षों के बाद भी यह पुस्तकें शेष हैं, और प्रयास करने पर आप आज भी इन्हें खरीद सकते हैं | यहाँ पर यह प्रश्न हमारे मन में उठ सकता है कि आखिर इतने वृहद स्तर पर भारत में इन पुस्तकों का वितरण और विक्रय कैसे सम्भव हुआ ? दरअसल पीपुल्स पब्लिशिंग हॉउस प्रा.लिमिटेड, दिल्ली  और राजस्थान पीपुल्स पब्लिशिंग हॉउस प्रा.लिमिटेड, जयपुर . यह दोनों वितरक पूरे देश भर में इन किताबों का वितरण/विक्रय सम्भव बनाते थे, यह दोनों कम्पनियां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रकाशन प्रकोष्ठ के पूर्ण स्वामित्व वाली कम्पनियां थीं |

अपने पूर्ववर्ती ब्रेजनेव के बाद , सोवियत संघ के अंतिम राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोव ने 1985 में सत्ता सम्हाली | उन्होंने पुनर्रचना और खुलेपन की नीतियों के रूप में राजनैतिक सुधार शुरू किये | इन नीतियों का स्पष्ट प्रभाव सोवियत साहित्य में भी दृष्टिगोचर होता है | 1930 के दशक में लिखे हुये अरबात के बच्चे और इसके जैसी अन्य कृतियों का प्रकाशनादि 1985 के बाद ही मुमकिन हो पाया |

बचपन से ही इन पत्रिकाओं और कुछ बड़ा होने पर सोवियत संघ के बाल साहित्य से अच्छा परिचय था, इसलिये मन में अक्सर यह सवाल खड़ा हो जाता था कि 1991 के बाद इस सबका क्या हुआ ? जिज्ञासावश अपनी एक दिल्ली यात्रा के दौरान , पीपुल्स पब्लिशिंग हॉउस प्रा.लिमिटेड, दिल्ली की एक खुदरा बिक्री दुकान  जो कि कनाटप्लेस में आज भी है, में जा पहुँचा और वहाँ के बिक्री-प्रभारी श्री ऋषभ कुमार ( जो कि भा.क.पा. के सदस्य है ) से भेंट हुई जिन्होंने बताया कि विघटन के बाद मास्को के यह सारे प्रकाशन बंद हो गये और तब से वही पुस्तकें जो उनके गोदामों में संग्रहित थीं उन्हीं का विक्रय करते आ रहे हैं | कुछ अत्याधिक लोकप्रिय पुस्तकों का भारत में पुनर्प्रकाशन भी किया गया है; उदाहरण के लिए चित्र में आपको जो एक पुस्तक दिख रही है  ' जहाँ चाह वहाँ राह ' ( उज्बेक लोककथा संग्रह ) उसका और कुछ अन्य किताबों का जिनमे अधिकतर कहानी संकलन ही हैं, उनका पुनर्प्रकाशन उन्होंने किया है | अतीत के इस कालखंड के बारे में जानना रोचक भी था और कुछ कसक भरा भी क्योंकि यह बालपन से जुड़ी हुई चीज़ थी | इस भेंट के दौरान हमने भी बचे हुये संग्रह में से जॉन रीड की दस दिन जब दुनिया हिल उठी, अलेक्साई तोल्स्तोय की आएलीता जैसी कुछ पुस्तकें या जिन्हें दूसरी दुनिया के अवशेष कहना ज्यादा सही होगा खरीदीं और घर को लौट चले |

तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक अगली चिट्ठी दूसरी दुनिया और भारतीय सिनेमा की कुछ भूली-बिसरी लेकिन आज भी ताज़ा गुलदस्ते जैसी महकती यादों को लेकर आयेगी |  नक्श लायलपुरी साहब के शब्दों में -
                  " पलट कर देख़ लेना जब सदा दिल की सुनाई दे
                   मेरी आवाज़ में शायद मेरा चेहरा दिख़ाई दे "       

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रविवार, 1 दिसंबर 2013

दूसरी दुनिया के अवशेष : शुरुआत

दूसरी दुनिया के अवशेष : एक था सोवियत संघ :

शुरुआत 



                               मानव सभ्यता के निरंतर विकास में अनेक राज्य-व्यवस्थाओं ने जन्म लिया, पनपी और धराशायी हों गईं, ये प्रयोग निरंतर जारी है , 20 वीं शताब्दी का सबसे रोमांचक राजनैतिक प्रयोग था “ सोवियत संघ ” , कार्ल मार्क्स से प्रेरित लेनिन ने इस विचारधारा को सिद्धांत से व्यवहार रूप में परिणित किया, और एक समय ऐंसा भी था जब विश्व इस राज्य-व्यवस्था को इंसानियत की उपलब्धि तक मानने लगा था, इसका कारण था सोवियत व्यवस्था को अंगीकार करने वाले अलग अलग जातीय और राष्ट्रीयता के लोगों का गठजोड़ | जिसने सोवियत समाजवादी गणतंत्र संघ को वह विशालता और भव्यता प्रदान की जो ज्ञात इतिहास में अभूतपूर्व थी | इस दीर्घकायता को इस चित्र से समझा जा सकता है :
यह चित्र 1960 ई. का है , जिसमें सोवियत समाजवादी गणतंत्र संघ और वारसा संधि के देशों 
को लाल रंग से दर्शाया गया है | 

                    उपरोक्त चित्र से हम इस भू-भाग की व्यापकता समझ सकते हैं, जिसमें अकेले सोवियत समाजवादी गणतंत्र संघ का क्षेत्रफल ही 22,402,200 वर्ग कि.मी. था , यानि भारत के क्षेत्रफल का लगभग 7 गुना , अंतिम सोवियत नेता मिख़ाइल गोर्बाचोव ने देश में ग्लास्नोस्त (glasnost) नामक राजनैतिक खुलेपन की नई नीति और पेरेस्त्रोइका (perestroika) नामक आर्थिक ढाँचे को बदलने की नीति के अंतर्गत सुधार करने की कोशिश की जिसके फलस्वरूप पीड़ित प्रजा ने स्वतंत्रता का रसास्वादन किया |

नतीजतन 1989 के बाद इस का विघटन प्रारम्भ हो गया जिसकी शुरुआत वारसा संधि के अन्य सदस्य देशों ( पूर्वी जर्मनी, बुल्गारिया, रोमानिया, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया , पोलैंड ,अल्बानिया ) में जन-आंदोलनों से हुई और और बाद में इसने सोवियत संघ को अपनी चपेट में ले लिया और सोवियत समाजवादी गणतंत्र संघ, 15 स्वतंत्र राष्ट्रों में टूट गया जिनके नाम हैं - रूस, जॉर्जिया, युक्रेन, मोल्दोवा, बेलारूस, आर्मीनिया, अज़रबैजान, कजाकिस्तान, उज़बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किरगिज़स्तान, ताजिकस्तान, एस्टोनिया, लातविया, और लिथुआनिया | इस विघटन की औपचारिक घोषणा 26 दिसम्बर 1991 को की गई |

सोवियत संघ का जीवनकाल सदैव विवाद का विषय रहा है और रहेगा, मार्क्सवाद-लेनिनवाद में कई ऐंसे विचार थे जिनका इससे पूर्व मानव-सभ्यता से परिचय न था उदाहरण के रूप में -: ' ईश्वर व धर्म का निषेध' इस संबंध में एक लतीफा बड़ा मशहूर है :
कम्यूनिस्ट पार्टी का एक अधिकारी मास्को से रवाना हुआ और सामूहिक खेती के एक फार्म पर "आलू" की पैदावार को दर्ज करने के लिये पहुंचा |
' किसान साथी इस साल आलू की पैदावार कैसी रही ? ' अधिकारी ने पूछा |
' ईश्वर की कृपा से आलू के पहाड़ लग गये हैं ' किसान ने बताया |
' लेकिन ईश्वर तो होता नहीं ! ' अधिकारी ने उसकी बात काटी |
' तो फिर, आलू के पहाड़ भी नहीं होते ! ' किसान ने जवाब दिया |
1989 में बर्लिन दीवार के गिरते ही दूसरी दुनिया का पतन प्रारंभ हो गया , अपने पिछड़ेपन की पहचान से सोवियत नागरिकों को राजनैतिक-मनोवैज्ञानिक सदमा पहुंचा और एक एक कर सोवियत खेमे के देश जिन्हें संयुक्त रूप से ईस्टर्न ब्लॉक ( या दूसरी दुनिया ) भी कहा जाता था , में जनता वास्तविक आज़ादी के लिए सडकों पर उतर आई | लेनिन के जलाये दीये ने गोर्बाचोव की बस्ती में दावानल का रूप धारण कर लिया और इस आग ने लगभग 8 दशकों के  निरंकुश उपेक्षा और दमन के सत्तावाद को होम कर डाला |

बर्लिन दीवार का पतन 1989-1990 


सोवियत शासन, में जुल्मों-सितम, गतिरुद्ध प्रशासन, भारी भ्रष्टाचार, गलतियों को सुधारने व शासन में अधिक खुलापन लाने के प्रति अनिच्छा और अक्षमता और लोकतंत्र एवं अभिव्यक्ति की आज़ादी का अभाव इस सबके बावजूद कुछ ऐंसा भी है जिसे भुलाया नहीं जा सकता और वह है भारत और सोवियत संघ के प्रगाढ़  संबंध , इन गहरे संबंधों के चलते समीक्षकों को यह भी कहने का मौका मिला कि "भारत, सोवियत खेमे का हिस्सा था |" यह संबंध बहुआयामी थे जो अपने में आर्थिक, राजनैतिक, सैन्य और सांस्कृतिक सहयोग को संजोये हुये थे |

बहरहाल इस वार्ता का उद्देश्य सोवियत इतिहास का पुनरावलोकन नहीं है ,और जैसा कि इस चिट्ठी का शीर्षक है “दूसरी दुनिया के अवशेष” वही हमारा विषय है | चिट्ठी के दूसरे हिस्से में हम 'भारत-सोवियत संबंधो ' के सांस्कृतिक आयाम के तहत 'साहित्य' पर बात करेंगे और उससे अगली किश्त  में इस चर्चा को  'सिनेमा' से समेटने की कोशिश करेंगे |

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