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सोमवार, 28 जुलाई 2014

संस्कृत : भाषा व व्याकरण - सीखें और सिखायें

     संस्कृत , विश्व की सम्भवतः प्राचीनतम भाषा है। इसे ' देवभाषा ' और ' सुरभारती ' भी कहते हैं। संस्कृत विश्व की अनेक भाषाओं की जननी है। संस्कृत में सनातन धर्म के अतिरिक्त बौद्ध एवं जैन धर्म का साहित्य भी विपुल मात्रा में उपलब्ध है। संस्कृत मात्र धर्म संबंधी साहित्य की ही भाषा नहीं है , अपितु संस्कृत में विज्ञान ( भौतिक, रसायन, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिषादि ) विषयों के ग्रन्थों की सूची भी छोटी-मोटी नहीं है।



     संस्कृत भाषा जितनी ही पुरातन है, उतनी ही वह अपने को चिर नवीन भी बनाती आई है। विशाल वैदिक वांग्मय संस्कृत काव्य की अमूल्य निधि् है। कालिदास, भवभूति, माघ, भास, बाणभट्ट , भर्तृहरि जैसे महान् रचनाकारों की कृतियाँ संस्कृत की उदात्तता का परिचय देती हैं। इनके अलावा बहुत ऐसे अज्ञात कवि हुए हैं जिन्होंने सामान्य जन की छोटी-छोटी इच्छाओं, सपनों एवं कठिनाइयों को भी स्वर दिया है। संस्कृत के आधुनिक लेखन में यह लोकधारा और मुखर हुई है। यही नहीं संस्कृत वर्तमान जीवन और हमारे संसार को समझने पहचानने के लिये भी एक अच्छा माध्यम बनने की क्षमता रखती है।

     आधुनिक भाषा-विज्ञान की दृष्टि से संस्कृत हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की हिन्द-ईरानी शाखा की हिन्द-आर्य उपशाखा में शामिल है, । अनेक लिपियों में लिखी जाती है, जिनकी प्राचीन लिपियों में 'सरस्वती ( सिन्धु ) ' और ' ब्राह्मी लिपि' एवं आधुनिक लिपियों में 'देवनागरी' प्रमुख है।

     किसी भी भाषा के अंग प्रत्यंग का विश्लेषण तथा विवेचन व्याकरण (ग्रामर) कहलाता है। व्याकरण वह विद्या है जिसके द्वारा किसी भाषा का शुद्ध बोलना, शुद्ध पढ़ना और शुद्ध लिखना आता है। किसी भी भाषा के लिखने, पढ़ने और बोलने के निश्चित नियम होते हैं। भाषा की शुद्धता व सुंदरता को बनाए रखने के लिए इन नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। ये नियम भी व्याकरण के अंतर्गत आते हैं। व्याकरण भाषा के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। व्याकरण का दूसरा नाम "शब्दानुशासन" भी है। वह शब्दसंबंधी अनुशासन करता है - बतलाता है कि किसी शब्द का किस तरह प्रयोग करना चाहिए। भाषा में शब्दों की प्रवृत्ति अपनी ही रहती है; व्याकरण के कहने से भाषा में शब्द नहीं चलते। परंतु भाषा की प्रवृत्ति के अनुसार व्याकरण शब्दप्रयोग का निर्देश करता है। यह भाषा पर शासन नहीं करता, उसकी स्थितिप्रवृत्ति के अनुसार लोकशिक्षण करता है। व्याकरण का महत्व यह श्लोक भली-भाँति प्रतिपादित करता है : 

यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।

स्वजनो श्वजनो माऽभूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत्॥

अर्थ : " पुत्र! यदि तुम बहुत विद्वान नहीं बन पाते हो तो भी व्याकरण (अवश्य) पढ़ो ताकि 'स्वजन' 'श्वजन' (कुत्ता) न बने और 'सकल' (सम्पूर्ण) 'शकल' (टूटा हुआ) न बने तथा 'सकृत्' (किसी समय) 'शकृत्' (गोबर का घूरा) न बन जाय। "

     महाभाष्यकार " पतंजलि " ने ऋग्वेद की इस ऋचा से व्याकरण ( संस्कृत ) का स्वरूप बतलाया है :

चत्वारि श्रृंगात्रयो अस्य पादा द्वेशीर्षे सप्तहस्तासोऽस्य।
त्रिधावद्धो वृषभोरोरवीति महोदेवोमित्र्यां आविवेश॥ ( ऋग.४.५८.३ )


     यद्यपि वैदिकी टीकाओं में इसकी व्याख्या भिन्न है किन्तु देखिये कितनी सुन्दरता से उन्होंने इसका व्याकरण के सन्दर्भ में भावार्थ किया है , वो इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि :  " मनुष्य में एक वृषभ है  , जो दिव्य गुणों से युक्त महान देव है। इसके चार सींग  ( नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात ), तीन पैर ( भूत, भविष्यत और वर्तमान काल ), दो सिर ( नित्य और अनित्य शब्द ), सात हाथ  ( सात विभक्तियाँ ), यह तीन स्थानों ( वक्ष, कंठ और मष्तिष्क ) पर बंधा हुआ बार-बार शब्द करता है। इस शब्द के देवता के साथ सायुज्य स्थापित करने के लिये हमें व्याकरण पढ़ना चाहिये ।"     

आपके मित्र अमित ने संस्कृत-व्याकरण की एक पुस्तकमाला संकलित की है। इसकी सहायता से आप सुगमता पूर्वक हिन्दी से संस्कृत-व्याकरण का अध्ययन कर सकते हैं , आप इन पुस्तकों को डाउनलोड भी कर सकते हैं, सभी पुस्तकें पीडीएफ ( PDF) प्रारूप में हैं, जिन्हें आप Adobe Reader या दूसरे इसी प्रकार के सॉफ्टवेयर पर पढ़ सकते हैं , नीले रंग के मोटे ( Bold )  अक्षरों में दिया हुआ पुस्तक का नाम ही उसकी लिंक है जो कि एक अलग पृष्ठ में खुलेगी।

(१)  संस्कृत व्याकरणम   : यह पुस्तक पं.रामचन्द्र झा ‘व्याकरणाचार्य’ कृत है , इसके प्रकाशक चौखम्बा प्रकाशन, वाराणसी हैं। इसका आकार १५.९ मे.बा है । हिन्दी से संस्कृत सीखने की शुरुआत करने वालों के लिये यह उत्तम ग्रन्थ है ।

(२)  संस्कृत व्याकरण प्रवेशिका  :  यह पुस्तक श्री बाबूराम सक्सेना द्वारा लिखित है। इसका आकार २१.६ मे.बा. है । उन जिज्ञासुओं के लिए एक अच्छी पुस्तक है जो पहले-पहल संस्कृत व्याकरण सीखना चाहते हैं ।

(३) प्रौढ़ रचनानुवाद कौमुदी : डॉ.कपिलदेव द्विवेदी आचार्य लिखित इस पुस्तक के प्रकाशक हैं विश्वविद्यालय प्रकाशन , गोरखपुर, उपरोक्त दोनों ग्रन्थों का अध्ययन करते समय यह पुस्तक विशेष रूप से प्रभावी है । इसका आकार ४४.३ मे.बा. है । 

(४) लघु सिद्धांत कौमुदी :  यह संस्कृत-व्याकरण का सारभूत ग्रंथ है। इसके रचनाकार श्रीवरदराजजी हैं। कहते हैं कि लघु सिद्धांत कौमुदी संस्कृत व्याकरण का वह ग्रंथ है जिसका अध्ययन किए बिना संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं होता और पढ़ लेने पर संस्कृत व्याकरण की योग्यता में संदेह नहीं रहता। यह ग्रन्थ मूलत: संस्कृत में ही है जिसकी संस्कृत व हिन्दी में अनेक व्याख्याकारों द्वारा विभिन्न व्याख्यायें प्रस्तुत की गईं हैं। हिन्दी में इस ग्रन्थ की सम्भवत: सबसे विशद व्याख्या श्रीभीमसेन शास्त्री द्वारा प्रस्तुत है जो भैमी व्याख्या के नाम से प्रसिद्ध है। यह छ: खंडों में उपलब्ध है। भैमी प्रकाशन , दिल्ली द्वारा प्रकाशित है। इसके सभी खंडों का वर्णन निम्नानुसार है :

४.१  - लघु सिद्धांत कौमुदी भाग - १ : आकार - ३४.३   मे.बा. 

४.२  - लघु सिद्धांत कौमुदी भाग - २ : आकार - ६.५     मे.बा. 

४.३  - लघु सिद्धांत कौमुदी भाग - ३ : आकार - २०.९   मे.बा. 

४.४  - लघु सिद्धांत कौमुदी भाग - ४ : आकार - २३.८   मे.बा. 

४.५  - लघु सिद्धांत कौमुदी भाग - ५ : आकार - १५.०   मे.बा. 

४.६  - लघु सिद्धांत कौमुदी भाग - ६ : आकार - १६.६   मे.बा. 
   
     संस्कृत व्याकरण के जिज्ञासुओं को लघु सिद्धांत कौमुदी का अध्ययन अवश्य ही करना चाहिए । अब एक पुस्तक उनके लिए भी जो संस्कृत व्याकरण का अध्ययन अंग्रेजी के माध्यम से करना चाहते हैं। 

(५) श्री रामकृष्ण गोपाल भंडारकर द्वारा लिखित  First Book of Sanskrit  और Second Book of Sanskrit 

उपरोक्त वर्णित पुस्तकों का अध्ययन करने के उपरांत व्याकरण का ज्ञान भली-भांति हो जाता है, तथापि बृहद अध्ययन के इच्छुक महानुभावों को महर्षि पाणिनी की अष्टाध्यायी और महर्षि पतंजलि की पाणिनीयव्याकरणमहाभाष्यम का अध्ययन करने की अनुशंसा विद्वान करते हैं । 

     चलते-चलते आपको बता दें कि राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान  ( विश्वविद्यालयवत ), पत्राचार के द्वारा एक द्वि-वर्षीय संस्कृत पाठ्यक्रम का संचालन करता है , इसकी विस्तृत जानकारी के लिये यहाँ चटका लगायें। हमेशा की तरह मुझे आपके अमूल्य सुझावों की बहुत जरूरत है , उम्मीद है आप मुझे इनसे पुरुस्कृत करेंगे । तब तक के लिए आज्ञा दीजिये , अमित के प्रणाम स्वीकार करें..... 

( दावात्याग :  लेखक ( ब्लॉग लेखक ) का यह लेख लिखने का एकमात्र उद्देश्य संस्कृत का प्रचार-प्रसार, ज्ञानवर्धन है।  इस लेख/पुस्तकों का किसी भी प्रकार व्यवसायिक उपयोग अनुचित है ।  लेखक उपरोक्त वर्णित पुस्तकों का लेखक/अनुवादक/प्रकाशक नहीं है। लेखक इन पुस्तकों की मुद्रित प्रतियाँ क्रय करने की अनुशंसा करता है,  पुस्तकों के चयन में लिप्याधिकार का उल्लंघन ना हो इसका यथासम्भव प्रयत्न किया गया है फिर भी तत्संबंधी किसी भी वाद के लिये संबंधित वेबसाइट उत्तरदायी है ना कि ब्लॉग लेखक, यह लेख इन्टरनेट पर उपलब्ध पुस्तकों की कड़ियों का संकलन मात्र है ।  धन्यवाद ) 

रविवार, 20 जुलाई 2014

नवजीवन से भेंट

नित नूतन नव जीवन है , हाथ बढा के छू लो ,
बिखरा है आनंद यहाँ , कभी तो खुद को भूलो । 

विनायक” का जन्म एक अद्वितीय घटना है , सृष्टि में यह कोई पहला जन्म नहीं लेकिन हर जन्म के साथ ही कुदरत नाम की “ बड़ी माँ “ का एक और नया जन्म जरूर है , और वो जो बड़ी माँ सबका ध्यान रखती है किसी तिनके को भी अपनी निगाह से ओझल नहीं होने देती उसकी किसी बेटी को चोट न पहुंचे इसका हरदम ख्याल रखती है ।  ममत्व की सरिता , कण-कण को अपने रस में सरोबार कर देती है भावनाओं का अतिरेक, पदार्थ की अवस्था परिवर्तित करने की क्षमता रखता है । 

आज गौ-पालन से जुड़ा हुआ अपना एक अनुभव साझा कर रहा हूँ , गाय को जब प्रसव वेदना होना प्रारम्भ होती है तो वो खाना-पीना लगभग बंद कर देती है और बेचैन हो जाती है , कभी उठती है , कभी बैठती है | इस समय अगर कोई आस-पास हो तो गाय और अधिक परेशान हो जाती है ।  जन्म देने की प्रक्रिया के दौरान सबसे पहले गोवत्स/वत्सा के पैर जननमार्ग से बाहर आते हैं , यह अनुभव इसी से जुड़ा हुआ है । 

नवप्रसूता 'भूरी' और नवजात 'विनायक' 
ध्यान दीजिये प्रकृति या ईश्वर को अपनी एक-एक रचना का कितना ख्याल रहता है, माँ के सुकोमल प्रजनन तन्त्र को कोई चोट न पहुंचे इसलिये नवजात के नन्हें-नन्हें खुरों के नीचे एक सफेद , लगभग 1 से 1.5 से.मी. मोटा, फोम जैसा गुदगुदा आवरण होता है ( जैविक रूप से यह कार्टिलेज है ), धीरे-धीरे हवा के सम्पर्क में आकर यह सख्त होता जाता है , लेकिन अनुभवी गौ-पालक इसको उँगलियों से कुतर कर हटा देते हैं,  जिससे बछड़ा/बछडी को खड़े होने में आसानी हो, इस बीच गाय अपने शिशु को सामान्य से अधिक बल लगाकर चाटती रहती है जिससे नवजात का रक्त-संचार व्यवस्थित हो जाये , यह एक किस्म की मालिश ही है ।  

इस जगह फिर अपने क्षेत्र में प्रचलित एक प्रथा का उल्लेख करना चाहता हूँ , गौ-पालक दुहने के अंदाज़ में गाय के एक थन को पकड़कर दूध की एक धार ( इस धार को हमारे यहाँ ' सेंट' कहते हैं ) धरती पर अर्पित करता है, इसका आशय है नवजन्म पर प्रकृति का अभिनन्दन । 

धीरे-धीरे गिरने-उठने की कोशिश करता हुआ नवजात खड़ा हो जाता है और प्रकृतिदत्त वृत्ति से माँ के अगले-पिछले पैरों के बीच थन ढूँढने की कोशिश करता हुआ अपने प्रयास में सफल हो जाता है और फिर दूध पीने की प्रक्रिया में गोवत्स/वत्सा के मुंह से जो " चुक-चक" जैसी आवाज़ निकलती है संसार का सारा संगीत उसमें एकाकार हो जाता है .....कण-कण विभोर हो जाता है !!

'विनायक' और आपका अपना अमित 
किसी नवीनता का जन्म अपने साथ बहुत से मनोभावों का प्रवाह ले के चलता है और उस समय वैराग्य की पर्वतीय विशालता भी अनुराग की अदृश्य सूक्ष्मता के सामने तुच्छ प्रतीत होने लगती है ।  किसी शांत सी भोर में सुदूर पूर्व से सूरज का आगमन , किसी अंकुर का बीजकोश से अंगडाई लेना, किसी डाल पर अपना वजूद हवाओं में बिखरा देने को आतुर फूल का खिलना और प्रकृति के पालने में किसी नवजीवन का आगमन इन सब में एक समानता है , ये बरबस याद दिलाते हैं कि अभी जीवन में रंग शेष है , संगीत शेष है , सुगंध शेष है , नृत्य शेष है ...........

तब तक के लिए आज्ञा दीजिये , अमित के प्रणाम स्वीकार करें..... 


शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

खामोश लबों से "एक पहर दिनमान शेष है"

   
     पहले-पहल यही कह दूँ कि यह कोई समीक्षा नहीं है, क्योंकि इन कृतियों को लेकर मैं समीक्षात्मक हो ही नहीं सकता और एक बात यह भी है कि मेरी इतनी क्षमता नहीं कि इन पर कोई समालोचना प्रस्तुत कर सकूं । समझ लीजिये कि यह आंतरिक प्रसन्नता है जिसे मैं आप तक पहुँचाने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ ।

पहली किताब है  "एक पहर दिनमान शेष है", यह श्री निर्मल चंद 'निर्मल' जी का  पन्द्रहवां प्रकाशित संग्रह है ।


   
     जब ककहरा भी ठीक से ना आता हो तब से एक कवि के कवितापाठ को सुनना, चाहे उसका एक शब्द भी पल्ले ना पड़ता हो और फिर वयस आ जाने पर यह मालूम होना कि यह भी एक संस्कार था जिसमें तुम्हें दीक्षित किया गया , कुछ इसी प्रकार का अनुभव रहा है मेरा दादाKabi Nirmal Chand Nirmalजी, के साथ. एक शिक्षक , एक कवि होने से पहले वो मेरे लिये परिवार के एक बुजुर्ग हैं। 

     दादा की अशेष ऊर्जा "उठाओ कुदाली" से लेकर "एक पहर दिनमान शेष है" तक अविरल प्रवाहमान है | छंदों से लेकर मुक्तकों तक दादा की कलम संप्रभावी रूप से गतिमान है, दादा के लिये विषयों का कभी कोई बंधन नहीं रहा प्रस्तुत कृति के सन्दर्भ में दादा कहते हैं "जहाँ सृजन हुआ, विसर्जन उसकी नियति है" . किताब से शीर्षक कविता का एक अंश जिसको दादा ने आत्मकथ्य स्वरूप कहा है : 

" तैयारी में क्या ले जाना सोच समझकर आगे बढ़ 
जग से बहुत लड़ा है तूने अपने से भी थोड़ा लड़ 
चेहरे के सब दाग मिटा दे कुंठाओं को तिरोहित कर 
सहज भाव अब धारण कर ले खोटी करनी पर मत अड़ 

एक पहर दिनमान शेष है ढलने की बेला आ गई 
सजधज ले तू साजन के घर चलने की बेला आ गई | "

दूसरी कृति है श्रीमती सौदामिनी वेंकटेश जी की "खामोश लबों से" , 



     
श्रीमती Soudamini Venkateshजी की 'खामोश लबों से' के हाथों में आते ही आत्मीयता के सुखद अहसास से सरोबार हो गया हूँ , शुक्रिया अता करने के लिये अल्फाज़ नहीं मिल रहे हैं | आपका तखल्लुस है "अजनी " , पेश है इसी किताब से आपकी नज़्म का एक भिगो देने वाला हिस्सा :

" हम तुम्हें इतना प्यार करते हैं 
एक महर की गुहार करते हैं 


तेरे दर पे 'अजनी' को जगह जो मिले 
जिन्दगी जीने की वजह ही मिले 
यह दुआ बार बार करते हैं 
एक महर की गुहार करते हैं 
हम तुम्हें इतना प्यार करते हैं "

     मुझे इस आत्मीयता, स्नेह और आशीष से तरबतर कर देने का शुक्रिया, फिर-फिर शुक्रिया आप दोनों ही दीर्घायु हों , शतायु हों और हम सदा आपके स्नेह की छाँव तले रहें, अमित के प्रणाम स्वीकार करें ........

 

सोमवार, 7 जुलाई 2014

वेद : प्राप्त करें, पढ़ें और जानें



     भारतीय चिन्तन का ग्रन्थ रूप सबसे पहले वेदों में मिलता है। ऋग्वेद विश्व का सबसे पहला ग्रंथ है। वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद्, यह वैदिक साहित्य हैं। वेद चार हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद में इन्द्र, अग्नि, विष्णु, मित्रा और वरुण जैसे देवताओं की स्तुतियाँ हैं, और कई दार्शनिक तथा सामाजिक चिन्तन हैं। यजुर्वेद में यज्ञ करने तथा अन्य यज्ञ संबंधी विषयों पर विचार है। सामवेद गायन विद्या का आधार है। ऋग्वेद की ऋचाओं को साम के रूप में सामवेद में प्रस्तुत किया गया है। अथर्ववेद में सामाजिक और राजनैतिक विषय , रोगनिवारक आदि विविध मन्त्र हैं। 

     हम में से बहुत से सुधी जन वेदों का अध्ययन करना चाहते हैं, जानना चाहते हैं कि वेदों में क्या है | इस संबंध में बहुत विस्तार में ना जाते हुए कुछ मूलभूत बातों को जानना आवश्यक है : 

· वेदों को किसी मनुष्य ने नहीं रचा है, इसलिये इनको “अपौरुषेय” कहा जाता है । 

· वेदों में जो मन्त्र हैं उन्हें “ऋचा” कहते हैं , इनकी भाषा संस्कृत का वैदिक रूप है । 

· वेदों के मन्त्रों का समुच्चय संहिता कहलाता है , यथा “ऋग्वेद संहिता , यजुर्वेद संहिता .....”

· किसी मन्त्र, ऋचा का ज्यों का त्यों स्वरूप “मूल” या “यथारूप” कहलाता है। इसके अनुवाद मात्र को सरल अर्थ, भावार्थ या मात्र अर्थ भी कहा जाता और जब पाठक-वाचक को समझाने की दृष्टि से इस अनुवाद का अन्य ग्रन्थों से सन्दर्भ लेते हुए सविस्तार भाव-पल्लवन किया जाता है तो उसे “भाष्य, तिलक या टीका ” कहते हैं ।  ( यह बात मात्र वेदों के लिये ही नहीं अपितु सभी ग्रन्थों के सन्दर्भ में कही गई है ) 

     इसके बाद यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि अध्ययन हेतु वेदों की उपलब्धता कैसे हो ? संस्कृत, विशेषत: वैदिक संस्कृत को समझना सरल नहीं हैं ।  इसलिए मूल मन्त्रों के साथ उनका अर्थ और भाष्य अगर हिन्दी में प्राप्त हो जाए तो जिज्ञासु सुगमतापूर्वक उनका अध्ययन कर सकते हैं, बहुत से विद्वानों का तो यहाँ तक कहना है कि वेद-मन्त्रों का अर्थ भी गूढार्थ ही है, फिर भी कुछ विद्वानों ने इस महती कार्य को सम्पन्न किया है।  इस लेख में आगे आपको इंटरनेट पर उपलब्ध वेदों ( मूल सभाष्य ) के हिन्दी प्रकाशन, उनके भाष्यकार और उनके प्राप्ति स्थान के बारे में बताने जा रहे हैं : 

1 . स्वामी दयानन्द सरस्वती : इनके द्वारा प्रस्तुत “ऋग्वेद” व “यजुर्वेद” का भाष्य ( इनके द्वारा प्रस्तुत अन्य वेदों का भाष्य उपलब्ध नहीं है ) , स्वामी दयानन्द जी द्वारा प्रस्तुत “ ऋग्वेद” भाष्य सात ( 7 ) खंडो में उपलब्ध है, जिनमें ऋग्वेद के दस मंडलों में से सात का ही भाष्य है ।   और “यजुर्वेद” भाष्य चार ( 4 ) खंडो में उपलब्ध है । 

2.. पं. जयदेव शर्मा : इनके द्वारा प्रस्तुत चारों वेदों का भाष्य उपलब्ध है जिनमें “ ऋग्वेद” भाष्य सात ( 7 ) खंडो में है , “यजुर्वेद” भाष्य दो ( 2 ) खंडो में है, “सामवेद” भाष्य एक ( 1 ) खंड में है और “अथर्ववेद” भाष्य चार ( 4 ) खंडो में उपलब्ध है ।  

3. पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार : इनके द्वारा प्रस्तुत चारों वेदों का भाष्य उपलब्ध है जिनमें “ ऋग्वेद” भाष्य सात ( 7 ) खंडो में है , “यजुर्वेद” भाष्य दो ( 2 ) खंडो में है, “सामवेद” भाष्य दो ( 2 ) खंड में है और “अथर्ववेद” भाष्य तीन ( 3 ) खंडो में उपलब्ध है । 

4 . पं. श्रीराम शर्मा “आचार्य” : इनके द्वारा प्रस्तुत चारों वेदों का भाष्य उपलब्ध है ।  ( इनके खंड-विभाजन की चर्चा आगे करेंगे ) 




     उपरोक्त वर्णित चारों भाष्यकारों में से प्रथम तीन (स्वामी दयानन्द सरस्वती,पं.जयदेव शर्मा एवं पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार ) द्वारा प्रस्तुत भाष्यों को http://www.aryamantavya.in/category/download/vedas-hi-download/ से सीधे डाउनलोड कर सकते हैं | यह सभी पूर्ववर्णित खंडानुसार PDF फाइल के रूप में उपलब्ध हैं ।
     
     चौथे भाष्यकार, पं. श्रीराम शर्मा “आचार्य” द्वारा प्रस्तुत भाष्य को सुगमता पूर्वक डाउनलोड कर सकने की दृष्टि से अनेक छोटी-छोटी PDF फाइल के रूप में बाँटा गया है, इन्हें आप http://literature.awgp.org/hindibook/vedPuranDarshan/ से डाउनलोड कर सकते हैं, लेकिन आपको यहाँ पर लॉग इन करना होगा, और इसके लिये आप नि:शुल्क खाता बना सकते हैं , जो कि कठिनता से 5 मिनिट का ही कार्य है । 

     आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप इस जानकारी का लाभ उठाते हुये स्वयं वेदों का अध्ययन करेंगे और अपने मित्रों, संबंधियों को तत्संबंध में प्रेरित करेंगे ।  यह पुस्तकें पीडीऍफ प्रारूप में है, जिसका अध्ययन आप Adobe Reader पर कर सकते हैं | तत्संबंध में कोई समस्या होने पर नि:संकोच सम्पर्क करें ।  

    हमेशा की तरह मुझे आपके अमूल्य सुझावों की बहुत जरूरत है , उम्मीद है आप मुझे इनसे पुरुस्कृत करेंगे । तब तक के लिए आज्ञा दीजिये , अमित के प्रणाम स्वीकार करें.....