हमारे घर के पास एक चौक है, जहाँ अक्सर खेल-तमाशे दिखाने वाले अपने करतब दिखाते हैं। आजकल तो किसी के पास यह सब देखने की फुरसत ही नहीं पर एक समय हुआ करता था जब यह मनोरंजन का प्रधान साधन थे और खेल-तमाशा दिखाने वाले की प्रतिभा को दिल खोल कर तारीफों और अन्य तरीकों से पुरुस्कृत किया जाता था। कई बार तो ऐसा भी होता था कि एक मदारी खेल दिखा रहा हो और दूसरा उस जगह पर कब्जा लेने को प्रतीक्षा में खड़ा दिखता था ।
इतवार का दिन तो जैसे इसके लिए आरक्षित था। तब हम हाफ पैन्ट पहनने वाले, सुडकती नाक को आस्तीन से पोंछने वाले बच्चे थे। खेल-तमाशा दिखाने वाले जनसमूह को आकर्षित/आमंत्रित करने के लिए बीन या मुंह से बजने वाला कोई वाद्य बजाया करते थे; तो हमारा भी मोहित हो जाना स्वाभाविक था। पर हम यार-दोस्त वहाँ जाने से पहले एक इमली जेब में रखना नहीं भूलते थे।
अब जैसे ही बाजीगर बीन बजाता हम सब छुप-छुप के उसके सामने इमली लहराने लगते। इमली देखकर उसके मुंह में पानी भर आता और बीन के सुर आड़े-टेढ़े निकलने लगते, फिर मदारी बीन बजाना बंद करके पहले हम लोगों को खदेड़ा करता था; और अगर कोई अगला बाजीगर कतार में हुआ तो वह बीन बजाने से पहले सावधान निगाहों से हमें खोज लिया करता था। हमारा तमाशा तो इतने में ही हो जाता था। यह बात और है कि इमली का वार कभी खाली नहीं गया......
अब अपने अमित को आज्ञा दीजिये, कृपया मेरे प्रणाम स्वीकार करें ।
छायाचित्र साभार : विकीपीडिया
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दिलचस्प संस्मरण
जवाब देंहटाएंआपने अपने अमूल्य समय का योगदान देकर इसे पढ़ा और सराहा , अनुग्रहीत हूँ !
हटाएंश्री नेकचंद जी को विनम्र श्रद्धांजलि __/\__, इस संस्मरण को ब्लॉग बुलेटिन में स्थान देने हेतु हार्दिक धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंशुक्रिया :)
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