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बुधवार, 20 अप्रैल 2016

प्रेम







" प्रेम प्रेम और प्रेम 
इस परिभाषा के इर्दगिर्द
कितनी बातें कहीं गईं
ना जाने कितनी सुनी गईं


विच्छेदन जाने हुए कितने
और इस एक प्रेम में 
रक्त अस्थि मज्जा स्नायु 
नाड़ी तंत्र पाये कितने

प्रयोगों के निष्कर्ष लिखे गये
प्रेम शोध के नये बिंदु गढ़े गये
पर यह कभी ना बदल सका 
लाख जतन बदलने किये गये

सुनो प्रेम चुप हो जाता है 
यह बस सुनता है 
कहता नहीं बताता नहीं कोई नेम 
प्रेम प्रेम और प्रेम "

© डॉ. अमित कुमार नेमा

चित्र  साभार :  गूगल  छवियाँ  

सोमवार, 18 अप्रैल 2016

// वर्णान्धता ( Colour blindness ) //


मोटे तौर पर 'वर्णान्धता' से आशय एक ऐसी अक्षमता से है जब व्यक्ति रंगों को देख नहीं पाता या रंगों के बीच अंतर नहीं कर पाता है। इसके बहुत से कारण हैं और यह कई प्रकार की होती है।

साथ में दिए गये चित्र को देखें तो इस एक ही चित्र में सामान्य व्यक्ति को '74' लिखा हुआ दिखेगा; जबकि एक किस्म की वर्णान्धता से ग्रसित व्यक्ति को इसमें '21' और एक अन्य तरह की वर्णान्धता से ग्रसित व्यक्ति को इसमें कोई भी अंक नहीं दिखेगा। अलग-अलग प्रकार की वर्णान्धता की पुष्टि हेतु जापान के 'प्रो.इशीहारा' ने इस तरह के कई प्रारूपचित्र विकसित किये हैं।

सेना, यातायात सहित बहुत से क्षेत्रों में रंगों का बहुत महत्व है इसलिए वर्णान्ध व्यक्ति को इन क्षेत्रों के कामों के लिए अनुपयुक्त माना जाता है।

यह तो हुई शारीरिक वर्णान्धता की बात लेकिन हमारे समाज में एक मानसिक वर्णान्धता भी पाई जाती है। एक ही जैसे विचार या परिस्थितियों को लेकर जब हमारा पक्ष हो तो रंग हमें कुछ और दिख पड़ते हैं और दूसरे का हो तो कुछ और....


सोमवार, 21 मार्च 2016

कविता का जन्म

विता का जन्म निश्चय ही करुणा से हुआ है | किसी घटना से जब मानव मन के अंतरतम स्तर पर स्पर्श होता है तो काव्य प्रकट हो जाता है | इस विश्व का प्रथम पौरुषेय काव्य ग्रन्थ महर्षि वाल्मीकि की रामायण को कहा जाता है | महर्षि वाल्मीकि को इसी लिए आदिकवि भी कहा जाता है |

रामायण में ही उल्लेखित है कि एक बार जब आदिकवि स्नान के लिये वन प्रान्त में गये तो वहाँ की सुषमा को निरखते हुए उन्होंने एक वृक्ष पर प्रणयातुर क्रौंच ( सारस ) युगल को देखा, काम के वशीभूत होकर वह खग-दम्पत्ति प्रेमालाप में मग्न था, तभी बहेलिये के चलाये एक तीर ने क्रौंच को वेध डाला, ह्त्प्राण पक्षी धराशायी हो गया |



अभी उस दम्पत्ति का प्रेमगान पूर्ण भी नहीं हो पाया था,  अभी वह दोनों अपने पंखो को पसारे अपने आनन्द नृत्य में उन्मत्त ही थे और प्रियतमा का जीवन-आधार रक्त से लथपथ, छटपटाता हुआ काल के गाल में समा जाने को उत्सुक भूमि पर तड़प रहा था | क्रौंची भीषण आर्तनाद कर उठी, काल की यह निष्ठुर लीला देखकर, खग-पत्नी का यह प्रस्तर प्रगालक करुण विलाप सुनकर और इस पाप पूरित हिंसा कर्म का वीक्षण कर महामुनि शोकाकुल हो गए, उनका हृदय भर आया और अकस्मात उनके मुंह से यह श्राप निकल पड़ा :- 

मा निषाद प्रतिष्ठाम त्वमगम: शाश्वती: समा:
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम | ’

( अर्थ : रे व्याध ! कामपीड़ित क्रौंच के जोड़े में से तूने एक को मारा, अतएव अब तू संसार में बहुत दिन न रहेगा | अर्थात तेरा शीघ्र नाश हो )

जगत् का यह पहला श्लोक था, श्रापरूपी यह वचन छंदोंबद्ध था, विश्व में इसके पूर्व वाणी छंदोंबद्ध न थी | इस प्रकार पृथ्वी में काव्य का जन्म हुआ जिसकी जननी करूणा थी, है और रहेगी |

चलते-चलते आपको बताना चाहूँगा कि आज 'विश्व कविता दिवस ' है ; यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन) ने प्रति वर्ष 21 मार्च को कवियों और कविता की सृजनात्मक महिमा को सम्मान देने के लिए यह दिवस मनाने का निर्णय किया। यूनेस्को ने 21 मार्च को विश्व कविता दिवस के रूप में मनाने की घोषणा वर्ष 1999 में की थी। विश्व कविता दिवस के अवसर पर भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय और साहित्य अकादमी की ओर से सबद-विश्व कविता उत्सव का आयोजन किया जाता है।



शनिवार, 19 मार्च 2016

जाल




क्या कभी फँसते देखा है 
मकड़ी को अपने ही जाल में 
उसने खुद बुना है इसे 
फँसने का डर नहीं उसे


उसे पता है 
कहाँ से निकलना है 
किधर पहुँचना है 
किसे कब कैसे फँसाना है

और जकड़ के 
अपना जहर भर के 
जीते-जी है पचा देना 
उत्कटता चूस लेना

जिस दिन तुम जाल से 
बचना सीख लोगे
उस दिन तुम जाल भी 
बुनना सीख लोगे

खुद ही मकड़ी बन जाओगे

शब्द : डॉ.अमित कुमार नेमा
छायाचित्र  : नेशनल ज्योग्राफिक 






बुधवार, 2 मार्च 2016

जीवन परीक्षा



ह बात लगभग 6-7 वर्ष पूर्व की है. हमारा स्वैच्छिक संगठन मध्यप्रदेश शासन द्वारा ऑनलाइन प्रदत्त की जाने वाली सेवाओं को जनता तक पहुँचाने का सुविधा केंद्र चलाता है. ऐसे में एक ग्रामीण आदिवासी छात्रा ने हमारे यहाँ से कक्षा 12 में स्वाध्यायी छात्र के रूप में परीक्षा में सम्मिलित होने का आवेदन किया.

आवेदन करने के करीब 3 माह बाद ( जबकि परीक्षायें शुरू होने वाली थी ) यह छात्रा हमारे सुविधा केंद्र पर आई और उसने बताया कि आज उसकी प्रायोगिक परीक्षा है लेकिन उसका प्रवेश पत्र ना होने के कारण उसे परीक्षा में शामिल नहीं होने दिया जा रहा है. यह बात जब मुझे बताई गई तब मैंने सभी आवश्यक कागजों के साथ संकुल केन्द्राध्यक्ष को पत्र लिखकर उक्त छात्रा को परीक्षा में उपस्थित होने देने का निवेदन किया लेकिन केन्द्राध्यक्ष ने ना तो रोलकॉल होने और ना ही प्रवेशपत्र होने से ऐसा करने में अपनी असमर्थता जताई.


इस भागदौड़ में शाम हो गई और वह बालिका प्रायोगिक परीक्षा में शामिल नहीं हो सकी, शाम को जब वह मुझसे मिलने पहुँची तो संयोगवश मेरी जगह उसकी भेंट हमारी माँ से हो गई और उसने यह सारा घटनाक्रम माँ को सुनाया ( स्वाभाविक है कि बताते हुए वह रोने लगी ), माँ ने यह सब सुनकर उसे सांत्वना दी, खाना खिलाया और कहा कि धीरज रखो कोई ना कोई रास्ता जरुर निकलेगा.



रात में जब माँ ने मुझे यह बताया तो मैंने अगले दिन के पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम स्थगित करके इस बारे में कुछ करने की ठानी. अगले दिन कार्यालयीन समय शुरू होते ही मैंने माध्यमिक शिक्षा मंडल (म.प्र.) भोपाल को फोन लगाना शुरू किया और सचिव महोदया से बात करवाने की अपील की. कई बार फोन लगाने के बाद दोपहर बाद 3-4 बजे के लगभग मेरी उनसे बात हो सकी और मैंने उन्हें इस की जानकारी दी. उन्होंने सकारात्मक रूख अपनाते हुए मुझे आश्वासन दिया कि "आज रात तक सारे प्रवेशपत्र मंडल की वेबसाइट पर अपलोड कर दिए जायेंगे और डाउनलोड किये हुए प्रवेशपत्र की मान्यता भी मूल के बराबर ही रहेगी " तब मैंने उनसे कहा कि " लेकिन जो छात्र/छात्रा इनके अभाव में प्रायोगिक परीक्षाओं से वंचित हो गये हैं, उन्हें तो संबंधित विषय में पूरक (supplementary) आ जायेगी" इस बात पर गौर करते हुए उन्होंने पुन: निर्णय लेते हुए कहा कि " प्रवेशपत्र ना होने के कारण जिनके साथ ऐसा हुआ है, बिना पूरक दिए हुए उनकी प्रायोगिक परीक्षायें दोबारा आयोजित करवा दी जायेंगी" यह सुनकर मुझे असीम संतोष हुआ.

इसके बाद मैंने उक्त छात्रा का प्रवेशपत्र डाउनलोड करवा कर अपने एक सहायक के हाथों उसके दूरस्थ घर तक पहुँचाया और उसे यह जानकारी दी कि वह यह सोचकर मन छोटा ना करे कि वो प्रैक्टिकल परीक्षा में फेल हो जायेगी, अपने पहले पेपर के दिन वह आकर माँ और मुझसे मिली भी. दो या तीन दिन बाद मुझे मंडल से फोन आया और जिससे पता चला कि यह समस्या सारे प्रांत में बहुत सी जगहों पर थी और मेरे द्वारा समय रहते सूचना देने के कारण हल हो गई.

हर साल जब भी बोर्ड परीक्षायें शुरू होती हैं तो यह वाक्या बरबस याद आ जाता है.


छवि साभार : दैनिक ट्रिब्यून  



सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

नशे में कौन नहीं है मुझे बताओ जरा


खिर नशे का इतना आकर्षण क्यों है? हर सरकार लगातार नशीले और मादक पदार्थ महँगे कर देती है; बावजूद इसके इनकी बिक्री में कोई कमी नहीं आती, बल्कि बढ़त ही होती है,जबकि नशा एक सामाजिक बुराई है।

नशे का इतना आकर्षण है ही इसीलिये क्योंकि नशा, व्यक्ति को उसकी वास्तविक जिन्दगी से दूर ले जाता है। काल्पनिक ही सही पर उस दुनिया में ले जाता है जहाँ सबकुछ उसके मुताबिक़ होगा। यह अधिकार वह अपने असली जीवन में नहीं पाता, अत: इसे प्राप्त करने को या महज ख्याली जीने को ही वह इसका सहारा लेता है, ( यह जानते होने के बाद भी कि नशा घातक है) फिर वो नशा चाहे शराब का हो, पैसे का हो या ज्ञान ही का क्यों ना हो !



दूध की दुकान किसी निर्जन स्थान में हो , दुकानदार भूखा मर जाएगा लेकिन दारु की दुकान काले कोस भी हो तो ग्राहक शिद्दत से जाएगा ! अगर हम इससे अधिक बड़े आकर्षण मानवीय जीवन में साकार कर लें तो नशा फिर ठहर नहीं सकता पर यह मात्र एक परिकल्पित (Hypothetical) बात है।

सभी सरकारें और व्यापारी इस बात को अच्छे से जानते हैं। इसलिए इन्हें महँगा करके अपनी जेबें भरते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि आदमी के गम और अरमान इतने हैं कि चाहे इनके दाम कितने भी बढ़ा दो मुनाफ़ा कम होने वाला नहीं है।

चित्र साभार : गूगल छवियाँ





गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

समय तुम




" भी टिक-टिक करती सुई 
सुन के भी अनसुनी कर दी 
कभी घड़ी पर हाथ रख दिया 
तो कभी काँटा ही थाम लिया


समय तुम मेरे वश में नहीं 
तुम्हें रोकने का पर हर 
जतन कर लिया 
कहीं तो ठहर जाओ 
कि अपना रूखा-सूखा सब कुछ 
हमने तुम्हारे नाम कर दिया

कभी घड़ी पर हाथ रख दिया 
तो कभी काँटा ही थाम लिया....."

© डॉ. अमित कुमार नेमा