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सोमवार, 3 मार्च 2014

कहाँ ऐंसा याराना

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बात उन दिनों की है जब हम भोपाल में कॉलेज में थे , हम बहुत से दोस्त जो भोपाल के बाशिंदे नहीं थे, कोह-ए-फिज़ा में पास-पास ही रहा करते थे ।  अक्सर बिहारी मामा की दुकान पर नाश्ता करते हुये और बन्ने मियाँ के यहाँ चाय पीते हुये हमारी टोली इकठ्ठी हो जाती थी । ऐंसे ही मस्ती करते हुए हमारी टोली की दोस्ती सैफ भाई से हो गयी, हमलोगों के हमउम्र ही थे । ये सैफ भाई अपने आपको सैयद सैफ कहलवाना पसंद करते थे और हम भविष्य के डॉक्टरों से बड़े प्रभावित थे, तो हमारे दोस्त सैफ साहब खूबसूरत भी थे, दिल के मासूम और रईसजादे भी लेकिन बावजूद इन तमाम खूबियों के सैफ भाई की कोई गर्लफ्रेंड नहीं थी, थोड़े बहुत खुद्दार किस्म के आदमी थे तो कभी ये बात सीधे-सीधे तो नहीं कही.…………

       लेकिन जनाब, दिल का दर्द छुपाये नहीं छुपता और वो भी दोस्तों के बीच ? हरगिज़ नहीं , तो हम लोग ये बात ताड़ गये ।  हमारे एक रूममेट एक कला में माहिर थे , वो अपनी आवाज़ को इतना बारीक़ , दिलकश बना लेते थे कि कोई फोन पर उनकी बात सुने तो किसी हसीना की तस्वीर ही सामने उभर आये, उन्होंने इस दुःख की दवा करने की ठानी , और सैफ भाई को अपने फोनेटिक मायाजाल में फंसाना शुरू किया । 

अँधा क्या चाहे ? दो आँखे

     सैफ भाई के मन की मुराद तो ऐंसे पूरी हुई कि मेहनत भी न करना पड़ी और लड़की, दोस्त बन गई ।  “खुले मुंह में आम टपक गया” । हम सब शाम को बड़ी झील के किनारे वी.आई.पी. रोड पर टहलने जाते थे , सैफ भाई में आये बदलावों को नोट करके मन ही मन उनके मजे लेते थे वो अब बड़े मस्त रहने लगे थे । हफ़्ता भर होते न होते सैफ भाई “फोन वाली अज्ञात सुन्दरी” के इश्क़ में फुलटू गिरफ्तार हो गये । यहाँ तक कि हम लोगों को भी टालना शुरू कर दिया अब हम लोगों को तो सब मालूम ही था फिर भी अनजान बन के सैफ भाई से पूछते थे वो बड़ी अदा से कहते  " क्या बताऊं यार नेमा , हाय कितनी प्यारी बातें करती है । "  हम सब उनको जलन होने का दिखावा करते । बोले तो १० दिन झक्कास फ़िल्मी डिरयामा किया मंडली ने ...............



     तो देवियों और सज्जनों, सैफ भाई की हालत " मैं तेरे प्यार में पागल ऐंसे घूमता हूँ " जैसी हो गई और सैफ भाई अपनी फोन वाली प्रेमिका से मिलने का पुरज़ोर इसरार करने लगे, लेकिन फोनेटिक अप्सरा भी कोई कम नखरों वाली तो थी नहीं जो ऐंसी आसानी से हाथ आ जाती।  इधर , मोहब्बत में सालम कैद, सैफ भाई की हालत दिनोंदिन गम्भीर होती जा रही थी तो हम, इस योजना आयोग के सदस्यों ने एक आपातकालीन बैठक आहूत की, कि अब इस मामले का पटाक्षेप कैसे करना है ? सभासदों ने एकमत से प्रस्ताव पारित किया :

" आशिक का जनाज़ा है, जरा धूम से निकले "

     फोन वाली महबूबा ने एक शाम को मिलने की हामी भर दी । उस शाम सैफ भाई हम लोगों के साथ सायंकालीन सैर पर नहीं गये और हम लोग भी अपनी सैर के मामूली प्रोग्राम में रद्दोबदल कर जल्दी लौट आये, आखिर हमें भी तो इश्क़िया ज़नाज़े में शरीक होना था । माशूका ने मिलने की जगह बिट्टन मार्केट में आमेर बेकरी मुकर्रर की । हम सैफ भाई की माशूका को साथ लेकर तयशुदा मुकाम पर पहुंचे और हम दोस्त जिनमे मैं भी शामिल था "सैफ भाई की माशूका" के साथ आमेर बेकरी में एक अच्छी सी मौके की टेबल ( जहाँ से बाहर का नज़ारा किया जा सके ) पर कब्जा करके बैठे और बैठते ही साथ एस्प्रेसो काफी का आर्डर किया और चुसकने लगे । 

     और जैसा कि अपेक्षित था उस हसीन शाम के एक खूबसूरत लम्हें में सजे-धजे, दमकते-महकते, अपना नूर फिजाओं में बिखराते सैफ भाई जलवा-अफरोज़ हुये और बडी शाईस्तगी के साथ अपनी कार से बाहर कदम रखा ।  सैफ भाई ने बाहर से ही सुनिश्चित किया कि उनकी रातों की नींद , उनके इंतजार में बैठी है और तब उनके लबों पर जो मुस्कुराहट आई भगवान झूठ न बुलवाये वो तो फ्रेम कराने लायक थी ।  सैफ ने अंदर आते ही साथ किसी अकेली बैठी लड़की की उम्मीद में एकबारगी सभी टेबलों पर नजर दौड़ाई इस कसरत में उनकी निगाह मंडली पर भी गई लेकिन कुछ सोच के उन्होंने हमें नजरअंदाज कर दिया और कुछ हटकर कर दूसरी टेबल पर बैठ गये । 

     उनके अंदर कदम रखते ही उनकी माशूका ने अपना फोन साइलेंट मोड पर डाल लिया था, इधर सैफ भाई बड़ी कसमकस में थे और उधर मंडली ने पेस्ट्री का आर्डर कर दिया ।  सैफ भाई बीच-बीच में कनखियों से हमें देखते जाते थे और हमें भी अंदेशा सताने लगा कि कहीं पंछी फुर्र ना हो जाये तो जादू के नम्बर को वापिस रिंग पर कर दिया गया ।  और अबकी बार सैफ भाई ने जैसे ही फोन किया उसकी घंटी हमारे बगल में बैठे आशुतोष के फोन पर बजी , जी हाँ यही थे या कहें थी हमारी सैफ भाई की मंजिल-ए-मकसूद ।  घंटी के तत्काल बाद बेकरी में एक जोरदार ठहाका गूंजा वो तो शुक्र मनाइये कि बेकरी की छत ही न उड़ गई | सारा माज़रा अब सैफ भाई की समझ में आ गया और वो हमारी टेबल की ओर लपके फिर तो पेटिस, पेस्ट्री और कॉफ़ी के जो दौर चले कहने की जरूरत नहीं कि सारा बिल सैफ भाई ने ही चुकाया ।  हमने तो १० दिन भरपूर मजे लिए ही थे , सैफ भाई भी शिकायत करते-करते हँस ही दिये ।  उसके बाद जब तक हम भोपाल में रहे सैफ भाई मंडली के खासुलखास मेम्बरान रहे और फिर कभी सैफ भाई ने महिलामित्र होने की शिकायत नहीं की । 

( यह कहानी १००% सत्यघटना है और पहचान छुपाने के मकसद से पात्रों के नाम परिवर्तित नहीं किये गये हैं, रहा नहीं गया सो कहानी सुना दी , कहा सुना माफ़ करना )

5 टिप्‍पणियां:

  1. यह जीवन क्या है निर्झर है
    मस्ती ही इसका पानी है
    सुख-दुःख के दोनों तीरों से
    चल रहा राह मनमानी है......
    मस्ती जिन्दगी का एक अनिवार्य हिस्सा है। अतः भले ही राहे जिन्दगी में कितनी ही दुश्वारियां क्यूँ न हो। हमे मस्ती करने का एकलौता मौका भी नही छोरना चाहिए क्यूंकि न केवल यह हममे सकारात्मक उर्जा का संचार करता है बल्कि हमे आज के इस भागमभाग वाले जिन्दगी रूपी सफ़र में अनावश्यक तनाव से भी बचाता है और आपका ये अनुभव फिर से हमारी जिन्दगी को वही पर लाने को मजबूर कर रहा है.....
    अपनी तो पाठशाला;मस्ती की पाठशाला

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  2. वाह स्वप्निल जी , बहुत सुंदर पद और हमेशा की तरह दिली ख़ुशी देने वाली टिप्पणी , हार्दिक आभारी हूँ ! धन्यवाद

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  3. जानकर अत्यंत प्रसन्नता हुई, | मेरी पोस्ट को आज के ब्लॉग बुलेटिन में शामिल करने हेतु हार्दिक धन्यवाद , कृपया सहयोग का क्रम बनायें रखें यह मेरे लिये नितांत आवश्यक है |

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  4. :-) यूँ ही तो मज़ा है जीने का......
    यारियां........गुस्ताखियाँ........

    अनु

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    1. आपने यह संस्मरण पढ़ा और जिस तरह इसकी भावनाओं में सम्मिलित होते हुये जो टिप्पणी की उसके लिए आपका हृदय से आभारी हूँ | आपकी जानकारी के लिये निवेदन है कि आप मेरे ब्लॉग पर सीधे अपने फेसबुक खाते से भी टिप्पणी कर सकती हैं, यह विकल्प किसी भी आलेख पर पेज में सबसे नीचे की ओर है ( पोस्ट के नीचे वाले टिप्पणी के विकल्प से भी नीचे ) |

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