क्या कभी फँसते देखा है
मकड़ी को अपने ही जाल में
उसने खुद बुना है इसे
फँसने का डर नहीं उसे
उसे पता है
कहाँ से निकलना है
किधर पहुँचना है
किसे कब कैसे फँसाना है
और जकड़ के
अपना जहर भर के
जीते-जी है पचा देना
उत्कटता चूस लेना
जिस दिन तुम जाल से
बचना सीख लोगे
उस दिन तुम जाल भी
बुनना सीख लोगे
खुद ही मकड़ी बन जाओगे
शब्द : डॉ.अमित कुमार नेमा
छायाचित्र : नेशनल ज्योग्राफिक
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " एक 'डरावनी' कहानी - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंशिवम जी , मेरी रचना 'जाल ' को ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " एक 'डरावनी' कहानी - ब्लॉग बुलेटिन " , मे शामिल करने हेतु ... सादर आभार !
हटाएंप्रभावी रचना
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया
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