भारत दर्शन : कैसे हो द्वारकाधीश
|| झाँकी हिंदुस्तान की :- इस श्रंखला की चौथी पाती ||
इससे पूर्ववर्ती पाती के लियें देखें : झांकी हिंदुस्तान की - जागो मोहन प्यारे
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गतांक से आगे :-
क्षमाप्रार्थी हूँ कि इस श्रंखला की यह चौथी पाती प्रस्तुत करने में मामूली से अधिक देर हो गई, आशा है आपने इस बीच ब्लॉग पर प्रकाशित अन्य आलेखों का आनन्द लिया होगा । मैं अपनी बात शुरू करूँ उससे पहले आपको आज की पाती के शीर्षक के संबंध में कुछ बता देना चाहता हूँ , जैसा कि मैंने अपनी पिछली पाती में कहा था कि इस शीर्षक से जुडा हुआ एक बड़ा ही सुंदर , रोचक आख्यान भी है । तो लीजिये क्यों न हम अपनी यात्रा प्रारम्भ करें उसके पहले यह प्रसंग पढ़ लिया जाये , इसे आप यहाँ पर पढ़ सकते हैं :-कैसे हो द्वारकाधीश , आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आपने इस कथा के मर्म को आत्मसात किया होगा ।
दि. 19 नवम्बर 2009 , दिन : गुरूवार ::- बस की विंड-स्क्रीन पर उनके क्रमांक लिखे हुये थे , अपने लिए निर्धारित क्रमांक की बस में सवार हो गये जो कि अब हमें हमारे अगले पड़ाव यानि एक धर्मशाला ले जाने वाली थी , जहाँ पर हमारे स्नान और भोजनादि का प्रबंध था । प्रत्येक बस में एक केयरटेकर भी था जो कि गाडी के कर्मीदल का ही सदस्य था। सप्तपुरियों और चार धामों में से एक द्वारका के मार्गों से होते हुये हम पहुंचे उस धर्मशाला जो कि हमारा अल्पकालीन पड़ाव था , इस का नाम था "परम पूज्य संत श्री कानदास बापू आश्रम, द्वारका" , यह आश्रम जामनगर रोड पर है । यह पहले-पहल मौका था जब हम अपने सभी सहयात्रियों के साथ रेल से कहीं बाहर आये थे , और हमने यह अनुभव किया कि हम सब जो लगभग 10 बसों से वहाँ पहुँचे थे , जब एक साथ कहीं जाते हैं तो स्वत: वहाँ भीड़ हो जाती है ।
इस जगह पर भी इतने लोगों के हिसाब से शौचालय और स्नानघर पर्याप्त नहीं थे । पर जितने भी थे स्वच्छ और व्यवस्थित थे । लेकिन हमारे साथ फिर वही समस्या हो गयी कि अगर हम जलदबाज़ी करें तो शिष्टाचार का उल्लंघन होता और प्रतीक्षा करें तो काफ़ी समय गुजारना पड़ता क्योंकि जैसा कि आप जानते हैं हमारे सहयात्रियों में बुजुर्गों के साथ-साथ महिलायें भी काफ़ी थी । फिर भी हमने इंतजार करने का ही निर्णय लिया, चूँकि सब पहली-पहली बार ही हो रहा था तो हम इन अनुभवों को महसूस करते हुये इनके समाधान पर भी विचार कर रहे थे ।
मैं और अंकित यही सोचते हुए आश्रम से बाहर आ गये , समुद्रतटीय इलाका होने से यहाँ आभास भी नहीं हो रहा था कि यह ठण्ड का मौसम है । बाहर आये तो कुछ स्थानीय निवासी पर परम्परागत वेशभूषा में मिले हमें जो हमारे बारे में जानने को उत्सुक थे , अब वो जो भाषा बोल रहे थे वो आधी-अधूरी ही हमारी समझ में आ रही थी , फिर भी हमने जैसे-तैसे उनको अपने बारे में बता दिया । उनके व्यक्तित्व और पहनावे ने हमें प्रभावित किया और हम लोगों की जाने किस चीज ने उनको प्रभावित किया , तो सोचा कि एक छायाचित्र तो ले ही लिया जाये जिसके लिये वो सहर्ष तैयार हो गये । एक ने तो बाकायदा वो बीड़ी जो हाथों में दबी हुई थी , उसको मुंह से लगाते हुये फरमाइश रखी कि जब मैं कश लूँ तभी फोटो लेना । हालांकि बीड़ी का धूँआ तकलीफ़देह था फिर भी मौके की नज़ाकत को समझते हुये हमने कुछ नहीं कहा ।
इस सब से फुरसत हो कर अंदर झाँकने गये तो लगा कि अब हमारे स्नान की व्यवस्था हो जायेगी । स्नानादि से निवृत हुये तो आश्रम के ही एक हाल में दोपहर के भोजन का प्रबंध था , यहाँ आपको बताते चलें कि जब कहीं भी दोपहर या रात्रि के भोजन का प्रबंध ट्रेन से बाहर होता था तब भी भोजन , रेलगाड़ी के रसोई यान से ही पकाकर और पैक करके निश्चित स्थान तक लाया जाता था । परोसने के लिए अतिरिक्त भोजन बड़े पात्रों में लाया जाता था । भोजन करने के बाद हमें आश्रम छोड़ना था , इसलिये सब अपने कपड़े, सामान बटोरकर अपनी अपनी बस की ओर चल पड़े । बहुतों से अपने कपड़े धो भी डाले थे तो वह भीगे हुये कपड़े बसों की खिडकियों पर सुसज्जित हुये अब यहाँ एक मज़ेदार घटना हुई, वो क्या थी ये आपको पाती के अंत में बताऊंगा ।
अब हम पहुंचे 'श्री नागेश्वर' द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं 'श्री नागेश्वर' , यह ज्योतिर्लिंग द्वारका से लगभग 27 कि. मी. की दूरी पर स्थित है , हमें तो द्वारका-पुरी के भ्रमण के लिये आवागमन की कोई व्यवस्था अलग से नहीं करना पड़ी, लेकिन जिनको ऐंसी आवश्यकता हो, वह आसानी से द्वारका-दर्शन के लिये बस प्राप्त कर सकते हैं जो लगातार उपलब्ध हैं | ऐंसी बहुत सी पर्यटक बसें हमने 'श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर ' के प्रांगण में देखी | हम जब यहाँ पहुंचे थे उन दिनों कोई उत्सव नहीं था इसलिये बहुत अधिक भीड़भाड़ नहीं थी | हमने बहुत ही आनंदपूर्वक भगवान भूतपावन नागेश्वर ( कहीं-कहीं इन्हें नागनाथ भी कहा जाता है ) का दर्शन लाभ प्राप्त किया | उत्तर भारत के देव-स्थानों की अपेक्षा यहाँ पर व्यवस्था अच्छी थी | मन्दिर परिसर , व गर्भगृह में भी स्वच्छता व व्यवस्था का स्तर उत्तम था । हमने भी भगवान नागेश्वर महादेव के दर्शन किये और प्रभु को धन्यवाद प्रेषित किया ।
इस जगह पर भी इतने लोगों के हिसाब से शौचालय और स्नानघर पर्याप्त नहीं थे । पर जितने भी थे स्वच्छ और व्यवस्थित थे । लेकिन हमारे साथ फिर वही समस्या हो गयी कि अगर हम जलदबाज़ी करें तो शिष्टाचार का उल्लंघन होता और प्रतीक्षा करें तो काफ़ी समय गुजारना पड़ता क्योंकि जैसा कि आप जानते हैं हमारे सहयात्रियों में बुजुर्गों के साथ-साथ महिलायें भी काफ़ी थी । फिर भी हमने इंतजार करने का ही निर्णय लिया, चूँकि सब पहली-पहली बार ही हो रहा था तो हम इन अनुभवों को महसूस करते हुये इनके समाधान पर भी विचार कर रहे थे ।
अंकित, कानदास बापू आश्रम के मुख्य द्वार के समीप |
मैं और अंकित यही सोचते हुए आश्रम से बाहर आ गये , समुद्रतटीय इलाका होने से यहाँ आभास भी नहीं हो रहा था कि यह ठण्ड का मौसम है । बाहर आये तो कुछ स्थानीय निवासी पर परम्परागत वेशभूषा में मिले हमें जो हमारे बारे में जानने को उत्सुक थे , अब वो जो भाषा बोल रहे थे वो आधी-अधूरी ही हमारी समझ में आ रही थी , फिर भी हमने जैसे-तैसे उनको अपने बारे में बता दिया । उनके व्यक्तित्व और पहनावे ने हमें प्रभावित किया और हम लोगों की जाने किस चीज ने उनको प्रभावित किया , तो सोचा कि एक छायाचित्र तो ले ही लिया जाये जिसके लिये वो सहर्ष तैयार हो गये । एक ने तो बाकायदा वो बीड़ी जो हाथों में दबी हुई थी , उसको मुंह से लगाते हुये फरमाइश रखी कि जब मैं कश लूँ तभी फोटो लेना । हालांकि बीड़ी का धूँआ तकलीफ़देह था फिर भी मौके की नज़ाकत को समझते हुये हमने कुछ नहीं कहा ।
इस सब से फुरसत हो कर अंदर झाँकने गये तो लगा कि अब हमारे स्नान की व्यवस्था हो जायेगी । स्नानादि से निवृत हुये तो आश्रम के ही एक हाल में दोपहर के भोजन का प्रबंध था , यहाँ आपको बताते चलें कि जब कहीं भी दोपहर या रात्रि के भोजन का प्रबंध ट्रेन से बाहर होता था तब भी भोजन , रेलगाड़ी के रसोई यान से ही पकाकर और पैक करके निश्चित स्थान तक लाया जाता था । परोसने के लिए अतिरिक्त भोजन बड़े पात्रों में लाया जाता था । भोजन करने के बाद हमें आश्रम छोड़ना था , इसलिये सब अपने कपड़े, सामान बटोरकर अपनी अपनी बस की ओर चल पड़े । बहुतों से अपने कपड़े धो भी डाले थे तो वह भीगे हुये कपड़े बसों की खिडकियों पर सुसज्जित हुये अब यहाँ एक मज़ेदार घटना हुई, वो क्या थी ये आपको पाती के अंत में बताऊंगा ।
अब हम पहुंचे 'श्री नागेश्वर' द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं 'श्री नागेश्वर' , यह ज्योतिर्लिंग द्वारका से लगभग 27 कि. मी. की दूरी पर स्थित है , हमें तो द्वारका-पुरी के भ्रमण के लिये आवागमन की कोई व्यवस्था अलग से नहीं करना पड़ी, लेकिन जिनको ऐंसी आवश्यकता हो, वह आसानी से द्वारका-दर्शन के लिये बस प्राप्त कर सकते हैं जो लगातार उपलब्ध हैं | ऐंसी बहुत सी पर्यटक बसें हमने 'श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर ' के प्रांगण में देखी | हम जब यहाँ पहुंचे थे उन दिनों कोई उत्सव नहीं था इसलिये बहुत अधिक भीड़भाड़ नहीं थी | हमने बहुत ही आनंदपूर्वक भगवान भूतपावन नागेश्वर ( कहीं-कहीं इन्हें नागनाथ भी कहा जाता है ) का दर्शन लाभ प्राप्त किया | उत्तर भारत के देव-स्थानों की अपेक्षा यहाँ पर व्यवस्था अच्छी थी | मन्दिर परिसर , व गर्भगृह में भी स्वच्छता व व्यवस्था का स्तर उत्तम था । हमने भी भगवान नागेश्वर महादेव के दर्शन किये और प्रभु को धन्यवाद प्रेषित किया ।
श्री नागेशं दारुकावन |
भगवान शिव की मुक्ताकाशी प्रतिमा |
मन्दिर परिसर में भगवान शिव की एक मुक्ताकाशी विशाल प्रतिमा भी है , जो कि अभी कुछ समय पहले ही निर्मित की गई है । बहुधा दक्षिण के शिल्पकारों द्वारा निर्मित शिव जी की यह प्रतिमाएं आप भारत के बहुत से हिस्सों में देख सकते हैं । इन प्रतिमाओं का शिल्पकौशल भी लगभग समान ही होता है तो अपने देश के पश्चिम में स्थित दो ज्योतिर्लिंगों में से एक के दर्शन लाभ और इस स्थान के महत्व को आत्मसात करने की कोशिश करते हुए हम निर्धारित समय में वापिस अपनी बस में आ गए । अब हमारी यात्रा शुरू हुई ' ओखा पोर्ट ' की ओर जहाँ से आगे हम 'बेट द्वारका' जाने वाले थे , वैसे इस मार्ग में ही ' गोपी तालाब ' भी है जहाँ कि मृत्तिका ' गोपी चन्दन ' के नाम से प्रसिद्ध है ।
इस रास्ते के एक और स्थान जिसका मैं जिक्र करना चाहूँगा वो है वह जगह बनता है 'देश का नमक' , जी हाँ !! इस रास्ते में मीठापुर नाम की जगह है जहां पर "टाटा केमिकल्स लिमिटेड" का बृहद कारखाना है । अगर आप गुजरात के मानचित्र को ध्यान से देखें तो इसका समुद्रतटीय हिस्सा एक खुले हुए मुंह जैसा दिखेगा और यह मीठापुर इसके निचले जबड़े पर बिलकुल सिरे पर स्थित है जो कि द्वारकानगरी से लगभग 20 कि.मी. और ओखा पोर्ट से 10 कि.मी. की दूरी पर है । इस कारखाने की वजह से यह छोटी सी बसाहट शुरू से ही सुव्यवस्थित और विकसित है ।
चलते-चलते आपको बता दें कि पहले जब यात्रा-संस्मरण लिखे जाते थे तो प्रत्येक स्थान का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाता था लेकिन आपने देखा होगा कि मैंने कमोबेश ऐंसा नहीं किया है , इसका कारण यह है कि एक तो आप मेरा यह संस्मरण ऑनलाइन रहते हुए पढ़ रहे हैं , दूसरे यह कि अगर आलेखों को पढने के दौरान आप किसी शब्द या विषय के बारे में और अधिक जानकारी पाना चाहते हैं तो मैंने अपने ब्लॉग पर विकिपीडिया का विकल्प दिया हुआ है । यह आप मेरे ब्लॉग के पृष्ठ पर ऊपर बांयी ओर पा सकते हैं ।अगली बार आप और हम चलेंगे ओखा और फिर वहां से बेट द्वारका और द्वारका स्थित जगतमन्दिर , तो बने रहिये अमित के साथ । एक बार आपको फिर याद दिला दें कि मुझे आपके अमूल्य सुझावों की बहुत जरूरत है , उम्मीद है आप मुझे इनसे नवाजेंगे । तब तक के लिए आज्ञा दीजिये , अमित के प्रणाम स्वीकार करें __/\__
वाह!!!!देर आये पर दुरुस्त आये। अच्छा वर्णन किया आपने और साथ में जो तस्वीरें प्रेषित की है वो लाजवाब और वर्णन को जीवंत बना रही है।भिन्न भाषाई लोग और भिन्न परिधान फिर भी अपना देश महान और सही मायनों में भारत की यही है पहचान। हालांकि ये भारतीयता अभी भी पूरी तरह से विकशित हुई है अथवा नहीं ये एक अलग बहस का मुद्दा है। बाकी बहुत अच्छा लगा की आपने मेरी शिकायत पे बहुत जल्द ध्यान दिया और मै इसके अगले संस्करण की भी इतनी ही व्यग्रता से प्रतीक्षा करूँगा। उम्मीद है इस बार इन्तजार पहले की भांति लम्बा नहीं होगा।।।।
जवाब देंहटाएंसादर नमन_/\_
आपका स्नेहिल स्वप्निल
प्रिय स्वप्निल , जब मैंने इस यात्रा को लिखने का विचार किया था तब मेरे सामने यह दुविधा थी कि मैं इसका शीर्षक क्या दूँ ? "झाँकी हिंदुस्तान की" या "भारत दर्शन" , दोनों ही मुझे समान रूप से उचित लगे , क्योंकि एक ओर जहाँ भारत दर्शन मेरे यात्रा कार्यक्रम का नाम था वहीँ दूसरी ओर पं.प्रदीप के गीत झांकी हिंदुस्तान की को भी दरकिनार करना मेरे लिए मुश्किल था | तब मैंने इन दोनों ही को शीर्षक व उपशीर्षक बना डाला | हाँ , यह आपने बिलकुल सही कहा है कि यही विविधता हमारे देश को एक अलग पहचान देती है | कई बार विदेशी पर्यटक इसके चलते भ्रमित तक हो जाते देखे हैं मैंने | आजकल आप अलग बहस के मुद्दे बहुत छेड़ने लगे हैं अब क्या धन्यवाद भी कहना पड़ेगा ?
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