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सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

भारतीय बुद्धिजीवियों की भूख

" भारतीय बुद्धिजीवियों का भूख से उभरा ज्ञान देश को विनाश की ओर उन्मुख कर रहा है। "  - पॉल थरु (अमेरिकन यात्रालेखक/उपन्यासकार)

यह बात 1970 के दशक में कही गई थी। हमारे बुद्धिजीवियों ने अपनी 'चर्चा में बने रहने की भूख' से समाज को वास्तविक मुद्दों से भटका दिया है। वो अपने पुरुस्कार लौटा रहे हैं, यह उनके विरोध दर्ज कराने का एक तरीका है जिसका मैं सम्मान करता हूँ। लेकिन पूरे घटनाक्रम पर नज़र डालें तो क्या ऐसा नहीं लगता कि हमारे प्रतिष्ठित साहित्यकार/बुद्धिजीवियों के पास (स्व) चयनित मुद्दे हैं जिनका वो समर्थन या विरोध करते हैं, इतना होता तो भी ठीक था पर एक जैसे मुद्दों पर ही धर्म/जाति/सम्प्रदाय के आधार पर उनकी प्रतिक्रिया अलग-अलग होती है। हाल ही में तसलीमा नसरीन ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है- " ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष लोग मुस्लिम समर्थक और हिन्दू विरोधी हैं। वे हिंदू कट्टरपंथियों के कामों की तो आलोचना करते हैं और मुस्लिम कट्टरपंथियों के घृणित कामों का बचाव करते हैं। "



कट्टरपंथ निश्चित ही किसी आधुनिकता और मानवीयता को अपनाने वाले समाज,राष्ट्र के लिए घातक है। नसरीन ने बड़ी बेबाकी से कहा कि जब वो विभिन्न कट्टरपंथियों द्वारा प्रताड़ित की जा रही थी तब हमारे यह स्वनामधन्य लेखकगण मौन थे, बल्कि 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का दम भरने वाले दो लेखकों ( जो खुद साहित्य अकादमी पुरूस्कार प्राप्त हैं ) ने तो उनकी किताब को प्रतिबंधित कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आईना देख लिया करिएगा साहब।

अगर हमारे साहित्यकारों/बुद्धिजीवियों की अक्ल इतनी कुंद हो गई है कि उनको सही मुद्दे/विषय सूझते ही नहीं, तो मैं आपकी मदद करता हूँ। बशर्ते आप अपने लिजलिजा चुके स्वविवेक को खूंटी पर टांग दे। हमारे संविधान का अनुच्छेद 44 कहता है "राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा" स्वतंत्रता के बाद से आजतक इस पर अमल ना कर पाने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने अभी-अभी नाखुशी भी जाहिर की है। प्रो.हरबंश दीक्षित (संविधान विशेषज्ञ) इस संदर्भ में लिखते हैं- "आधुनिक सोच का लाभ केवल हिंदुओं तक ही सीमित न रहे और वह दूसरे मतावलम्बियों को भी हासिल हो”  

वर्तमान सत्ताधारी दल का भी यह एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा था। साहित्यकार/बुद्धिजीवीसिविल सोसाईटी का असरदार प्रतिनिधित्व करते हैं। आप सब मिलकर घेरिये सरकार को कि वह समान सिविल संहिता जल्द से जल्द लागू करे, बनाइए दबाव, लौटाइये सम्मान/पुरूस्कार। पर शायद यह आपको माफिक नहीं आएगा क्योंकि इससे आपकी (चयनित) धर्मनिरपेक्षता की भावना को गहरा आघात पहुँचता है।

" अब क़यामत से क्या डरे कोई
अब क़यामत तो रोज आती है " - ख़ुमार बाराबंकवी  


1 टिप्पणी:

  1. आदरणीय शिवम जी "भारतीय बुद्धिजीवियों की भूख" आलेख को ब्लॉग बुलेटिन में स्थान देने हेतु हार्दिक आभार !

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