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गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

रजनी : मैला आँचल


     अप्रैल के पूर्वार्द्ध में दो महान भारतीय साहित्यकारों की पुण्यतिथि होती है ; 08 अप्रैल को श्री बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय की और 11 अप्रैल को श्री फणीश्वरनाथ रेणु की, इन दोनों शब्द शिल्पियों को इन्हीं के रचनांश द्वारा मेरी विनम्र श्रद्धांजलि  :  
" शुष्क भूमि पर वृष्टि या जल पड़ने से क्यों न उसमें उत्पादन शक्ति आयेगी ? सूखी लकड़ी आग में डालने से वह क्यों न जलेगी ? रूप से हो, शब्द से हो, स्पर्श से हो - शून्य रमणी-हृदय में सुपुरुष के सस्पर्श होने से क्यों न प्रेम पैदा होगा ? देखो, अन्धकार में भी फूल खिलते हैं; मेघ से ढकें रहने पर भी चंद्र गगन में विहार करते ही हैं; जनशून्य अरण्य में भी कोयल बोलती है; जिस सागर गर्भ में मनुष्य कभी न जाएगा - वहाँ भी रत्न प्रकाशित होते ही हैं; अंधों के ह्रदय में भी प्रेम पैदा होता है; नयन बंद होने के कारण ह्रदय क्यों न प्रस्फुटित होगा ? "
 ( साभार - उपन्यास : रजनी ( तीसरा परिच्छेद ) / बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ) 
     'रजनी' बांग्ला का पहला मनो-विश्लेषणात्मक उपन्यास है; उपन्यास नायिकाप्रधान है, जिसमें नायिका अंधी है।





" बेचारा डाक्टर रंग भी नहीं देना जानता; हाथ में अबीर लेकर खड़ा है । मुँह देख रहा है, कहाँ लगावे !
"जरा अपना हाथ बढ़ाइए तो । "
"क्यों ? "
"हाथ पर गुलाल लगा दूँ ?"
"आप होली खेल रहे हैं या इंजेक्शन दे रहे हैं । चुटकी में अबीर लेकर ऐसे खड़े हैं मानो किसी की माँग में सिंदूर देना है !" कमली खिलखिलाकर हँसती है । रंगीन हँसी !
डाक्टर अबीर की पूरी झोली कमली पर उलट देता है । सिर पर लाल अबीर बिखर गया - मुँह पर, गालों पर और नाक पर । ...कहते हैं, सिंदूर लगाते समय जिस लड़की के नाक पर सिंदूर झड़कर गिरता है, वह अपने पति की बड़ी दुलारी होती है । ...
ऐसी मचायो होरी हो,
कनक भवन में श्याम मचायो होरी ! "


( साभार : मैला आँचल-24 / फणीश्वरनाथ रेणु )

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

नदियाँ गाती हैं....

    आज फेसबुक पर एक समूह में किसी ने प्रश्न किया कि " निर्माल्य को कैसे विसर्जित करूँ , जल में प्रवाहित करूँ या गड्ढा खोद कर दबा दूँ ? " उनकी इस पोस्ट पर मैंने अपने विचार टिप्पणियों के रूप में व्यक्त किये , जो कि यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ :

      निर्माल्य पर थोड़ा सा गंगाजल छिडकिये और उसे किसी साफ़ जगह ( खेत आदि ) में गड्ढा खोद कर दबा दीजिये ! आजकल बड़े-बड़े प्रसिद्ध मंदिरों में भी निर्माल्य से खाद बनाई जा रही है, इसमें कुछ भी गलत नहीं है बल्कि दो फायदे हैं ( 1 ) . जलस्त्रोत प्रदूषण से बचेंगे ( 2 ) पवित्र और प्राकृतिक खाद प्राप्त होगी |

      मैं आपको अपना एक अनुभव बताता हूँ , मैंने एक-दो बार एक सार्वजनिक दुर्गोत्सव में पूजन किया है, नवमी के दिन हवन के पश्चात स्थापित प्रतिमा का पूजन कर, जवारे अर्पित करके प्रतिमा पर गंगाजल छिडक के प्रतिमा को प्रतीकात्मक रूप से थोड़ा सा हिलाया जाता है, शास्त्रानुसार तो प्रतिमा का विसर्जन यही माना गया है।  निर्माल्य में जो भी होता है ( फूल, पत्र, अगरबत्ती, भस्म आदि ) वह सब का सब जैवअपघटनीय (Biodegradable) होता है , अगर वह हानिकारक या विषाक्त होता तो हम उसे अपने आराध्य की पूजा में उपयोग ही क्यों करते ? उन सब का अपघटन होकर वो कम्पोस्ट में परिवर्तित हो जाएगा जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बढायेगा ।



      वर्तमान में कल-कारखाने/बूचड़खाने हमारे पवित्र जलस्त्रोतों को प्रदूषित कर रहे हैं, किसी समय नदियाँ जरुर  गाती होंगी , आजकल तो उनकी बड़ी डरावनी सी आवाज़ सुनाई देती है कातर पुकार जैसी , हाँ, कोई समय रहा होगा जब नदियाँ पंचम स्वर में तान छेड़ती होंगी और हम पिल पड़े उन पर अपनी सारी गंद लेकर उनका सुरीला गला घोंटने को , बेचारी सहम गई फिर नदियाँ सकुचाते-सकुचाते नालियों में और कहीं-कहीं तो नदारदों में शुमार हो गई और हमारी आस्था से जुड़ी चीजों पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं,  लेकिन मेरा मानना है कि  जिस समय बुजुर्गों ने इन प्रक्रियाओं ( निर्माल्य के जल विसर्जन ) का गठन किया था उस समय जनसंख्या इतनी अधिक नहीं थी, कल-कारखाने नहीं थे, रसायनों का प्रयोग नहीं होता था, नदियाँ सतत प्रवाहशील थीं उन पर बाँध आदि नहीं बांधे गए थे ।

      अब अगर हम कुछ सकारात्मक कदम उठायें जैसे कि निर्माल्य आदि को नदियों में विसर्जित करना बंद कर दें तो हम और अधिक मजबूती से सरकार और दूसरे लोगों को इस बात के लिए मजबूर कर सकते हैं कि हमने तो इतना बड़ा कदम उठाया है अब इन औद्योगिक इकाइयों पर भी नकेल कसी जाए कि वो इन विषाक्त अवशिष्ट पदार्थों को जलस्त्रोतों में डालना बंद करें । 


सोमवार, 6 अप्रैल 2015

दुनिया : उल्टी या सीधी ?

मेरे निजस्वरूप आत्मन : 

अपने सिर को उठाते हुए अपनी पीठ की तरफ ले जाने की कोशिश कीजिये, इस स्थिति में आप ऊपर की ओर देखने लगेंगे, कुछ देर में ही आप असहज होने लगेंगे और एक या दो मिनिट में आपको दर्द भी अनुभव होगा ( अगर आप गर्दन, रीढ़, कमर की किसी समस्या से पीड़ित हैं तो कतई ऐंसा ना करें ), अब अपने सिर को सामान्य अवस्था में ले आइये और आगे पढ़िये :-

हम कुछ ही देर में इस अजीबो-गरीब दशा से परेशान हो गये ; जरा कल्पना तो कीजिये किसी ऐंसे शख्स की जिसका सिर पूरा उल्टा घूम के उसकी पीठ से चिपका हो, इसके साथ-साथ शरीर में कई जगह टेढ़ापन हो, हाथ-पैर अक्रिय हों । वो भी कोई थोड़े समय से नहीं पूरे 39 साल से, मैं बात कर रहा हूँ मोंटेसांतो, ब्राज़ील के रहने वाले  ' क्लाउडियो वियेरा डी ओलिवियेरा  ' उर्फ़ 'क्रिस्टो' की , क्लाउडियो का जब जन्म हुआ तो उनके परिजनों को बताया गया कि वो अधिकतम 24 घंटे ही जीवित रहेंगे ।


दरअसल क्लाउडियो 'आर्थ्रोग्रायिपोसिस मल्टीप्लेक्स कोन्जेनाइटा (Arthrogryposis multiplex congenita )' नाम की जन्मजात व्याधि के गंभीर शिकार हैं, इस बीमारी में जोड़ विकृत हो जाते हैं, उनके जोड़ इतने अधिक विकृत हैं कि वह व्हीलचेयर का प्रयोग भी नहीं कर सकते लेकिन इस सब के बावजूद क्लाउडियो ने जिंदगी की चुनौतियों को स्वीकार किया । वो बाकायदा योग्यताधारी लेखापाल हैं । प्रकृति ने उनको जो शरीर दिया है वो उसी के साथ प्रसन्न हैं, वो टी.व्ही देखते हैं, किताबें पढ़ते हैं, मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं, मुँह में पेन दबाकर और जीभ से कम्प्यूटर और इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं ।

जरा सोचिये कि हम, जिनके पास मनुष्य जन्म के रूप में प्रकृति का दिया हुआ अनमोल उपहार है वो इस तोहफ़े की उपेक्षा करने में लगे हुए हैं । क्या हुआ अगर कोई अनचाहा दुःख आ गया तो ? क्या हुआ अगर कुछ मनचाहा नहीं हुआ तो ? इस संसार में ऐंसा कोई नहीं जिसे कोई कष्ट ना हो ! डरते-भागते क्यों हैं ? योद्धा बनकर पूरी ताकत से मुक़ाबला कीजिये, ऐंसी कोई रात नहीं जिसकी सुबह ना हो ।

क्लाउडियो के जिंदगी को जीने के जज़्बे की दुनिया भर में तारीफ़ हो रही है, उनको संस्थानों में प्रेरक वक्ता के रूप में आमंत्रित किया जाता है । क्लाउडियो कहते हैं कि " मेरे लिए यह दुनिया उल्टी नहीं है बल्कि उल्टी दुनिया ही मेरे लिए सीधी है" वो आगे कहते हैं :- " हम सब यहाँ बहुत दिन नहीं रहेंगे लेकिन हमारे पास जितना भी समय है हमें उसका सकारात्मक उपयोग करना चाहिए " , कुछ दिनों पहले ही उन्होंने अपना जन्मदिन मनाया है । प्रिय क्लाउडियो, मैं आपको सैल्यूट करता हूँ , आप दीर्घायु हों और दुनिया को रोशन करते रहें । यह मेरे लिए गर्व की बात है कि मैं आपको फॉलो कर रहा हूँ ।

यह उनकी कुछ तस्वीरें हैं जिनमें से एक में वो स्वयं, एक में प्रेरक व्याख्यान देते हुए, एक में अपनी मित्र के साथ और एक में अपने परिवार के साथ हैं,....


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गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

बहारें फिर से आयेंगी

हमारे निजस्वरूप आत्मन : सादर जयहिंद,





कुछ दिनों पहले किसी ने कहा कि मैं 'अवसाद' पर कुछ लिखूँ , इस विषय पर कुछ कहूँ इसके पहले मैं आपको एक बात बताना चाहता हूँ । हमारे शरीर में एक प्रतिरक्षा प्रणाली होती है जो हमारे शरीर को रोगों से बचाती है । यह कैसे काम करती है ? मान लीजिये कि हमें कहीं घाव हो गया या कोई संक्रमण हो गया तो हमारे खून में मौजूद श्वेत रक्त कणिकाएँ ( WBC ) प्रभावित स्थान के इर्द-गिर्द जमा होकर बाह्य रोगकारकों से संघर्ष करती हैं । रोगाणुओं और श्वेत रक्त कणिकाओं की इस जंग में जो श्वेत रक्त कणिकाएँ मृत हो जाती हैं, वो मवाद बन जाती हैं; जिन्हें विभिन्न विधियों द्वारा शरीर से बाहर निकालना जरूरी हो जाता है वरना ये मृत कणिकाएँ, रोगाणुओं के लिए भोजन का काम करेंगी जिससे संक्रमण को और बढ़ने का मौका मिलेगा ।

अवसाद (Depression) भी तो एक मानसिक घाव या संक्रमण के समान ही है । जब हमें कोई महत्वपूर्ण मानसिक क्षति होती है मसलन किसी संबंध का टूट जाना या किसी महत्वपूर्ण लक्ष्य / इच्छा का पूरा ना हो पाना तो भावदशा में परिवर्तन के कारण हम अवसाद से घिर जाते हैं । ऊपर वाले मामले में जो काम श्वेत रक्त कणिकाएँ करती हैं, इस मामले में वही काम हमारे सकारात्मक संवेग ( विचारशीलता, सृजनशीलता, जुझारूपन आदि ) करते हैं; लेकिन अगर अवसाद प्रबल है तो यहाँ भी वही खेल होता है कि यह नकारात्मक संवेगों ( चिंता, कुंठा, विचारशून्यता आदि ) में परिवर्तित हो जाते हैं जो अवसाद की कंटीली बेल के लिये खाद-पानी का काम करते हैं ।

और जब मामला इतना मिलता-जुलता है तो हमें यहाँ भी वही विधि अपनानी होगी । इस अवसाद को नश्तर लगाना पड़ेगा जिससे इसका मवाद बाहर निकल जाए, अवसादरूपी घाव सूख जाए और नश्तर कैसा ? नश्तर है प्रार्थना का, आत्ममंथन का, अपनी क्षमता को पहचानने का , 'महावीर स्वामी' कहते हैं : 
" तू आत्मा के साथ ही युद्ध कर। बाहरी शत्रुओं के साथ किसलिए लड़ता है? आत्मा द्वारा ही आत्मा को जीतने से सच्चा सुख मिलता है। "  -  यकीन मानिये संक्रमण समाप्त हो जायेगा ।

फूल फिर खिलेंगे, तितलियाँ फिर गायेंगी 
थोड़ा सा धीर धरो, बहारें फिर से आयेंगी !

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चित्र साभार : गूगल छवियाँ